ग्राम विहार : राजा विक्रमादित्य के पिता गन्धर्वसेन की गन्धर्वपुरी, तालोद का सूरजकुण्ड विक्रमादित्य का षष्ठी पूजन स्थल

गांव की समग्रता, सीधी-सादी निश्छल ग्रामात्मा और लोक परंपराओं में निहित लोक तत्वों से साक्षात्कार

बित्ते भर धूप के उछलने के साथ ही तारीख बदली और हेमंती कोहरे से पटे मध्यप्रदेश के इन्दौर भोपाल राजमार्ग SH 28  पर हमारी मोटर शनैः शनैः सरक रही थी, मार्ग में  खजुरी, कोलूखेड़ी, वेदखेड़ी,सीताखेड़ी, पगारिया राम, अगेरा, मेहतवाड़ा गांवों के संकेतक आते गए नेवज नदी को पार करने के उपरांत देवास जिले की सोनकच्छ तहसील के गांव गंधर्वपुरी लिखे संकेतक ने हमारा ध्यान आकृष्ट कर  लिया। ‘गंधर्वपुरी’ विस्फारित नेत्रों से पहले तो संकेतक पर दृष्टिपात किया, कुतूहल होना स्वाभाविक था, सूर्याग्नि की प्रतीकात्मक्ता लिए कलामर्मज्ञ गगनचारी इंद्र के अनुचर गन्धर्वों की नगरी, गंधर्वपुरी  का संकेतक हमें स्थान विशेष के परिदर्शन के लिए उकसाने लगा था, बादलों की रजाई से झांकते शिशु सूरज की मुस्कान को निहारते हुए राहगीरों से पूछते-पाछते हम काली सिंध नदी (जिसका कालिदास और वराहमिहिर ने भी स्मरण किया था) से आवृतित सागौन की वृक्षावली से अच्छादित विंध्याचल पर्वत श्रंखला से तीन ओर से घिरे पीपलरावां मार्ग पर खेड़ा, खजूरिया, लोंदिया, दूधतलई गावों को पीछे छोड़ते हुए कोई 9 किमी की दूरी तय कर ऐसे प्रवेश द्वार के सम्मुख जाकर रुके जिस पर ‘राजा गंधर्वसेन द्वार’ लिखा हुआ था। द्वार से प्रविष्ट होने के साथ ही मालवा के लोकजीवन का वैशिष्ट्य लिये 8000 ग्रामवासियों वाला गंधर्वपुरी गांव हमारे समक्ष था। जिज्ञासा चरम पर थी, गन्धर्व तो स्वर्गलोक और मर्त्यलोक के बीच दूतकर्म करने वाली देवयोनि जाति हुआ करती थी, ये वो व्यान्तर देवता थे जिनकी पृथक सत्ता हिन्दू धर्म में स्वीकृत तो रही परन्तु देवत्व की सीमा को स्पर्श नहीं कर पायी, उनके गंधर्वपुरी गांव से स्थापित संबंधों के ईक्षण (जाँच) की तीव्र लिप्सा में हम गांव के भीतर और भीतर घुसते जा रहे थे, गांव की समग्रता, सीधी-सादी निश्छल ग्रामात्मा और लोक परंपराओं में निहित लोक तत्वों से साक्षात्कार मन को लुभा रहा था, कुम्हार सेरी, भावसार सेरी, नाईपुरा, मालीपुरा, काछी मोहल्ला, पुराना थाना और पुराने बाजार की चहल-पहल के दिग्दर्शन में नीम, बम्बूल व विरल होते आम -खांखरे के पेड़ों को स्पंदित करती हहकराती पछुआ हवाएं सिहरन पैदा कर रहीं थीं, गांव में प्रविष्टि के साथ ही नया बाजार मोहल्ले में रामदेव जी के मंदिर में माथा टेकते श्रद्धालु दिखे, इमली के चीयों से अष्टा चंगा पें खेलती स्थानीय बालिकाएँ दिखीं, बीच सड़क पर धूप में सूखती बटला दाल दिखी, लहसन की कलियाँ छीलती महिलाएँ भी दिखीं, अति संकरी गलियों से रगड़ खाती मोटर ज्यों ज्यों गांव में पैठती जा रही थी त्यों त्यों परमार कालीन स्थापत्यों के ध्वंसावशेष दृष्टिगत होने लगे थे। पुराने बड़ा बाजार मोहल्ले के जर्र जर्र होते प्राचीन घरों के ओटलों और नींव के पाषाणखण्डों से झांकती परमारकालीन कीर्तिमुख पट्टिकायें और अलंकृत गजमालिकायें हमें चौंकाती रहीं, नया बाजार में रखी व्यान्तर देवीप्रतिमा, थाना मोहल्ला में  एक निर्माणाधीन घर के मलबे में दृश्यमान द्विभंग में नायिकाओं की मनोहारी छवि लिए प्रतिमा को निहारने के क्रम में हम पुराने कपड़ा व्यापारी मालपानी सेठ की कंगूरों वाली निवास स्थली जो डाकघर और वरिष्ठ नागरिकों की संस्था का कभी दफ्तर रही थी, वहां तक पहुंच चुके थे। कई घर वीरान थे, कई नए स्वामी की अभिरुचि के अनुसार नए स्वरूप में ढल चुके थे, चंदोबा, बारजा, मेहराबों और लकड़ी के खम्भों वाले प्राचीन घरों के अम्बा माता चौक में धूप  मुंडेरी तक उतर आई थी, बड़ के पेड़ की छत्रछाया में आस्थित अम्बे मांई का मंदिर भी पुराने परमारकालीन शिल्पखंडों को जोड़कर बनाया गया था, मंदिर के ठीक सामने स्थित जैन मंदिर अर्वाचीन स्वरूप में ढलकर अत्यंत शोभनीय लग रहा था, यहां तीर्थकंरों की प्रतिमाएं संग्रहीत थीं, भुवनेश्वरी देवी नयी आभा में ढल चुका था लेकिन यहां भी परमारकालीन शिखरमंजरी सहितअन्य वास्तुखण्ड झांकते हुए दिख रहे थे, उतकंठावश पूछा तो विदित हुआ कि इस मंदिर के पार्श्व में पूर्व में एक गुफा हुआ करती थी जिसे गांव के बुजुर्गों ने  हाल के दिनों में देखा भी था, पूरने के बाद उसकी अस्ति मिट चुकी थी। कनटोपा लगाए धूप सेंकते वृद्धजनों ने हमें गांव के वसूली पटेल श्री राकेश चौधरी के घर पहुंचा दिया था।

सोनकच्छ से गन्धर्वपुरी का मार्ग, राजा गन्धर्वसेन द्वार, काली सिंध नदी और मालवी संस्कृति, विन्ध्याचल की पर्वत श्रृंखलाएँ और गाँव का सौहाद्रपूर्ण वातावरण

अवर्षा की स्थिति में गर्दभ रुपी प्रतिमा गंधर्वसेन के चरणों तक देवल भरे जाने से इंद्रदेवता प्रसन्न हो जाते हैं

हमारी भेंट औदुम्बर ब्राह्मण श्री राकेश कुमार चौधरी जी से हुई जो वर्तमान में गांव के वसूली पटेल हैं और पूर्व सरपंच भी रहे हैं, उन्होंने हमें बताया कि गन्धर्वपुरी को पुरानी पीढ़ी गंधावल के नाम से जानती है। जिसे मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू साहब ने विधिवत गंधर्वपुरी कर दिया था। माता का हूडा और ऋषि महाराज डुंगरियों से घिरे गन्धावल के नामाभिधान के मूल में उनके अनुसार यहां पूर्व में बहुतायत में पाये जाने वाले सुगंधित चंदन के वृक्षों की पंक्तियां रहीं हो सकती हैं। गंध अवलि अर्थात गंध युक्त पुष्पों की पंक्ति वाला गांव गंधावल, चंदन के वृक्षों की बहुतायत वाला गांव था जिनका यहां अब सर्वथा अभाव है, चौधरी जी ने यह भी बताया कि यहां का लोक मानस अपने राजा गन्धर्व सेन को अराध्य के रूप में पूजता है। गांव में मांगलिक कार्यों के आयोजन से पूर्व राजा को न्योतने की परंपरा का भी निर्वाहन होता है, लोक विश्वास है कि राजा जी की प्रतिमा के सामने निवेदित प्रार्थनाएं फलीभूत होती हैं इसीलिए अवर्षा की स्थिति में गर्दभ रुपी गंधर्वसेन की प्रतिमा के चरणों तक देवल भरे जाने से इंद्रदेवता प्रसन्न हो जाते हैं इस विश्वास का यहां प्राबल्य है। राकेश जी बताते है कि सामान्यतः शिवालयों में शिवलिंग तक जलभराई की जाती है परन्तु यहां राजा जी के चरणों तक जलभराई की परम्परा रही है, केवल पुरुषों की उपस्थिति में आयोजित होने वाली इस प्रथा में सम्मिलित होने वाले स्थानीय नागरिकों को शुद्धता का विशेष ध्यान रखना पड़ता है गीले वस्त्रों में ही यह कार्य संपादित किया जाता है, राजा जी की पूजार्चना और अभिषेकोपरांत निर्धारित विधि विधान से देवल भरने के अब तक किये गए तीन प्रयोग सफल सिद्ध हुए हैं, अपनी स्मृतियों पर जोर देते हुए चौधरी जी बताते हैं कि वर्ष 1 9 7 0 में उनके दादा बा श्री गोविंदराव पटेल ने देवल भरी थी, मंदिर में चौबीस घंटे तक रहने वाली जलभराई गतिविघि की सम्पन्नावस्था से पूर्व ही बौछारें प्रारम्भ हो गयीं थीं, देवल भरने के तीन सेकंड, तीन मिनट, तीन घंटे और तीन दिन में बहुधा परिणाम दिखने लगते हैं, यही नहीं असमय वर्षा कराने के लिए भराई गयी देवल के दुष्परिणाम के भी गांव वाले प्रत्क्षदर्शी रहे हैं।

राकेश जी से यह भी पता चला कि राजा जी को यहां निवासित मानकर आस्थावान गंधर्वपुरी की जनता उज्जैनी (बीज बोने के बाद इंद्र देवता को प्रसन्न करने के लिए बस्ती के बाहर जंगल में भोजन बनाने की परंपरा) आयोजित नहीं करती। अपने राजा के प्रति गहनासक्ति रखने वाला गंधर्वपुरी का जनमानस राजा गंधर्वसेन के प्रति ही नहीं बल्कि उनके पुत्रों उज्जयिनी के जनसम्राट विक्रमादित्य और भर्तृहरि को भी उनके अलौकिक गुणों के कारण पूजता है। लोक की हृदय संवादिता ने निरंतर कड़ियों के रूप में राजा गन्धर्वसेन के प्रति अमोध विश्वास को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाया है यह तो हम जानते थे पर उनके वंशजों को  भी स्मृतियों में जस की तस सहेजा है यह जानना हमें अचम्भित कर रहा था, हमने राकेश जी से गंधर्वसेन संबंधी  लोक कथा के बारे में जानना चाहा तो ज्ञात हुआ कि इन्द्र की सभा में एक गंधर्व द्वारा अनैतिक आचरण करने पर इंद्र द्वारा गन्धर्व को गर्दभ स्वरूप में जन्मने के लिए आज्ञापित किया गया था इस लोक भूमि पर कुम्हार के घर गर्दभ योनि में जन्म लेने के पश्चात् वह कुम्हार राजा की बेटी से विवाह करने का  हठ करने लगा था। स्वभावगत गधे हठधर्मी होते ही हैं वे अड़ जायें तो टस से मस नहीं होते, राजा तक गधे का बातें नहीं पहुंचा पाने की विवशता और दुविधा में कुम्हार ने गांव से पलायन करने का निर्णय ले लिया। राजा को जब इस बात की सूचना मिली तो उसने सच्चाई जानने की अभिलाषा में कुम्हार को दरबार में बुलाया। कुम्हार ने राजा से निवेदन किया कि वे एक रात उसके घर पर रह कर देख लें तो वे उसकी समस्या के मूलकारण से स्वतः ही अवगत हो जायेंगे। राजा द्वारा रात्रि विश्राम करने पर उसने पाया कि वह गर्दभ रूपी लड़का पुरूष सृदश वार्तालाप कर रहा था। हठी राजकुमार ने राजा से भी उसकी बेटी का हाथ मांगा। अचकचाये राजा ने उसकी परीक्षा लेने हेतु एक प्रस्ताव रखा जिसमें एक रात में इस नगरी को तांबे से मढ़ने का निर्देश था। गर्दभ रूपी पुरुष ने ऐसा ही किया, तब तांबाई रंग वाली यह नगरी ताम्ब्रवती कहलायी। राजकुमार को प्रतिभा सम्पन्न पाकर  राजा ने अपनी बेटी का विवाह गंधर्व से कर दिया। रात्रि में वह गर्दभ रूपी गंदर्भ  सहधर्मिणी के साथ रहता था दिन में वह गधे का चोला धारण कर लेता था, उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। कुछ समय पश्चात् उसकी सास ने सोचा कि क्यों न अपने दामाद के गधे रूपी आवरण को ही विनष्ट कर दें। उसने उसके आवरण में आग लगा दी।  गर्दभ रूपी पुरूष जब जलने लगा तब उसने अपनी जीवनसंगिनी से गांव छोड़कर अन्यत्र चले जाने को कहा। गांव वालों की मान्यता है कि वह अपने पुत्र को लेकर उज्जैनी की ओर प्रस्थान कर गयी बाद में वही बालक बड़ा होकर लोकनायक विक्रमादित्य के रूप में सर्वस्वीकृत सर्वमान्य गणनायक बना। जिसने विदेशी शकों से देश की अस्मिता की रक्षा की। जलते हुए गर्दभ रूपी पुरूष के वचनानुसार धूल कोट के कारण यह का उपक्रम धूलधुसरित हो गयी और सभी प्राणी पाषाणमय होकर जड़वत् हो गये। गांव वाले आज भी यहां मिलने वाली अंसख्य प्रतिमाओं को पखान (पाषाण ) की मूर्ति कहते हैं और मानते हैं कि धूलकोट के कारण जो उखड़ो थो वू उखड़ो रई गयो, जो उब्बो थो वू उब्बो रई गयो, जो हुत्थो थो वू हुत्थो रई गयो ,जो नागो थो वू नागो रई गयो, वास्तविकता तो यह है कि लोक इतिहास का अनुगामी नहीं होता उसकी अपनी मान्यताएं हैं जो कंथानुकंठ पीढ़ीयों से किवदंतियां बनकर संचरित होती रहती हैं। राकेश जी के अनुसार आज भी गांव में घर बनाते समय खुदाई करने के दौरान पुरातात्विक महत्व की दर्जनों प्रतिमाएं प्राप्त होती रहती हैं। देश के शेष भाग में गधे को हेय दृष्टि से देखने वाले प्रायः निरा गधा उपमान देकर अत्यधिक सीधे व्यक्तियों को उलाहना देते रहते होंगे पर यहां ऐसा कदापि नहीं होता। श्री चौधरी ने अपने बालकाल्य से देखा है कि गन्धर्वपुरी में कभी गर्दभ को उपाहासात्मक दृष्टि से नहीं देखा गया बल्कि मार्ग में गधे को देखकर परस्पर संवाद में यह भर कहा जाता रहा यहां के राजा जी पधार रहे हैं हट जाओ रास्ता छोड़ो। गदहपन, गधापचीसी (ऊलजलूल कार्य करने वाले युवा) और गधालोटन  (थकान दूर करने का तरीका ) आदि शब्दों के चलन का तो यहां प्रश्न ही नहीं उठता। ये बात और है कि समय के साथसाथ परम्पराओं का अनुसरण करने वाले अब गांव में उँगलियों के पोरों पर गिने जा सकते हैं ।चौधरी जी ने वार्तालाप में महाराजा विक्रमादित्य के चरित्र का उपक्रम और बोपदेव के चरित्र प्रसंग में उल्लिखित राजा विक्रमादित्य के पिता के रूप में गंधर्वसेन के नाम की भी चर्चा की , जिसमें बोपदेव को नर्मदा के तट पर जाकर विक्रम के पिता गंधर्वसेन को भगवतमहात्मय सुनाने की आज्ञा दी गयी थी,शौनक जी तथा सूत जी के बीच हुए परस्पर  संवाद में कलियुग के सैंतीस सौ दस वर्ष व्यतीत होने पर प्रमर नामक राजा के पुत्र महामद के पुत्र देवापि के पुत्र देवदूत के पुत्र गंधर्वसेन के राजपाट करने वाला प्रसंग जो गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित भविष्यपुराण के पुरातनअंक में प्रकाशित हुआ था  को उन्होंने अपने कथ्य की प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए हमारे समक्ष प्रस्तुत भी किया  ,सम्पूर्ण नवनाथ चरित में गंधर्वों की कथा में गर्दभ स्वरूपी सुरोचन गंधर्व ,कमठ कुम्हार ,विक्रम का जन्म ,अवंतिकापुरी के राजा शुभविक्र्म द्वारा नगर कोतवाल पद पर विक्रम की तैनाती , देवी पार्वती के शाप से मर्त्यलोक में आ गए चित्रमा गंधर्व की सुरोचन गंधर्व के पुत्र विक्रम के हाथों मृत्यु , मृत्योपरांत गंधर्व की शापमुक्ति के सूत्रों को जोड़ते हुए वे हमें गंधर्वसेन की गंधर्वपुरी के पक्ष में कई प्रमाण दे रहे थे ,उन्होंने  देवराज इंद्र की सभा से भेजी गयी देवांगना वीरमती और शंख के पुत्र गंधर्वसेन के जन्मने के समय आकाश से पुष्पवर्षा होने देवताओं के दुंदुभी बजाने वाले घटनाक्रम को भी साझा किया । 

पीछे1 / 7

Comments

  1. O P Mishra says:

    Wow! Well written and finely executed. You proved that Gardbhilla was Vikramaditya’s father. You are on the footsteps of Mrs devala Mitra DGA SI. Taking forward the interest in the field of art culture,and archaeology.
    Congratulations!

  2. दिनेश झाला says:

    काफी समय बाद आपकी गन्धर्वपुरी पर रचना पढने के बाद बहुत आनंद आ गया धन्यवाद आभार।
    -दिनेश झाला शाजापुर ।??????

  3. Shyam says:

    दीदी नमस्कार.केसर बाई के लोकगीत मे आनंद आ गया आपके द्वारा हमे कई सारी एतिहासिक जानकरी प्राप्त हुई आपका आभार.आपको बधाई.

  4. वीरेंद्र सिंह says:

    ऊँ नमः शिवाय आपका नया ब्लाग पढ़ कर अति प्रसन्नता हुई परन्तु उससे अधिक जिज्ञासा बढ़ गयी गन्धर्व पुरी के बारे में एक ऐसे प्रतापी राजा और वंश के बारे में जिन्होंने परमार वंश की नीव रखी जिनका साम्राज्य मध्य भारत से दक्षिण भारत तक फैला हुआ था जिनके वंशज एक महान सम्राट विक्रमादित्य हुए तो दूसरे राजा भर्तृहरि जिन्होने हिन्दू धर्म का मार्ग दर्शन किया, सबसे बड़ी बात जो आपके शोध से सामने आयी कि किस प्रकार पहले के इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास के साथ घोर अन्याय किया है आपने जिस तरह से पूरी प्रमाणिकता के साथ तथ्यों को सामने लाने का प्रयास किया है शायद इससे आने वाले समय में भारत का प्राचीन इतिहास पुनः एक बार ऐसे ही शोध के साथ देश दुनिया के सामने लाने की आवश्यकता है, आज की जो युवा पीढ़ी जिसको अपने गौरव शाली इतिहास को ना तो बताया गया और ना तो दिखाया गया ऐसे छात्रों के लिए आपका ये लेख किसी अमूल्य खजाने से कम नहीं हैं पर मेरा उन छात्रों से भी निवेदन है कि वे आपका लेख सिर्फ पढ़े नहीं बल्कि गंधर्वपुरी आकर स्वयं अवलोकन भी करे ।इतिहास में प्रामाणीकता सिर्फ किताबों के अन्दर नहीं बल्कि भारत के लोककथाओं में व लौकक्तियो में भी भरे पड़े हैं । जिसको ये पश्चिमी मानसिकता वाले इतिहासकारों ने बड़ी चालाकी से नकारने की कोशिश की । मेरे विचार से आपका ये लेख राजपूत वंश में परमार वंश को और अधिक गहराई से जानने में सहायक सिद्ध होगा ।गंधर्वपुरी को सरकार को विश्व धरोहर स्थल व पर्यटक स्थल घोषित करना चाहिए जिससे भारतीय अपने गौरव शाली इतिहास को जान सके व राज्य का भी आर्थिक विकास हो ।

  5. कमलेश बुन्देला says:

    अति सुन्दर जानकारी
    कमलेश बुन्देला

  6. दयाराम सिरोलिया says:

    बहुत ख़ूब दीदी
    दयाराम सिरोलिया देवास

    1. Rajendra Kumar Malviya says:

      दीदी आप बहुत अच्छा लिखती है, मैं आपका फैन हूँ और हमेशा आपके सारे लेख पढता हूँ। दीदी आपका बहुत अच्छा प्रयास है जो महाराजा विक्रमादित्य और उनसे जुड़े विभिन्न अनछुए पहलुओं को लोगो को बता रही है। दीदी गंधर्वपुरी और राजा गंधर्वसेन के बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा, मानो इतिहास से महाराजा विक्रमादित्य, गंधर्वसेन और उनकी गन्धर्वनगरी को फिर से जीवंत कर दिया हो आपने दीदी।

  7. जितेंद्र सिंह सेंधव, तालोद says:

    दिशा जी शर्मा आपके द्वारा सोनकच्छ तहसील के ग्राम तालोद में आकर सूरजकुंड और माता सृष्टि देवी पर जो लेख लिखा है वहां गौरवशाली है आप आगे और इसी प्रकार प्रयास कर इसे पुरातत्व विभाग तक ले जाने का प्रयास करें।

  8. O p Mishra says:

    Good morning,I have read all about gandharvapuri,temple,sculptures,mythology,interviews othe locals,historian,archaeologist,these are excellent matter for new generations.new young archaeologist must see the survey of the sites.mam you have given the complete chronologies of this makes region.this main site was the famous for jainism, Hindu but no remains of buddhist.there are satisfied memorials which prove the late historic remains.if you have some yogini sculptures in talod,it will be a great for researcher.please see once again this site.without prove we can say the rare discoveries.please see the report of Cunningham volume, he might have written some thing.saptamatrikas are also a part of 64yoginis.wait for new evidences.thanks for sending this matter to me.

  9. आर सी ठाकुर महिदपुर says:

    ???? बहुत ही स्तुत्य, अदभुत प्रस्तुति ।आपका अभिनन्दन।

  10. Rajesh Upadya Ujjain says:

    Thanks didi Bhaut accha laga

  11. राजेश चौधरी गन्धर्वपुरी says:

    बहुत सुन्दर ?????

  12. अजय मंडलोई ऊन खरगोन says:

    बहुत शानदार????

  13. Bhagatsingh says:

    नवम्बर 6, 2019
    काफी समय बाद आपकी गन्धर्वपुरी पर रचना पढने के बाद बहुत आनंद आ गया धन्यवाद आभार।
    Bhagatsingh kushwah khushwahnagar

  14. अहमद अली भोपाल says:

    अति सुंदर?

  15. Op mishra Bhopal says:

    No doubt,you have explained in detail about nature,local mythology, gandhavasen story, relation with ujjaini.good literary records.gandhrvapuri was the centre for parmara art and architecture.ghar ghar me sculptures are still available.thank to your devotions to the social culture ,art ,religious life of the common people,kancha playing girls sent us our child hood.so once again thank you very much.

  16. बंशीधर बंधु, शुजालपुर मंडी says:

    आदरणीया दीदी आपकी रोड डायरी में दृश्यावलियों के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक,धार्मिक और पुरातात्विक उल्लेख अद्भुत हैं। राजा विक्रमादित्य और उनके पिता राजा गंधर्व सेन के मालवी लोक धुन से आबद्ध गुरीले गीतों ने चार चांद लगा दिए हैं।
    गंधर्वपुरी पर आपका शोध पूर्ण कार्य बहुत महत्वपूर्ण है। शोधार्थियों के लिए अवसर प्रदान करने वाला है यदि चाहें तो।
    इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए आत्मीय बधाई एवं शुभकामनाएं

  17. Dr Radha Ballabh Tripathi says:

    In these blogs, Disha Sharma the celebration of life that somehow still continues in rural area. She explores the remotest villages in Madhya Pradesh and with an undaunting courage and jijnAsA continues her search for the roots which are otherwise lost. She creates real feast for lovers of art, history and indigenous traditions. What an undiscovered glory of ancient and mediaeval Archeology!

  18. ललित शर्मा, झालावाड़ - महाराणा कुम्भा इतिहास अलंकरण - वाकणकर रजत इतिहास अलंकरण - says:

    -देवास के लोक की समृद्धि का अद्भुत प्रयास-

    सम्राट विक्रमादित्य के पिता गंधर्वसेन की लोक गाथाओं से परिपूर्ण एवं देवों की प्रिय नगरी देवास को गंधर्वपुरी भी कहते हैं। इसी की भूमि से जुड़ी अद्भुत गाथाओं वाली संस्कृति को गहराई से अपने संस्मरणों में गुंथा है। प्रासेह पत्रकार दिशा अविनाश जी शर्मा ने क्षेत्रीय अनेकशः ग्रामों में जाकर उन्होंने परमारकालीन संस्कृति के शिल्प, मंदिरों के साथ वहाँ लोक में रची संस्कृति को बहुत सुन्दर ढंग से सचित्र उभारा है। धुंध, बादल और सूरज के मध्य संस्कृति का चित्रण बड़ा जीवंत है। ग्राम्य परिवेश, पहाड़, खेत की हरियाली के दृश्यों का जीवंत चित्रण मनोहारी है। वसूली पटवारी राकेश चौधरी की चर्चा के साथ ग्रामीण आवास, केसरबाई द्वारा गंधर्वसेन की गाथा, पं रमेश चंद्र शर्मा द्वारा गन्धर्व गाथा, ये सब इतनी रोचकता लिए हैं कि यहाँ संस्कृति बोलती है और इतिहास मौन रहता है।

    दिशा जी ने मालवा की पुराकला, शिल्प को जिस प्रकार लोक से जीवंत भाव द्वारा जोड़ा वह उनकी अपरिमेय गहनता, विद्वता को प्रकट करता है। मैं हृदय से उनका आभार व्यक्त करता हूँ और परिश्रम को प्रणाम करता हूँ। -देवास के लोक की समृद्धि का अद्भुत प्रयास-

    सम्राट विक्रमादित्य के पिता गंधर्वसेन की लोक गाथाओं से परिपूर्ण एवं देवों की प्रिय नगरी देवास को गंधर्वपुरी भी कहते हैं। इसी की भूमि से जुड़ी अद्भुत गाथाओं वाली संस्कृति को गहराई से अपने संस्मरणों में गुंथा है। प्रासेह पत्रकार दिशा अविनाश जी शर्मा ने क्षेत्रीय अनेकशः ग्रामों में जाकर उन्होंने परमारकालीन संस्कृति के शिल्प, मंदिरों के साथ वहाँ लोक में रची संस्कृति को बहुत सुन्दर ढंग से सचित्र उभारा है। धुंध, बादल और सूरज के मध्य संस्कृति का चित्रण बड़ा जीवंत है। ग्राम्य परिवेश, पहाड़, खेत की हरियाली के दृश्यों का जीवंत चित्रण मनोहारी है। वसूली पटवारी राकेश चौधरी की चर्चा के साथ ग्रामीण आवास, केसरबाई द्वारा गंधर्वसेन की गाथा, पं रमेश चंद्र शर्मा द्वारा गन्धर्व गाथा, ये सब इतनी रोचकता लिए हैं कि यहाँ संस्कृति बोलती है और इतिहास मौन रहता है।

    दिशा जी ने मालवा की पुराकला, शिल्प को जिस प्रकार लोक से जीवंत भाव द्वारा जोड़ा वह उनकी अपरिमेय गहनता, विद्वता को प्रकट करता है। मैं हृदय से उनका आभार व्यक्त करता हूँ और परिश्रम को प्रणाम करता हूँ।

  19. जगदीश भावसार शाजापुर says:

    गंधावल से गंधर्वपुरी के ऐतिहासिक परिदृश्य गांव की सकरी एवं सहृदय गलियों से एवं ग्रामीण मार्ग में इमारती लकड़ी के सागोन वृक्षो से परिचय तो कहीं चंदन की मधुर गंध से गंधावल नाम धन्य करती है ।गांव की पगडंडी में टेशु के मनभावन फूल से स्फूर्ति एवं इमली के बीज से बालिकाओं का खेल सृजन ,घरों के ओसारे-ओटलों से झांकते भग्नावशेष एवं संग्रहित मूर्तियां क्षेत्र की दशा दिशा को उजागर करती है।
    पौराणिक प्रसंग एवं राज वंशावली का सिलेवार वर्णन क्षेत्र की प्राचीनता ,स्थापत्य कला ,साहित्य एवं संगीत के वैभव पठनीय है। धूलकोट जैसे लौकिक कथानक की प्रासंगिकता पर स्वीकृति नहीं है ।देवस्थान आस्था मान मन्नत एवं विश्वास से सराबोर है ।भाषा के माधुर्यऔर सरल प्रस्तुतीकरण में क्षेत्र के विभिन्न आयामों का चित्रण बहुत ही प्रभावी एवं सारगर्भित ढंग से हुआ है विश्लेषण सराहनीय है

  20. लक्ष्मीनारायण पयोधि, भोपाल says:

    इस यात्रा-वृत्तांत में प्रयुक्त भाषा ने चमत्कृत और मोहित किया।इसकी भाषा और वर्णन शैली ने अनायास ही आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की याद दिला दी।आपकी भाषा इस वृत्तांत के आरंभ से ही काव्यात्मक बन पड़ी है।पढ़ते हुए प्रकृति के विविध बिम्ब अपने संपूर्ण सौंदर्य के साथ अवतरित होते जाते हैं।पुरात्व की तकनीकी भाषा तथ्यों को प्रामाणिक बनाती है।ऐतिहासिक,पौराणिक,सांस्कृतिक,श्रुतिमूलक और लोकमान्यताओं के संदर्भ तो हैं ही।कुल मिलाकर एक भव्य यात्रा-वृत्तांत।इसमें एक अच्छे उपन्यास की संभावना भी दिखायी देती है।यदि आपकी रुचि हो तो इसी को लेकर आगे काम कर सकती हैं।
    बहरहाल,एक प्रभावी यात्रा-वृत्तांत के लिये बहुत बधाई और शुभकामनाएँ!

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