बाल्यकाल से ही राजा हरिश्चन्द्र में रोहिताश्व की भूमिका निभाने वाले दयाराम भाण्ड लंदन सहित 16 अन्य देशों में अपनी प्रस्तुति से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर चुके हैं। केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी और मारवाड़ रत्न जैसे पुरस्कारों से पुरूस्कृत दयाराम मायानगरी मुंबई स्थित पृथ्वी थियेटर में शशि कपूर की पुत्री संजना कपूर के साथ भी मंच साझा कर चुके हैं। वैसे तो दयाराम की जीविकोपार्जन का साध्य रतजगों में गायी जाने वाली कुचामणि ख्यालगायकी ही है पर आजकल टीवी और मोबाइल की व्यापकता के कारण दर्शकों की संख्या में हो रही कटौती के चलते बाजरी की छोटी मोटी खेती से भी घर गृहस्थी चलानी पड़ रही है। मोबाइल संस्कृति ने युवा दर्शकों को भले ही दिग्भ्रमित किया हो पर दयाराम ने अपनी अगली पीढ़ी में पुत्र सुमित और रौनक को भी लोक गायकी के तौर-तरीकों में पारंगत कर दिया है। पुरुषों द्वारा अभिनीत महिला पात्रों की वाक्पटुता और लयकारी वाली कूचामणि ख़याल गायकी के बीकानेरी, शेखावाटी, हाथरसी ख्यालों से अधिक लोक प्रिय होने के संदर्भ में पूछने पर दयाराम ने बाताया कि शैलीगत भिन्नता वाली छोटी-छोटी दंतकथाए लिए लोक शैलियां परवर्ती काल में जन्मीं पर लोक लुभावन नहीं होने के कारण वे कूचामणि ख्याल गायकी की भांति प्रभावकारी नहीं सिद्ध हो पाईं। भृतहरि गोरखनाथ, राजा मोरध्वज, अमर सिंह राठौर, भक्त प्रहलाद, वीर महाराणा प्रताप, वीर पृथ्वीराज और मीरा मंगल श्री दयाराम भाण्ड की अन्य रसमयी आख्यायें है जिन्हें दर्शकों की भूरि-भूरि प्रशंसा मिलती रही है। इन दिनों दयाराम भाण्ड की सफलता से प्रभावित होकर मेड़ता ग्राम में 150 ऐसी मण्डलियां सक्रिय हुई हैं जिन्होंने कुचामणी ख्याल में लोकाभिनय को प्रसिद्धि दिलाने में महती भूमिका निभाई है पर दयाराम की बात ही निराली है वे अपने पूर्वजों के स्थापित प्रतिमानों के अनुगामी बने लोक कला की वाचिक परंपरा की अमूल्य धरोहर को अक्षुण्ण रखने में जी जान से लगे हुए हैं।
मरूभूमि ही नहीं मध्यप्रदेश में भी आध्यात्म से ओत प्रोत लोकगीतों की अविछिन्न धारा प्रवाहमान रहीं है जिन्होंने क्षेत्र विशेष के जन जीवन से संबद्ध विविध पक्षों का आत्मीयता और तन्यमता से संस्पर्श किया है।भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय में बघेली गीतों की प्रस्तुति में बधेलखण्ड की अंचलिक संस्कृति से साक्षात्कार हुआ। सीधी से पधारे श्री रोशनी प्रसाद मिश्रा और श्री नरेन्द्र बहादुर सिंह की अगुआई वाले दल ने लोकगायन का प्रारंभ मैहर की शारदा भवानी और शंभु के जयकारों के साथ किया। अपनी पहली प्रस्तुति में उन्होंने मंजीरा, करताल की संगत के साथ कुम्हारों द्वारा गाये जाने वाले कोहरही गीत में भगवान शंकर का स्मरण किया। वस्तुतः बघेल खण्ड का कोई गांव ऐसा नहीं है जहां शिव की मिढुलिया न हो और न ही कोई आंगन ऐसा है जहां तुलसी के बिरवा तले शिव की बटैया न हों इसीलिए बघेल खण्ड अंचल का लोकगान शिव के प्रति का भक्त की अटूट आस्था का प्रकटीकरण करता चलता है।
शिवपूजन केरी गलिया बताए चला
अम्छत नरियर उन्हीं न भावै
भांग धतूर कै बिरवा बताए चला
रेसम पटना उनहीं न भावै
बाधम्बर पहिरैया सुनाए चला
प्रायः बघेली स्त्रियां शिवपूजन के समय यहीं गीत गाती हैं। प्रस्तुत गीत भी बघेली भाषा में शिव का स्तुति गान है। बघेलखण्ड में सुमिरनी गाए जाने की प्रथा है प्रायः मैहर की शारदा माता, भगवती और बड़ा देव आदि के सुमिरन के साथ ही गृहस्थी के मंगल कार्य प्रारम्भ होते हैं। खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय से लोक संगीत में स्नातकोत्तर प्रवीण कर चुके रोशनी और नरेंद्र बघेलखंड की उदीयमान प्रतिभाओं को लोक शैली से जोड़ने के लिए पूर्णत: प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं। हमने उनसे बात की तो पता चला कि इंद्रवती नाट्य समिति के बैनर तले उनका दल रीवा, सीधी और सिंगरोली के युवाओं को लोक गायकी के प्रति आकर्षित करने के लिए लोकोत्सव का आयोजन करता है, लोकविधाओं के संरक्षार्थ उनकी अभिनव पहल प्रशंसनीय है।। अपने जीवन यापन के लिए लोकगायकी पर निर्भर ये लोग मानते हैं कि जब तक लोक है तब तक ही उनका भविष्य सुरक्षित है। कार्यक्रम की समाप्ति पर निमाड़ अंचल की पीढ़ियों के संज्ञान का सार समाये लोकजीवन के त्रिविध रसों की त्रिवेणी प्रवाहित हुई। खरगोन के श्री संजय महाजन के नृत्यदल ने चैत्र और बैसाख में नौ दिनों तक अनवरत चलने वाले शिव पार्वती की पूजा के अनुष्ठानिक पर्व गणगौर की लोक परंपरा को जीवंत कर दिया।
भक्त के पावन प्रेम से पूरित भाव का रसास्वादन कराती गणगौर पार्वती की प्रतीकात्मकता लिए ममतामयी मातृदेवी हैं। इसीलिए निमाड़ की रसवन्ती धरा को आध्यात्मिकता से सींचते गणगौर पर्व के आगमन के साथ ही समूचा निमाड़ थिरकने लगता है। गणगौर के पति धणियर राजा और रेणु बाई की पृथक प्रतिष्ठा होती है। रंगबिरंगे छींटदार घाघरे, कांचली चोली पहने स्त्रियां और सूती धोती कुर्ता पचरंगी पगड़ी बांधें पुरुष चक्राकार तालियां बजा कर झलारिया नृत्य करते हैं। झेला नृत्य में धणियर राजा और रेणु बाई के रथ को सर पर रख कर नाचने की परिपाटी है। सत्यतः लोकगीति काव्य के सशक्त उदाहरण रहे गणगौर के झलारिया और झेला नृत्यगीत पीढ़ीयों से लोक कंठों की धरोहर बनकर लोक जीवन को अनुप्राणित करते रहे हैं।
काफी शोध और गहन अध्ययन के बाद लिखा गया है यह आलेख। लोककाव्य और लोकनाट्य का अद्भुत सम्मिश्रण दिखा नाट्य प्रस्तुतियों में।
उत्तम ब्लॉग
साधुवाद।
अद्भुत! भारत को जानने के लिये एक जीवन कम है ।
बहुत ही सुंदर है।
संजय महाजन
???सुन्दर आलेख
रोशनी प्रसाद मिश्रा
बहुत ही सुंदर और विशेष पूर्ण लेखन
Excellent article on shiva as depicted through cultural performances.shiva history starts from pre history to the modern times.you have explain in detail through religional languages.you must continue with other gods and goddesses.badhai jaldi road dairy ke liye..thanks.
O P Mishra, Bhopal
लोक रन्जन में भगवान शिव के ऊपर आपका लेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा ,मंचन में राजस्थानी-भाषा में भगवान शिव और पार्वती जी से दर्शक को जोडने का सात्विक प्रयास बहुत ही सराहनीय है आज के इस व्यस्त और कलयुगी जीवन में आपका एक प्रयास प्रशंसनीय है ।