हरियाणा का लोकनाट्य स्वांग, चम्बल का लांगुरिया गान, मालवा का मटकी और आड़ा नृत्य

भिंड से पधारे लोक गायक श्री ज्ञानसिंह शाक्य के लांगुरिया गायन

जनजातीय संग्रहालय के दर्शकों से खचाखच भरे सभागार में भिंड से पधारे लोक गायक श्री ज्ञानसिंह शाक्य के लांगुरिया गायन की संगीतमयी प्रस्तुति ने दर्शकों को भाव विव्हल कर दिया। उनके गाये तोहे शुमिरों शारदा माय लांगुरिया, मठ पे बदरा भवन पे बदरा हे रहे हो माय, दरवाजे पर खड़ी लहराए लांगुरिया और हे पंचास कोटि योजन में अंडा को परमान इत्यादि सुमधुर गीतों से सभागार का वातावरण भक्ति मय हो गया। ग्वालियर चंबल जनपदों का महत्वपूर्ण लोकगान लांगुरिया चैत्र तथा क्वांर के महीनों में नवरात्र पर्व पर देवी गीत गाने वालों में विशेष रूप से लोकप्रिय है।

लागुरियां के पूजन स्वरूप गाये जाने वाले लांगुरियां गीतों के संबंध में प्रचलित मान्यता है कि चिरकुंआरी देवी ने पुत्र की अभिलाषा में अपनी जटाओं से दो भैरवों की उत्पत्ति की। बाईं जटा से काले, दांई जटा से लाल भैरव उत्पन्न हुए। लाल भैरव को ही लागुंरिया की संज्ञा दी गयी। लोक में ऐसी धारणा प्रबल है कि देवी दर्शन से पूर्व लांगुरियों को प्रसन्न करना आवश्यक है। एक अन्य कथा में त्रेतायुग में राम लक्ष्मण की रक्षा करने के कारण देवी ने हनुमान की पुत्रवत् कामना की। हनुमान जी ने सर्वस्व समर्पण कर देवी अराधना की। यही हनुमान जी लांगूल पूंछ वाले लांगुरिया कहलाए। देवी भक्ति से परिपूर्ण इन गीतों में चंबल की लोक संस्कृति की निरन्तरता झलकती है। लोकमनीषा द्वारा सिरजे गये लांगुरिया गीतों में भिण्ड के भदावर अंचल की भदावरी तथा ब्रजभाषा मिश्रित बोली के सारे रंग घुले मिले दिखाई देते हैं। हमने मूल रूप से से शिक्षक ज्ञानसिंह साक्य से उनकी लोकगीतों के प्रति आसक्ति का कारण जानना चाहा तो पता चला कि उनके पिता रामनाथ साक्य मीरा और कबीर के निरगुनी भजन गाया करते थे। निरगुनी भजनों ने उनके बालसुबोध मन को भी संस्पर्श किया लेकिन बाद में लोक गीतों की जीवंतता, सारल्य प्रवृति और गहनतम सम्वेंदनाओं वाले लोकगीतों ने उन्हें आकर्षिक किया। उनके अनुसार लोकगीत जातीय परंपरा संस्कृति के अनुभवों का निचोड़ होता है, लोक गीतों में निहित आस्था और निष्ठा से प्रभावित ज्ञानसिंह जी ने इसलिए प्रारंभ में पारंपरिक मेलों और मंदिरों में भजन गाये। यधपि लोकलुभावन बनाने के लिए वर्तमान में लांगुरिया गीतों में लगाये जा रहे अभद्र शब्दों के प्रयोगों को वे निंदनीय बताते हुए इसके परिमार्जन की वकालत भी करते चलते हैं।

शास्त्रीय संगीत में पारंगत ज्ञानसिंह जी को लोक तत्वों की उजास लिए लोकगीतों ने इतना अधिक प्रभावित किया कि उन्होंने अपनी शाला के बच्चों को भी लोकगीतों का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। यही कारण रहा कि सन् 90 में उनके निर्देशन में तैयार गीत हम हैं भैया बरवर गैया (खेत जोतने वाले को)राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत किया गया और उन्हें लोकगायक के रूप में प्रतिष्ठिा मिली। ग्वालियर की ग्वालेरी खड़ी बोड़ी और भिण्ड की भदावरी में सुनाये उनके गीतों को दर्शकों ने बहुत सराहा। किसान के हल चलाने, बीज बोने, फसल लहलहाने, काटने जैसे कृषि आधारित और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते श्री ज्ञानसिंह के लोकगीत निःसन्देह सुनने योग्य हैं।

Comments

  1. कृष्णलाल says:

    आपकी बहुत मेहरबानी आपने हम कलाकारों को इतना मान दिया
    कृष्णलाल

  2. प्रतिभा says:

    आपने बहुत सुन्दर लिखा है लोककलाओं को आपके जैसे समीक्षक की ज़रूरत है कला क्षेत्र में अच्छे समीक्षक सीमित रह गये हैं आपके लेखन से हम कलाकारों को स्वयं को माँजने के लिए मार्गदर्शन मिलता है बहुत धन्यवाद
    प्रतिभा

  3. ज्ञानसिंह शाक्य says:

    लोकविधाओं के लिए आपका यह प्रयास बहुत अच्छा है
    ज्ञानसिंह शाक्य

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