ग्राम विहार : उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य की बहन सुन्दरा का गांव सुन्दरसी परमारकालीन वैभविक प्रमाणों से परिपूर्ण

यात्रा का प्रारम्भ : भोपाल से सुन्दरसी पहुँच मार्ग में अखंड सनातन सत्य सी ग्राम्य संस्कृति

कभी-कभी अनजाने ठिकानों को हेरना (ढूँढना) बहुत भला लगता है,  इसीलिए  मुँह अँधेरे सूरज के जागने से पहले  इस बार हम श्यामपुर, चांदबढ़ ,खजूरिया , चायनी,कालापीपल और जामनेर होते हुए SH 41 मार्ग पर छतनारे बबूल के हट्टे-कट्टे वृक्षों के बीच मालवांचल के गाँवों में अखंड सनातन सत्य सी ग्राम्य संस्कृति और तोतों-मोरों वाले भव्य नैसर्गिक विलास को निहारते हुए आगे बढ़े जा रहे थे। शाजापुर जिले के अंतर्गत आने वाला सुन्दरसी कस्बा हमारी गंतव्य स्थली था। हमने सुन रखा था ईसवी की प्रथम सदी में उज्जैन के प्रजापालक मुकुटमणि वीर विक्रमादित्य की बहिन सुन्दराबाई का विवाह तब के सुंदरगढ़ और आज के सुंदरसी  के राजा भगवत सिंह से हुआ था। भारतीय जनमानस के विश्वास्य लोक सम्राट विक्रमादित्य के बहनापे से सम्बंधित कहे-अनकहे इतिहास को टौरने (पता लगाने) का मन लिये हम घर से निकले थे। मार्ग में पहले अनमनी सी पारवा नदी मिली, विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं से प्रगटी चम्बल में समागमित होने जा रही पार्वती नदी की भव्यता मिली ,मालवा की उर्वर धरा में डग-डग रोटी, पग-पग नीर वाली उक्ति का दिग्दर्शन करते हुए हम  752 सी राष्ट्रीय राजमार्ग पर सुन्दरसी की ओर बढ़ रहे थे।मन मंथन में रत था, लोकधारणा के धारक सम्राट विक्रमादित्य इक्कीस सौ वर्षों पूर्व जिस भूभाग के अधिपति थे हम उसी प्रखंड में विचर रहे थे, जहां कभी पुरातन 16 महाजनपदों में से एक अवन्ति जनपद के महत्तर अंश रहे  मालवा के पश्चिमी मुख्यद्वार कहलाने वाले शाजापुर जिले की अस्ति थी और जिसकी धरा  मौर्य काल, शुंग काल, चष्टन वंशीय शक क्षत्रपों, हूणों, औलिकरों, मौखरियों के अतिरिक्त  गुप्त काल,  हर्ष काल, सातवाहन , प्रतिहार और परमारकाल के वैभविक प्रमाणों से परितोषित क्षेत्र रही थी।दक्षिण से उत्तर का व्यापारिक पथ इसी भू-भाग से होकर गुजरता था। अशोक ने भी उज्जैन से विदिशा के मध्य गमनागमन हेतु इसी भूखंड को उपयुक्त जाना था।

भोपाल से सुन्दरसी के पहुँच मार्ग में पारवा, पार्वती और काली सिंध नदियाँ

बांवरि ब्राह्मण के 16 शिष्य यहीं से पथगामी होकर दक्षिण स्थित प्रतिष्ठान (पैठन) से श्रावस्ती पहुँचे थे। शेरशाह सूरी के शासनकाल में भी जिन चार प्रमुख मार्गों की निर्मिति हुई थी, उनमें से एक मार्ग इसी शाजापुर जिले से होकर गया था। मालवा तो देश का चौराहा रहा, कभी दक्षिण-पश्चिम पर विजय प्राप्त करने का पथ भी यहीं हुआ करता था। विन्ध्यपर्वत शृंखलाओं की तलहटी में डूँगरियों से घिरी उर्वरा भूमि, स्वास्थ्यप्रद जलवायु और नदियों से अभिसिंचित यह धरणी सभी नरेशों को आकर्षित करती रही थी । दूसरी सदी ई. तक अवन्ति के नाम से कीर्तित रहे इसी भू-भाग को सातवीं आठवीं शताब्दी में मालवा के रूप में पहचान मिली थी। मोटर में बैठे बैठे मन किया कि पहले शाजापुर जिले की ऐतिहासिक, भौगोलिकऔर सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को भलीभांति समझ लिया जाए इस हेतु हमने उज्जैन के वरिष्ठ पुराविद डॉ. रमण सोलंकी जी से सम्पर्क साधा।

लाल माटी वाले मार्ग के दोनों ओर का लोक जीवन पल-पल छिन छिन तनावहीन शान्ति का अनुभावक बनाए जा रहा था। शाजापुर जिले की शुजालपुर तहसील के देवगूलर से गुलर, पानखेड़ी से पान, खजुरियाँ से खजूर, मकोड़ी से मकई, निपानिया धाकड़ से नीम और खंखराखेड़ी से खांखरे कब के विलुप्त हो चुके थे। मार्ग में अचानक  पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले से आये आम्रपाली और सुवर्णरेखा के बारामासी पौधे लिए गाँव-गाँव फेरी लगाते विक्रेता दिखाई दे गए। रोककर पड़ताल की तो विदित हुआ कि प्रति वर्ष पश्चिम बंगाल से चालीस सदस्यों का समूह 300 रूपए मूल्य वाले तीन हजार आम्रपाली और सुवर्णरेखा के पौधों को धान के अवशिष्ट या बिचाली खोड़ (बंगाली भाषा) में बाँधकर मध्यप्रदेश के सीहोर और शाजापुर जिलों के गांव खेड़ों  में विक्रय के लिए लता है ये हमारे लिए निजूठी जानकारी थी। भोपाल से 130 किमी दूर  खिलती हुई धूप में गाँव बच्चों की भांति उमगने लगे थे।मन अब भी शंकाओं के आलोड़न – विलोड़न में लगा था लोक सम्राट विक्रमादित्य और उनके परिवार के संबंध में  इतिहास जितना मौन साधे हुए है उतना ही लोकसाहित्य मुखर है ,लोक चेतना के पितृपुरुष विक्रमादित्य भारतीय संस्कृति के दैदीप्यमान नक्षत्र क्यों हैं मन में जिज्ञासा थी ,सुप्रसिध्द लोकविद डॉ पूरन सहगल ने विक्रमादित्य की लोकगाथाओं का संकलन और गहन अन्वीक्षण किया है हम पूर्व में मनासा जाकर उनसे भी लोकपरंपरा के आदर्श और श्लाका पुरुष सम्राट विक्रमादित्य और उनकी बहन सुंदरा बई से संदर्भित शंकाओं के निवारण का निवेदन कर चुके थे ,सुंदरसी गांव की लोक में व्याप्त ऐतिहासिकता के संबंध में उन्होंने बताया कि विक्रमादित्य के अवदान के बारे में मध्यभारत में ही नहीं अपितु सुदूर पंजाब,बंगाल, राजस्थान ,महाराष्ट्र और कर्नाटक प्रांतों की  ग्राम्यगाथाओं  में प्राखर्य के साथ विद्यमानता मिलती है ,लोकानुरंजन हो या लोकव्यवहार  विक्रमादित्य का स्तुतिगान उन्हें लोकमानस में सर्वत्र पैठा  मिला है वे स्पष्ट करते हैं कि विक्रमादित्य जैसे लोकोपकारी,सहृदयी लोकनायक की उपलब्धियां और अतीत को प्रकाश में लाने में  इतिहास जहां रास्ता भटक कर असहाय खड़ा दृष्टिगत होता है वहां लोक उसकी ऊँगली थामें उसका मार्ग प्रशस्त करता दीखता है।सुंदरसी को उन्होंने भी सुंदरा बई से जुड़ा हुआ बताया।

हमने संवत प्रवर्त्तक,न्यायप्रिय अपराजेय चिरप्रेरक राजा विक्रमादित्य सम्बन्धी विस्तृत ऐतिहासिक जानकरी एकत्रित करने के लिए मेधावान इतिहासवेत्ता सुविज्ञ उज्जैन के डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित से भी प्रामाणिक जानकारी चाही ,उन्होंने कलि  सम्वत ३००० (१०१ईंसवी पूर्व) विक्रम के जनमने और कलि संवत ३०२० (८१ इसवीं  पूर्व)उज्जयिनी के प्रजापालक बनने की साक्ष्याधारित जानकारी साझा की। उन्होंने विस्तारपूर्वक बताया कि दिगंतव्यापी विक्रमादित्य के उदात्त चरित्र और दानमहिमा  के संबंध में लोक ने जितने यथार्थपरक गीत गाये हैं ,उतने अन्य किसी प्रजा पालक के नहीं प्राप्त होते हैं ,लोक परम्परा में व्याप्त ऊपर तो सूरज तपे नीचे विकरमजीत/धन धरती धन मालवो धन राजा की जीत पंक्तियों से बंगाल से बल्ख तक कीर्तित विक्रम की यशस्विता स्पष्ट होती है ,डॉ राजपुरोहित के अनुसार लोकमान्यता है  कि काठ की तलवार से विक्रमादित्य ने सागर तक विस्तारित  पृथ्वी को अधीनस्थ कर लिया था अर्थात वे  बिना युद्ध अश्वमेध यज्ञ करके चक्रवर्ती सम्राट के रूप में सर्वमान्य होते गए थे ,उनके संबंध में सर्वाधिक प्राचीन परिचय पहली सदी के गुणाढ्य की रचना वृहतकथा से प्राप्त होता है। इस कृति का मूल ग्रन्थ अप्राप्य है। यद्यपि डेढ़ हजार वर्षों से इसके अनेक संस्कृत रूपांकरण होते रहे हैं  जिनमें से 1000 हजार वर्ष पुराने तीन संस्कृत रूपांतरण उपलब्ध हैं। 1. बुधस्वामी का बृहत्कथाश्लोक संग्रह (नौवीं शती) 4539 श्लोक 2. क्षेमेन्द्र की वृहत्कथामंजरी (1037 ई.) 7500 श्लोक और  3. सोमदेव का कथासरित्सागर (1063-1081 ई.) 22000 श्लोक इन सभी में विक्रम कथा का उल्लेखन मिलता है। इनमें बेताल पंचविशन्ति अर्थात बेताल पच्चीसी भी सम्मिलित है। वृहत्कथा का विक्रमादित्य प्रसंग इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह एक शताब्दी बाद की रचना है जो विक्रमादित्य के युग की परिधि में आती है ,कथासरित्सागर में विक्रम का उल्लेखन मिलता है।

कथासरित्सागर, भविष्यपुराण और बेतालपंचविशन्तिका तीनों विक्रम की कीर्ति का गुणगान करते हैं। राजपुरोहित जी के अनुसार जयपुर के राजा सवाई जयसिंह के निर्देश पर सूरत कवि की हिंदी भाषांतर में पुराण, सिंहासन बत्तीसी और विक्रम सम्बन्धी अन्य प्रचलित कथाएँ मिलती हैं। इन सभी कथाओं में विक्रमादित्य की वीरता और प्रजावत्सल होने का वर्णन मिलता है साथ ही विक्रम के पिता के रूप में धारा नगर के राजा गंधर्वसेन और उनके चार पुत्र होने की भी संपुष्टि होती  है, सुविद डाॅ. भगवतीलाल राजपुरोहित जी की विक्रमादित्य संबंधी पुस्तकें साक्षिणी हैं कि ईसवी की पहली शताब्दी के सातवाहन, आठवी शता. के अभिलेख, दसवीं शती के जैन साहित्य में भी विक्रमादित्य और उनके परिवार की महत्ता को सत्यापित किया गया है। कथा सारित्सागर के अठारहवें लम्बक की पहली तरंग सहित अन्यत्र विक्रमादित्य के  पिता महेन्द्रादित्य/गर्दभिल्ल और माता सौम्यदर्शना/मदनसेना/वीरमती ,पत्नियां मलयवती /कलिंगसेना/चम्पावती/तारावली /गुणवती/सुरूपा/पद्मिनी/चिल्ल महादेवी/मदनसुंदरी ,पुत्री प्रियंगुमंजरी /वसुंधरा ,पुरोहित वसुमित्र/त्रिविक्रम ,भाई भृतहरि /शंख ,प्रतीहार/ भद्रायुध, मंत्री भट्टि ,बहिन सुंदरी /मैनावती आदि का उल्लेखन मिलता है। जैन पट्टावलियां में महावीर निर्वाण के 470 वर्ष होने पर विक्रमादित्य द्वारा अपने पिता के प्रतिशोध स्वरूप शकों पर विजयोपरांत विक्रम संवत प्रारंभ करने का वर्णन मिलता है। सुप्रतिष्ठ इतिहासकार डॉ राजपुरोहित जी ने हमें यह भी बताया कि महेसरा सूरि नामक जैन साधु के अनुसार उज्जैन का राजा विक्रम गर्धभिल्ल का पुत्र था। जैन परंपरा में चौदवीं शताब्दी की मेरुतुंगाचार्य की प्रबंध चिंतामणि, विक्रम चरित्र, विक्रमार्कचरित्र, विक्रमादित्याचरित्र, सिंहासन कथा, सिंहासनद्वांत्रिंत्कथा, सिंहासनद्वांत्रिशिका में विक्रम सम्बन्धी जो जानकारियां प्राप्य हुई हैं उनमें भी  विक्रमादित्य के संबंध में जानकारियां मिलती हैं। डॉ. राजपुरोहित उज्जैन में बेतालों के वर्चस्व होने और उसके विक्रम के समकालीन होने की बात पर भी सहमति जताते हैं और अपने तथ्य की पुष्टि के लिए जोड़ते हैं कि विक्रमादित्य के नौ रत्नों में जिस बेताल का उल्लेखन होता है वह अग्नि नामक बेताल था जो राजा के साथ महल की ड्योढ़ी में हाजिरी पर तैनात हुआ करते थे। श्री विशाला उज्जयिनी और आदि विक्रमादित्य नामक उत्कृष्ट पुस्तकों में  विक्रम की गुत्थियों को सुलझाने वाले डॉ राजपुरोहित भविष्य महापुराण के प्रतिसर्ग नामक चतुर्थखण्ड में कलयुगराजवर्णन नामक उपाख्यान के माध्यम से स्पष्ट करते हैं  कि 3710 कलि में प्रमर नामक राजा ने छः वर्ष राज्य किया। पिता के समान पद वाला उसका पुत्र देवापि उसके बाद देवदूत और फिर गंधर्व सेन 50 वर्ष  तक राजा के पद पर आसीन रहे। उसके पुत्र शंख ने तीस वर्ष राज किया विक्रम के राज्याभिषेक के बाद वे वनगमन पर गए। इन्द्र द्वारा भेजी गयी वीरमती नामक देवनारी से गन्धर्व सेन को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी । उस समय आकाश से पुष्प वर्षा हुई 12 दुन्दुभियां बजीं, सुखद वायु प्रवाहित हुई। कलियुग आने पर, तीन हजार वर्ष पूर्व  शकों के विनाश के निवाराणार्थ शिव जी की आज्ञा से उत्पन्न बालक विक्रमादित्य ने पांच वर्ष की अल्पायु में ही तपस्या प्रारम्भ कर दी थी फ़लस्वरुप  सदाशिव के शिवदृष्टि नामक गण ने ही विक्रमादित्य के रूप में अवतार लिया था। स्वयं पार्वती जी ने विक्रम के रक्षणार्थ बेताल को भेजा था। विक्रम संवत 2069 वर्ष पहले विदेशी शकों (मलेच्छों) पर विजय के उपलक्ष्य में विक्रमादित्य द्वारा प्रारंभ किया गया था। इसी तारतम्य में  उज्जैन के ही वरिष्ठ इतिहासकार स्वर्गीय डाॅ. जे एन दुबे जी ने  एक साक्षात्कार के दौरान हमें यह बताया था क़ि मालवा से प्राप्त सिक्कों व  सीलों की मीमांसा के उपरांत प्रामाणिक रूप से वे यह कह सकते हैं कि महेन्द्रादित्य / गंधर्वसेन / गर्दभिल्ल का पुत्र विक्रमादित्य दीर्धायु था। उनकी 135 वर्ष 7 मास 10 दिन 15 घण्टी 6 घंटे आयु थी। काल गणना में उनके शासन काल की अवधि 60 या 86 या 97 से 100 वर्षों तक भिन्न-भिन्न आंकी गयी है। डॉ दुबे के अनुसार उनके सिक्के पर सूर्यध्वजधर शिव के अंकन की प्राप्ति विक्रमादित्य को परम् शैवोपासक सिद्ध करती है,दण्डकमण्डलधारी शिवप्रकार के सिक्के विक्रम नामांकित ताम्र मुद्रायें ,उजनियि विकमस द्विवृत्त उज्जयिनी चिन्ह,शासक की आवक्ष प्रतिमा और वेदिका वृक्ष वाली स्वर्ण मुद्रा ,ठप्पा ,अभिलेखों की मालवा से प्राप्ति विक्रमादित्य की यशस्विता को साक्ष्याकिंत करती है।

हमने विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में पदस्थ इतिहासविद  डॉ. प्रशांत पौराणिक से भी संपर्क साध कर सुंदरसी के इतिहास प्रकाश डालने का आग्रह किया उन्होंने हमें अपने शोधानुलेखों को आधार बनाकर सुंदरसी में सन 1032 के  राजा सुदर्शन के आधिपत्य की जानकारी दी। इस राजपरिवार का संबंध राणा उदयपुर से था,पर वे भी इस तथ्य को स्वीकारते रहे कि सुंदरसी वाचिक साहित्य के अनुसार विक्रमादित्य की बहन की ससुराल ही रहा। वे मानते हैं कि भगवान महाकाल के आशीर्वाद से अभिषिक्त सुंदरसी में समस्त अनुष्ठान उज्जैन के महाकाल मंदिर की भांति होना ,ब्रह्ममुहूर्त में भस्म आरती का निर्वहन होना और महाकाल की सवारी निकाली जाना इत्यादि धार्मिक गतिविधियां सुन्दरसी को उज्जैन की विलक्षण धार्मिक संस्कृति के समकक्ष लाती है।हम अब आश्वस्त थे कि सुंदरसी गांव में प्रचलित लोकमान्यताओं के अभिकेंद्र में रानी सुंदरा हैं इतिहास और लोक के संबंध सदा सर्वदा से अन्योन्याश्रित रहे हैं इससे हम भलीभांति  परिचित थेऔर यह भी कि इक्कीस सौ साल बाद राजा विक्रमादित्य से जुड़ी किवदंतियों को इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखना रेत में छिपे तिल निकालने जैसा होता है ,पर मन कहाँ मानने वाला था। मोटर की खिड़की से खजूर और खाखरा के वृक्षों वाले क्षेत्र में छोटी बुआ खेड़ी, भतीजी खेड़ी, चाचा खेड़ी, मकोड़ी, सखेड़ी में हेल-मेल भरे लोक भावों को समझते हुए हम मातृवत्सला के अखंड प्रवाह सी काली सिंध नदी के मुहाने पर आ खड़े हुए थे, जिस पर अधूरा बना एक पुल विकास की बाट जोहे खड़ा था। कालिदास के मेघदूत में दशार्ण और अवन्ती जनपद की सीमाओं का निर्धारण करने वाली ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर द्वारा स्मृत कृष्णासिंधु अर्थात काली सिंध नदी शनैः शनैः चम्बल नदी में मिलने की अकुलाहट लिए सरक रही थी।

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Comments

  1. बंशीधर बन्धु, ज़ेठरा जोड़ says:

    बहुत ही रोचक, तथ्य परख और महत्वपूर्ण। बधाई!

  2. Varsha Nalme, Ajmer says:

    Thanks maam…aadha pd liya ..bahut sunder matter n pics ?????

  3. ललित शर्मा, झालावाड़, राज. ('महाराणा कुम्भा इतिहास' अलंकरण) says:

    -पुरोवाक-

    भोपाल की सांस्कृतिक अस्मिता और लोक संस्कृति से अभिप्रेरित पत्रकार दिशा अविनाश शर्मा द्वारा एक लम्बे अरसे से मध्य प्रदेश की कई ऐसी लोकसंस्कृति धारोहरों पर ऐसा अनछुआ कार्य किया जा रहा है जिसके माध्यम से अनेक तथ्य व सांस्कृतिक पक्ष प्रकाश में आ रहे हैं।

    हाल ही में उन्होनें शाजापुर जिले के परमारकालीन सुन्दरसी ग्राम में स्थित महाकाल मंदिर तथा अन्य मंदिरों की लोक संस्कृति का चित्रण जिस प्रकार अपने परिश्रम से खींचा वह आश्चर्यचकित कर देने वाला है। उन्होंने सुन्दरसी की कथा, इतिहास के साथ विक्रमादित्य की अनुजा सुन्दरबाई के वृतान्त के साथ उस क्षेत्र के ग्रामीणों, बुद्धिजीवियों, कवियों के साक्षात्कार लेकर इस महत्ता को प्रमाणित किया है। दिशा शर्मा ने इसी के साथ चित्रों के माध्यम से पुरातत्व की दुर्लभ मूर्तियों, मंदिर, स्थापत्य के साथ स्थानीय ग्रामीण, पथ, सघन वन तथा ग्रामीण आवास का ऐसा जीवन्त चित्रण किया है मानो यहाँ की संस्कृति हमसे संवाद करने को तत्पर हो। उनके इस कार्य को महसूस कर यहाँ कहा जाना सटीक होगा कि- भारत की सच्ची लोक संस्कृति के दर्शन हमें सुन्दरसी जैसे ग्रामों में ही दिखायी देते हैं। सद् प्रयास हेतु हृदय से अभिवादन।

  4. Rajendra Kumar Malviya says:

    दीदी बहुत ही सुंदर औ मनोहरी वर्णन है, आपकी लेखनी का जवाब नही है, सीधे मन मस्तिष्क पर प्रभाव डालती है।। इतिहास के गर्व से निकाल कर फिर एक बार एक ऐतिहासिक सत्य से सभी अनभिज्ञ लोगो को अवगत कराने के लिए धन्यवाद।।

  5. रामाराव जाधव सुन्दरसी says:

    धन्यवाद मैडम जी हम सभी गाँव वाले आभारी हैं आप के।

  6. Indra Dikshit, Pune says:

    To much scope in Archaeology. Best wishes to U. Nice research papers.

  7. O P Mishra, Bhopal says:

    I have read the complete text and videos ,photographs related to sundarsi ancient site in Malwa region.raman Solanki and Prashant Puranikji are the scholar’s in that region.puranshahgal also give informative.your report on this topic needs no comment.excellent matter .regarding this arealocal folk songs are also be quite impressive.photographs are to be in the photo archives.now no serious scholars moving for such academic researches.thank you very much for your field work and taking interviews of the very senior citizens.you are adding new chapters in archaeology, social areas,art,architectures and religious fields.once again thank you very much for taking interest.

  8. देवेंद्र प्रजापति, सुन्दरसी says:

    जय श्री महाकाल

    आपके द्वारा भूत भावन महाकाल की नगरी सुन्दरसी (सुंदरगढ़) के अवन्ति के राजा विक्रमादित्य की बहन सुंदराबाई जिनका विवाह सुंदरगढ़ के राजा भगवत सिंह से हुआ था एवं उज्जैन में जितने भी मंदिर थे उतने मंदिर ग्राम सुन्दरसी (सुंदरगढ़) में बनाए गए, विक्रमादित्य की बहन सुंदराबाई रोज सुबह महाकाल मंदिर एवं अन्य मंदिरों में दर्शन करने जाती थीं, यह सभी जानकारी आपके द्वारा बड़ी ही सुन्दर सटीक सरल भाषा के प्रयोग के साथ वर्णित की गई है। इससे हमारी नई पीढ़ी को ज्ञान प्राप्त होगा एवं इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त होगी।

    इससे मैं आपको सहृदय प्रणाम करता हूँ।

    “जय श्री महाकाल”

  9. राम प्रसाद ' सहज ' शुजालपुर says:

    रोचक, श्रेष्ठ व संग्रहणीय ।
    ‘साहसिक कदम ‘
    ‘हार्दिक बधाई’
    ?✍️?

  10. Umesh Pathak says:

    ब्रह्माण्डीय यात्रा में हमें कब कहाँ जाना होगा यह निर्णय तो उसके निर्माता और नियन्ता के हाथ में ही होता है। पर यात्रा के अनुभव को उस मार्ग के विश्राम स्थलों के सहयात्रियों के साथ साझा किया जाता है। ज्ञानवृद्ध सहयात्री अपने अनुभवों से अग्र गमक जनों के लिए पथ प्रदर्शक होते हैं। आदरणीय बहन श्रीमती दिशा अविनाश शर्मा भोपाल भी एक ऐसी सहयात्री हैं जो अपनी मार्ग दैन्दिनी (रोड डायरी) सृज कर वर्ण, ध्वनि, व चित्र पिपासुओं को सुरम्य सुखद उद्यान उपलब्ध करती हैं। उनका सुन्दरसा (सुन्दरसी) यान्त्रिक ग्रन्थ (ब्लाग) वन्दनीय व नमनीय है। विक्रमादित्य के काल से अब तक के अनगिनत सृजनधर्माओं के कर-चिन्हों व ध्वनियों के संग्रहीत और संयोजित कर रामायण रघुवंश, रामचरितमानस या कामायनी जैसा सृजन दिशा बहन आपने दिया है। इसमें इतिहास, साहित्य, संगीत और कला (नैसर्गिक दृश्य) सब कुछ समाहित हैं, इसलिए यह एक महाकाव्य है। तथा भारत भूमि के महाप्रतापी नृप विक्रमादित्य को श्रद्धावनत पुष्प गुच्छ हैं। मेरे जैसे अनुजों औद इतिहास, साहित्य, संगीत व कला अनुशीलकों को आपका लेखनीय वरद हस्त सदैव शारदीय व वासन्तिक रहे इन्हीं कामना व भगवान धरणीधर व माता गंगाजी से प्रार्थना के साथ।

    आपका अनुज,
    उमेश पाठक
    वासन्तीय नवरात्रि प्रतिपदा, वि0सं0 2077
    मौ0 चैदहपौर महीधर्राचन खडगगिरिमठ
    पो0 सोरों सूकरक्षेत्र
    जनपद- कासगंज उ0प्र0

  11. बालकृष्ण लोखण्डे, भोपाल says:

    रचियेता द्वारा तथ्यों परक अनुशोधों की तह परत दर परत स्थलों की अनुश्रुतियों/किंवदंतियों पर ही नहीं प्रमाणों को अपनी श्रृशुधा शांत करने के संकल्प में यथासंभव भ्रमणशील को नमन्ति स्वीकार हो।

  12. दिनेश झाला, शाजापुर says:

    ???? आपके द्वारा सम्पादित कार्य अत्यंत सराहनीय हैं। साधुवाद ।

  13. नारायण व्यास says:

    देखा और सुना। बहुत अच्छा शोध हैं एक सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता है। सौलंकी जी ने जिस स्तूप के विषय मे उल्लेख किया है, कभी भविष्य मे मैं कभी देखने जाऊँगा। धन्यवाद

  14. Pirtam Singh Rathod says:

    बहुत-बहुत धन्यवाद एवं आभार

  15. Vinayak Sakalley says:

    Mam , your travel blog is amazing , it motivates the historians and travel bloggers literally influenced to visit such historical landmarks. It is the privilege of late King Vikramaditya who got a laureate author like you. After reading your blog the readers have a great eye for your alluring travel destinations photography. The video content of the historians like Rajpurohit sir of Ujjain is amazing amid your blog, You are a talanted writer who creates a great content. Very inspiring blog mam??

  16. विशाल, मनावर says:

    चित्रात्मक और सरल??

  17. विशाल वर्मा says:

    अपने गौरवपूर्ण इतिहास के सत्य परिचित कराता आपका लेख। धन्यवाद

  18. रूपेश विश्वकर्मा, अमलार says:

    दीदी प्रणाम,
    सुन्दरसी के बारे में 7 भाग पढ़कर मन प्रसन्न हो गया।
    पुनः हार्दिक साधुवाद।

  19. अशोक पाण्डे, सिंगरोली says:

    Bahut achha rachnatmak Kary hai. Aap ki kalpna shakti anupam hai.

  20. बंशीधर ' बंधु ' शुजालपुर says:

    आदरणीय दीदी
    आपके इस मनोरम यात्रा वृत्तांत को दोबारा पढ़ने का अवसर मिला। इस बार भी एक नई दृष्टि और नए चिंतन का सूत्रपात हुआ। बार – बार जिज्ञासा होती है। बहुत कुछ अनजाना,अनछुई पुरातत्विक,ऐतिहासिक,सांस्कृतिक,धार्मिक और प्राकृतिक संपदा का रहस्य छुपा है इसमें।
    पुन:बधाई एवं शुभकामनाएं।

  21. डॉ एम सी शांडिल्य says:

    सम्मानीय प्रणाम
    अति सुन्दर पर्यटन, लेखन और सृजन

    आत्मीय शुभकामनाएँ!

  22. डॉ डमरूधरपति says:

    संस्कृति रक्षा , देश सुरक्षा

  23. डॉ डमरूधरपति says:

    श्रेष्ठ कार्य ???

  24. Ajay Khare says:

    Congratulations madam ! Beautifully written .
    the article makes it very clear that history and mythology are so intricately interwoven in India that it is difficult to sift history from mythology. It is interesting to know that people still cherish their traditions.

  25. डॉ के के त्रिवेदी, झाबुआ says:

    सुन्दरसी का नैसर्गिक सौंदर्य..प्राप्त पुरातात्विक मूर्ति-शिल्प.. और उसका गौरवमय इतिहास आपकी लेखनी से जीवंत हो उठा है।..यह अविस्मरणीय आलेख न केवल उस क्षेत्र के बाशिंदों को उपहार है,यह वर्तमान पीढ़ी को शोध के लिए प्रेरित करता रहेगा।..भूले-बिसरे ऐतिहासिक गौरव को आपने बड़ी ही सूक्ष्मता से अवलोकन-अध्ययन कर अहर्निश कठोर परिश्रम और अनुभव के साथ लिपिबद्ध किया है ।आप ऐसे ही अतीत की धरोहरों को उजागर कर लोक संस्कृति से आम आदमी को भारतीय अस्मिता से परिचित कराती रहे.. बधाई !

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