किसी ने ठीक ही लिखा है कि लोक गीतों में ताजे पानी जैसा स्वाद होता है जबकि साहित्यिक गीतों में उबले पानी सा भान होता है सही भी है लोकविद्याएं लोक की वाणी से अद्भूत होती हैं और लोक द्वारा ही सहेजी जाती हैं। लोक शैलियों की इसी विलक्षणता को हमने हाल ही में भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय के सभागृह में साक्षात् देखा व निरखा। कार्यक्रम में हरियाणा की अनुकृतिपरक लोकनाट्य स्वांग परंपरा में ‘शकुंतला दुष्यंत’ के मिलाप और भरत के जन्म के कथानक को कृष्णलाल सांगी और उनके दल ने दक्षता के साथ प्रस्तुत कर दर्शकों को रसविभोर कर दिया। संगीत प्राधान्य स्वांग गायकी में विश्वामित्र, मेनका, शकुन्तला-दुष्यन्त और भरत दुष्यन्त के प्रसंगों को कृष्णलाल ने इतनी निपुणता के साथ मंचित किया कि दर्शक डेढ़ घण्टे तक आंचलिक रंग में रंगे रहे। राग-रागिनियों और काफिया पर आधारित उनकी स्वांग गायकी में डोली गेरने के कौशल को दर्शकों की विशेष सराहना मिली। शकुंतला दुष्यंत विषयक नाट्य का प्रारम्भ तपस्यारत विश्वामित्र और इंद्र द्वारा भेजी गई मेनका के संवाद के साथ हुआ। मेनका की पुत्री शकुंतला और दुष्यंत का गन्धर्व विवाह, परित्याग और भरत – दुष्यंत मेल मिलाप को कृष्णलाल और उनके साथियों ने रोचक शैली में प्रस्तुत किया। शकुंतला के वियोग में राजा दुष्यन्त द्वारा विलाप करते हुए यह रागिनी गाता है तो सामने बैठा ग्रामीण दर्शक दहाड़े मार-मार कर रोता है।
हस्तिनापुर ते चाल्या दुष्यंत, सबकें नक्शे झाड़के।
खूब मचया रोला के दुष्यंत होया बोला।।
कर्म ने बट्टे झाड़ दिये ताज तोड़ दिया लते पाड़ दिये।।।
मेरा काचा घा सीं सकता ना, ईब बे मतलब जी सकता ना।
मेरा यु छूट गा चोला के दुष्यंत होया बोला।।
मेरी शकुंतला रानी थी अकलमंद घणी स्याणंणी थी।
आज कोड कहानी कर दि, ईब किस्सा बन गा म।।
बेदर्दी मेरे पे पड़ता ना गोला दुष्यंत होया बोला।।।
बिया बान में जाऊंगा उस गौरी न टो क लायूगा।
मनाऊंगा हाँथ जोड़ क थारे त चाल्या सिर मोड क।।
मने टी छोड़ दिया टोला के दुष्यंत होया बोला।।।
रहया ना राज पाठ का ख्याल, मूह पड़े राल।
ईसा हो गया हाल करे कृष्ण लाल खुबात लिऐ।।
तू आपणा डाट यो गात लिऐ यो स सांग का न्यौला।।।
के दुष्यंत होया बोला।।।।
उनकी अर र र र और मैं तो दीवाना-दीवाना दिवाना की रागिनी पर तो दर्शक थिरकने लगते हैं।
हमने हरियाणवी स्वांग परंपरा के संबंध में श्री कृष्णलाल जी से चर्चा की। उन्होंने हमें बताया कि स्वांग के प्रदर्शन में आठ तख्तों को जोड़कर बनाये गये मंच पर संगतकार वृत्ताकार व्यवस्था में बैठते हैं। आमने-सामने दो हारमोनियम बजाने वाले, कुशल ढोलकवाला पूर्वंकी ओर, नक्कारा वाला पश्चिम की ओर और क्लेरनेट वादक दक्षिण की ओर मुंह करके बैठाये जाते हैं। जिनके चारों और घूम-घूम कर कलाकार स्वांग डालते हैं। भैरव, स्वररंजिनी, सोनी, और तोड़ी की मध्य व तार सप्तक में गायी जाने वाली स्वरलहरियाॅं गीतिनाट्य प्रधान हरियाणवी स्वांग की विशेषता हैं जिनमें डोली गेरने की कला काव्यमयी भाषा को मधुर तथा सरस बना देती है। कृष्णलाल जी बताते हैं कि डोली गेरने के क्रम में मियां मदद कह कर सीटी बजाने के साथ ही सम पर लाकर गेयरचना को विराम दे दिया जाता है। सहज स्वाभाविक मंचसंयोजन, पर्याप्त प्रकाश व्यवस्था सीमित प्रसाधनों वाली सीधी-सादी रूप सज्जा चुटीले-सरल संवाद स्वांग को जन-जन के अन्तःकरण में गहरे उतारते हैं। गौशालाओं, मेलों शादी ब्याह के अवसर पर और सार्वजनिक स्थलों पर आयोजित होने वाली स्वांग का आरंभ बहुधा भवानी के भजन भगवान शंकर तथा गऊमाता के जयकारों के साथ ही होता है। कृषि प्रधान हरियाणा की माटी की सौंधी गंध से सुवासित स्वांग के मंचन में मुख्यतः आठ कलाकार प्रतिभागी बनते हैं। इनमें से नायक-नायिका के अतिरिक्त तीसरा कलाकार विदूषक अथवा नकलिये की भूमिका निभाता है जो अपने हास्यपरक संवादों से देखने वालों को हंसाता रहता है।
आपकी बहुत मेहरबानी आपने हम कलाकारों को इतना मान दिया
कृष्णलाल
आपने बहुत सुन्दर लिखा है लोककलाओं को आपके जैसे समीक्षक की ज़रूरत है कला क्षेत्र में अच्छे समीक्षक सीमित रह गये हैं आपके लेखन से हम कलाकारों को स्वयं को माँजने के लिए मार्गदर्शन मिलता है बहुत धन्यवाद
प्रतिभा
लोकविधाओं के लिए आपका यह प्रयास बहुत अच्छा है
ज्ञानसिंह शाक्य