पश्चिम बंगाल की लोक नाट्य शैली “भवानी जात्रा” में महिषासुरमर्दिनी

आद्यशक्ति सहस्त्र भुजवती देवी ‘भवानी’ की शत्रुविमर्दिनी शक्ति का चिरस्मरणीय प्रदर्शन

आकाश पाताल को अपनी ज्योति से उद्भासित करती आद्यशक्ति सहस्त्र भुजवती देवी ‘भवानी’ की शत्रुविमर्दिनी शक्ति का चिरस्मरणीय प्रदर्शन हाल ही में भोपाल के जनजातीय संग्रहालय के सभागार में देखने को मिला। पश्चिम बंगाल की संस्था कोलकात्ता रंगमंच थियेटर  के कलाकारों द्वारा शोभीजीत हलदर के निर्देशत्व में प्रस्तुत ‘भवानी जात्रा’ की प्रस्तुति ने आद्यान्त दर्शकों को भक्ति प्रवण बनाये रखा। हमारी शक्ति रूपिणी शक्ति हमारे भीतर छिपी है का गूढ़ार्थ लिये पश्चिम बंगाल की लोक नाट्य शैली ‘जात्रा’ में महिषासुरमर्दिनी को ऐसे रूपायित किया गया था कि हर दृश्य की समाप्ति पर सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान रहा। संस्कृतनिष्ठ श्लोकों, शास्त्रीय संगीत, गीतिबद्ध संवादों और नृत्यपरक अभिनय से श्रृंगारित भवानी जात्रा में नारी को मातृदेवता के रूप् में पूजित दिखाया गया । वैसे भी हमारे धर्मशास्त्रों में जननी का गौरव उपाध्याय से दस लाख गुना आचार्य से लाख गुना और पिता से हजार गुना बढ़कर बताया गया है।दर्शक दीर्घा में बैठे -बैठे महर्षि याज्ञवल्य की आज्ञा स्मृत हो आयी थी भर्तृभ्रार्तृपितृज्ञाति श्र्वश्रूश्र्वशुर देवरै ।बन्धुभिश्र्व स्त्रियः पूज्याः ।।अभिप्राय यह कि  पति, भ्राता, पिता कुटुम्बी, सास , ससुर, देवर, बन्धु बान्धव स्त्री के समस्त सम्बन्धियों का कर्तव्य है कि वे उसका सम्मान करें।यह इस लोकनाट्य का प्रभाव ही था कि मन चिन्तन मनन करने लगा था। इसके लिए जात्रा की लेखिका सप्तर्षि मोहंती की जितनी प्रशंसा की जाये वह कम होगी । प्रीतम बोस इन्द्र के रूप में सुबास मित्र निशुंभ, देवजीत राॅय शुंभ, अनुश्री जैन अप्सरा स्वयं शुभजीत महिषासुर और सप्तर्षि भवानी की भूमिकाओं में अपनी छाप छोड़ पाने में सफल रहे। सौम्यदीप चक्रवर्ती व सम्राट नियोगी के उल्लेखनीय संगीत निर्देशन, कार्तिक की उत्तम प्रकाश व्यवस्था के कारण भी ‘भवानी जात्रा’ की प्रस्तुति सराहनीय रही। छोटे छोटे दृश्यों को एक कथा सूत्र में पिरोकर ऐसे प्रस्तुत किया गया कि दर्शक लोक नाट्य की कसावट में पूर्णतः संलिप्त हो जायें। भवानी जात्रा में महिष नामक असुर द्वारा इंद्र को परास्त कर स्वयं इंद्र बन जाने, महिषासुर के अत्याचारों से संत्रस्त देव गणों द्वारा विनती करने पर विश्व प्रकाशिनी का तेजोमई प्रादुर्भाव, देवगणों द्वारा अमोघ अस्त्र शस्त्र प्रदत्त करने, भगवती के अटटहास से कम्पायमान समस्त लोक और भयाक्रांत महिषासुर, महिषासुर संग्राम में भवानी द्वारा वध, आल्हादित देवगणों द्वारा आध्य शक्ति की स्तुति ये सारे दृश्य रोचकता के साथ प्रस्तुत किये गए। जात्रा का एक और सराहनीय पहलू  बंगाल के वे उपादान थे जो लोक में व्याप्त हैं उनका यथोचित प्रयोग किया जाना रहा जैसे माटी के दिये का प्रकाश,मशालों का प्रज्ज्वलन,पंखे का झलना,आम के पत्तों और फूलों से बना बंदनवार,शंखनाद,बांस  आदि।सभागार संस्कृत के श्लोंको से गुंजायमान रहा चतुरदंत गजारूढ़ वज्रपाणि पुरन्दरः ।सचिपतिस्थ धातव्य नानावरण: भूषित: ।।यह श्लोक देव राज इंद्र के इंद्रलोक में प्रवेश के समय प्रयुक्त किया गया।आदित्यह्रदयस्त्रोतम के चौथे और सोलहवें पाठ के श्लोकों का यथास्थिति प्रयोग किया गया ।आदित्य हृदयं पुण्यं, सर्वशत्रु विनाशनम्‌ ।जयावहं जपं नित्यं, अक्षयं परमं शिवम्‌ ।।नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः।।,
महिषासुर संग्राम में भवानी जब थकान का अनुभव करती हैं तब वें देवाधिदेव महादेव द्वारा प्रदत्त अमृत का पान करती हैं  उस समय जिस श्लोक का उच्चारण करती हैं उसका भी जात्रा में समुचित प्रयोग हुआ।गर्जः गर्जः शंङ्ग मोड़: मधुयावत् पिवाम्यहं ।मायत्वीव: हततत्रयीव: गर्जेशंतराशु देवता ।।इन श्लोकों के साथ लोक नाट्य का शास्त्रीय पक्ष उजागर हुआ।

रंगमंच की दुनिया से लम्बे समय से जुड़े शुभोजीत रवीन्द्रनाथ टैगोर और मेघनाथ भट्टाचार्य के नाटकों का प्रस्तुतीकरण करते रहे हैं। अपनी माँ श्रीमती सुप्रिया हलदर के साथ  रवींद्र संगीत और शास्त्रीय संगीत का अनुशीलन कर चुके शुभोजीत छुटपन से ही बंगाल की जात्राओं में संगीत चर्चक के रूप में सम्मिलित होते रहे ।संस्कृत श्लोकों से देवी की अराधना प्रतिदिन करने वाले बंगाली समुदाय के कारण शुभोजीत के अनुसार संस्कृत के क्लिष्ट संवादों के प्रस्तुतिकरण में उन्हें और उनके सहकलाकारों को किंचित समस्या नहीं आयी। यद्यपि इससे पहले माता शीतला की प्रस्तुति में बांग्ल भाषा के प्रयोग का इच्छित प्रतिसाद न मिल पाने के कारण व्यथित शुभोजीत ने इस लोकनाट्य की प्रस्तुति में हिंदी के सरल शब्दों का ही प्रयोग किया था । हमने कार्यक्रम की समाप्ति पर शुभोजीत हलधर से पश्चिम बंगाल की ‘जात्रा’ लोकनाट्य शैली के संदर्भ में चर्चा की उन्होंने बताया कि जात्रा से तात्पर्य है संकीर्तन यात्राओं के माध्यम से लोकधर्मी लोकोपयोगी विचारों को लोकलीलाओं के रूप में लोकरंजन की दृष्टि से लोकमन को उपलब्ध कराना। इस लोकनाट्य शैली के उद्भव को लेकर प्रमाणिक साक्ष्य नहीं मिलने से यह कब प्रचलन में आई यह बता पाना शुभोजीत के लिए कठिन था लेकिन इतना तो निश्चित है कि वेद, उपनिषद और पुराण की मौखिक या वाचिक परंपरा ही लिखित साहित्य के मूल में रही हैं।लम्बे तथा कथा प्रधान लोकगीतों के तत्काल बाद लोकनाट्य का आविर्भाव हुआ ,एक प्रकार से लोकगीतों में वर्णनात्मकता जब मात्र वाचिक न रहकर आंगिक हो गई तब नाट्य शैली का सूत्रपात हुआ।पहले तो नाटक का स्वरूप गीतात्मक ही रहा फिर काव्यात्मक होते हुए गद्यात्मक  हो गया।   शुभोजीत और उनकी संस्था फरवरी से अगस्त तक कोलकाता  में आयोजित ऐसी ही जात्राओँ में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है।

शुभोजीत के अनुसार जात्रा का अर्थ ही यात्राओं के माध्यम से भिन्न भिन्न स्थानों पर धार्मिक प्रवृति के नाटकों का आयोजन करना होता था लोक पर्वों और धार्मिक उत्सवों में पौराणिक आख्यायिकाएं ही चैतन्यमहाप्रभु के भक्ति आंदोलन से संकीर्तन के साथ-साथ पश्चिम बंगाल से त्रिपुरा, असम, उड़ीसा यहां तक की  बिहार भी पहुंची। भक्ति आंदोलन का प्रभाव परिनिष्ठित लोक कलाओं पर भी पड़ा। नि:सन्देह मध्ययुग में लीलापरक जात्रा की प्रसिद्धि इतनी अधिक थी कि मध्ययुग को जात्रा का उत्कर्ष काल कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।  शुभोजीत के अनुसार धर्मोन्मुख होने से लोक विश्वास को अनुसरित करने वाले अभिनय और लोकगीत जात्रा का अंग बने। देवी देवताओं के चित्रण और  नृत्यप्रधान अभिनय वाली इस विधा में निरंतर विकास के कारण नये-नये सामाजिक सरोकारों वाले प्रसंगों का  समावेश होता गया। एक समय में डेढ़ सौ रूपये के बजट वाली इस विधा में कलाकारों को एक आने से लेकर चार आने तक दिए गए। जात्रा का एक अन्य स्वरूप जात्रा पाला के रूप में पश्चिम बंगाल में मिलता है जिसमे लोकनाट्य का मंचन धारावाहिक की शैली में प्रतिदिन होता है। बंगाल में आज भी जात्रापाला का स्वरूप अस्तित्व में है। इसमें  कृष्ण जात्रा, शिवजात्रा, राम जात्रा, सीता जात्रा और भवानी जात्रा आदि का मंचन होता है।

पूरी रात चलने वाले ऐसे आयोजन उत्तर 24 परगना के क्षेत्रों में बहुतायत से होने लगे थे । पुरूलिया, मिदनापुर बीरभूम में जात्रा टोलियों की धूम थी। भड़कीले परिधान , लिपे पुते चहरों वाले पात्र ,संगीत का अतिरेक साथ ही  इन जात्राओं  में  विवेक नामक पात्र ही उचित और अनुचित समझाने लगा था। वही  पद्यबद्ध रचनाओं के माध्यम से दो भूमिकाओं में संलाप कर गूढ़ार्थ स्पष्ट करता था जिसमें एक विवेकी और दूसरा अविवेकी होता था। जिसमें कई दृश्यों को एक कथासूत्र में पिरोया जाता था। वर्तमान में चार घण्टे की समयावधि वाली जात्रा में 7-8 गाने दृश्यानुसार यथोचित मानकर रख लिए जाते हैं जबकि पूर्व में 65-70 गीतों के बिना जात्रा अधूरी मानी जाती थी। शुभोजीत और सप्तर्षि मोहंती जात्रा के इतिहास से जुड़ी जानकारियां साझा कर रहे थे।

उनके अनुसार प्रकाश व्यवस्था का जात्रा में विशेष स्थान रहा है। पूर्व में श्वेत प्रकाश व्यवस्था को भक-भक हाथों के प्रभाव से उत्पन्न किया जाता था। आज तो ‘फ्लिकर्स’ आ गये हैं। जात्रा का पर्याय ही था साज-सिंगार का आधिक्य, घर के रंग रोगन वाले पेंट से चेहरा रंग ने, काले रंग के लिए पहले दियासिलाई जलाने के बाद की कजली से निर्मित काले रंग का प्रयोग करने, लाल रंग के लिए बंगाली पान का बीड़ा मुंह में रख ने का प्रयोजन  किया जाता था जिससे मुंह, होंठ और जीभ सब लालिमा से रंग जाते थे। राजा महराजा के मुकुट, राजसी वैभव पर विशेष ध्यान दिया जाता था। पूर्वनिर्धारित संवादों के स्थान पर मंच पर ही तत्कालिक संवादों की निर्मिति होती थी। जिन्हें ‘टोन्शा’ (बंगाली में) कहा जाता था।आज शुभोजीत के अनुसार  मंगल काव्यों वाली जात्रा भी अन्य लोकनाट्य कलाओं की भांति अपने अस्तित्व के लिए संघर्षषील है। अब 24 उत्तर परगना में 3 मिदनापुर में 2, बीरभूम में 3 और पुरूलिया में 5 ऐसी मण्डलियां रह गयी हैं जो जात्रा आयोजित करती हैं। अधिकांषतः लोकनाट्यों में पुरूषों द्वारा स्त्रीपात्रों का अभिनय किये जाने पर शुभोजीत बताते हैं बंगाल में  कई स्थानों पर नवरात्रि महालया के अवसर पर आज भी पुरूषों द्वारा देवी चित्रण की परंपरा है।

पारंपरिक और संस्कारवान शुभोजीत बताते हैं कि उन्हें ‘जात्रा’ करने से आत्मिक संतुष्टि मिलती है अनेक गत्यावरोधों के बीच भी वे येनकेन प्रकारेण आपनी इस कला को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं बल्कि इसे और प्रचारित और प्रसारित भी करना चाहते हैं। बहुव्यापक  शब्द माता के जननी, जनित्री, जनयित्री और प्रसू पर्याय हैं। कुल मिलाकर भवानी जात्रा मातृ देवो भवः का सन्देश देकर हमारे स्मृति पुराण श्रुति और नीति ग्रंथों में निहित माता की महिमा को भली-भांति समझाने में सफल रही।

Comments

  1. डॉ शैल श्रीवास्तव ,गीतांजलि कॉलेज,भोपाल says:

    दिशा जी आपके द्वारा लिखा गया ये ब्लॉग बहुत ही बढ़िया हे एकदम सटीक। आपको धन्यवाद की आपने हम सबको पश्चिम बंगाल के इस लोक नाट्य शैली “भवानी जत्रा” से परिचित कराया।
    वीडियो देखने पर आपकी लेखनी उसके साथ चलती नजर आईं। भाषा में तारतम्य कहीं भी टूटता नहीं हे। मां महिषासुर मर्दिनी के क्रोध का संपूर्ण वर्णन बहुत ही सुंदर किया गया हे। अंत में ,
    एक संदेश भी प्रतीत होता है कि सब रिश्तों में मां का स्थान सबसे ऊंचा हे।

  2. शुभोजीत हलदर says:

    Thank u so much ma’am…
    Bahot accha laga…
    Bahot i accha lika ma’am
    Thank u ma’am thank u so much….?????????

  3. राम जूनागढ़ says:

    Cભવાની જાત્રા કા પરિચય સુંદર તરીકે સે કરવાને કે લિએ ધન્યવાદ. લોકકલાઓકે બારેમે આપને પુખ્તા જાનકારી પ્રાપ્ત કરકે પીરસી હૈ.
    યા શકિત સર્વ ભૂતેષુ માતૃરુપેણ સંસ્થિતા,
    નમ : તસ્યૈ , નમ : તસ્યૈ , નમ : તસ્યૈ.

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