मालवा की लोक नाट्य शैली माच, जबलपुर का देवीजस गान, जूनागढ़ का गरबा

मालवा जबलपुर जूनागढ़

सिद्धेश्वर सेन जी की इसतरह की 85 रंगतों की संपदा मिलती है जो अन्यत्र नहीं मिलती। उनकी लिखी एक रंगत है –

बासक पूरो करो थाँको कोल।
अब मुख से बोल्यो नी जावे दुख पावे जिवड़ो घबरावे।
बेग डसो हो बासक राजा केवाँ बचन मुख खोल।।

सत्यनारायण जी बताते हैं कि माचकला कार उनके पिता भगवान लाल बारोड़ जी से प्रभावित होकर वे इस लोकनाट्य विद्या से जुड़े थे। प्रायः माच के लिए मोहल्लों में आयोजित होने वाली गम्मते निपुण युवा प्रतिभाओं के चयन का माध्यम होती हैं। ऐसी ही एक गम्मत में उनके गुरू श्री सिद्धेश्वर सेन ने उनकी ध्वनि की उंचाई, तान भरने की कौशल और बोल में लहरावे की योग्यता को माच के लिऐ उपयुक्त जानकर उन्हें अपने अखाड़े से जोड़ा था। दूहे के बाद टेक दोहराने से लेकर लम्बे समय तक उन्हें स्त्री पात्रों के रूप में मंच सुलभ कराया गया। स्मरण रहे माच में पांच स्त्री पात्रों का होना आवश्यक होता है स्त्री पात्र पुरूषों द्वारा ही अभिनीत किये जाते हैं। यद्यपि उनके गुरू ने महिला पात्रों के लिए महिलाओं का प्रयोग भी प्रारंभ किया था लेकिन बाद में लोक रंजन के लिए महिलायें ही क्या पुरूषों को भी माच परंपरा को विशुद्ध स्वरुप में जीवित रख पाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
आर्थिक अभावों के चलते अनेक अखाड़ों ने माच कलाकारों ने लोकनाट्य के प्रदर्शन से दूरियां बना लीं। हमने स्वयं यह अनुभव किया कि सत्यनारायण जी के नेतृत्व वाले उनके दल में अधिकांश कलाकार 60 से 65 वर्ष की आयु पार कर चुके थे। नयी पीढ़ी की लोक विधाओं से मुंह फेर लेने की मानसिकता भी माच परंपरा की रंगत के फीके पड़ने का कारण रहीं। विशेषकर महिला पात्रों के रूप में माच कलाकारों (भ्रकुंस) की संख्या में कमी आती गयी। स्त्री पात्र बोर, झेला, टोटी, बजट्टी, ठुस्सी, गलसनी तीमन्या, बाजूबंद, कांकणी, कंदोरा, रमझोला आदि परम्परागत आभूषण और लहंगा, कांचली, चुनरी का पेहरावा पहने मंच पर घूंघट काड़कर ही आते हैं। मूंछों सहित नारी पात्र निभाने के क्रम में उन्हें मुखश्रंगार की आहर्यता का निर्वहन नहीं करना पड़ता। पहले वे कड़ावा गाते हैं मंचस्थ गायक उनकी टेक झेलकर उसे दोहराते हैं। नृत्य रोककर दूसरा कड़ावा प्रस्तुत किया जाता है। सुखान्त नाट्य परम्परा वाली इस विधा में मुख्य पुरूष पात्र जरी का कोट, कमर में फेंटा, हाथ में मखमली म्यान और सिर पर पक्की जरी वाला चीरा बांधे रहता है। सहायक पात्र प्रधान, भिश्ती फरासन आदि साफा, अचकन, हाथों में तलवार लिये मंच पर प्रविष्ट होतें हैं। लम्बी यात्राओं के लिए सई-सई बहादुरों की टेर लगाकर एक-आध चक्कर लगा लिया जाता है।

सादगी, सहजता और स्वाभाविकता वाली इस लोकनाट्य शैली का विशेष आकर्षण होती हैं ढोलक की थापें। बहुधा 24 इंच के ढोल की आकृति वाले ढोलक पर ठेका, कहरवा, दून, अद्दा बजता है बीच-बीच में ढोलक तान फड़क्के की टेर लगायी जाती रहती हैं। सत्य नारायण जी ने हमें यह भी बताया कि मंच की उंचाई पहले कभी 10-12 फीट हुआ करती आज 5 फीट तक उंचे मंच बनाये जाते हैं। भादौ मास में गांवों में खुले आकाश के नीचे तक चलने वाले माच की शुरूआत खम्ब पूजन से ही होती है। पूजन के बाद खम्ब मंच के पाये से बांध दिया जाता है। माच के प्रदर्शन में हारमोनियम (पेटी) लगातार बजती रहती है। सत्यनारायण जी ने हमें यह भी बताया कि एक समय में अखाड़े परस्पर प्रतिस्पर्धी हों गये थे। वैयक्तिक आलोचनाएं छींटा कशीं के चलते माच के संगतकारों को अपनी मण्डली में मिलाने की होड़ लगी रहती थी। लेकिन अब परिर्दश्य बदल गया है माच कलाकार और वाद्यकार साज-बाज का सहयोगात्मक संबंध रखते हैं। पेटी बजाने वाले संगीत प्रधान माच की रंगतों को गाने वाले अब सहजता से एक दूसरे के लिए गा लेते हैं।पहले कभी 45 से अधिक रंगतों को कंठस्थ रखने वाले सत्यनारायण बताते हैं कि अब भरथरी, हरिश्चन्द्र, वीर नेजाजी और कालीदास की रंगते ही अधिक दर्शकों को सुहाती हैं इसीलिए उन्हें वही अधिक कंठाग्र हैं। ये कलाकार जिन दिनों में माच नहीं उठाते उन दिनों में या तो सब्जी विक्रेता फूल विक्रेता, और मजूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं। ‘घर फूंक तमाशा है’ ये जीजी, आमदनी की तो बात छोड़ों अपनी जेब से और लगाने पड़ जाते हैं। सत्यनारायण जी की पीड़ा झलक आयी थी। पब्लिक पेटी बाजा पर उतराई रखती तो है पर उसके अधिकारी भी ढोलक पेटी वाले संगतकार ही होते हैं। ठहराव करके माच का खेल कराने वालों की गिनती तो उगलियों के पोरों पर की जा सकती हे। पर चाहे कितनी भी बाधाएं आएं मालवा का नाम और अपने गुरू का काम चलाने के लिए वे माच खेल की परंपरा को अक्षुण्ण रखेंगे। उन्हें विश्वास है कि लोक नाट्य शैलियों के दिन एक न एक दिन तो बहुरेंगे। उनके दल के सुरेश बारोड़, गोपाल बारोड़ मांगीलाल जी हरौड़, मनोज परमार, कैलाश चन्द्र बारोड़, मांगीलाल, भजन सिंह, बलराम, सेवाराम, श्याम दयाल, दयाराम ने अपने अपने पात्रों के साथ पूरा-पूरा न्याय किया। हारमोनियम पर कन्यादास बैरागी और ढोलक पर सुरेश का सहयोग की विशेष उल्लेखनीय रहा।

https://youtu.be/-shL1n2mYPE

Comments

  1. राम जूनागढ़ says:

    આલંકારિક ભાષા કે સાથ પ્રસ્તુતિ
    નૃત્ય સંબંધી પુખ્તા જાનકારી
    વિડીયો ભી ડાઉનલોડ કરકે તાદ્રશ્ય ચિત્રણ કિયા ગયા.
    આપની લેખની વિષય કો પ્રસ્તુત કરને મે પાવરફૂલ હૈ.
    બહનજી , મૈ પ્રશંસા નહિ કર રહા હૂ, બ્લકિ રીયાલીટી બતા રહા હૂ.
    પારંપરિક નૃત્ય સંબંધી માહિતી સબ કો સત્ય કે સાથ ઉપલબ્ધ હો રહી હૈ.
    ધન્યવાદ ?

  2. संजय महाजन says:

    अति सुन्दर
    संजय महाजन

  3. kamal dubey says:

    आपकी लेखनी बहुत ही सुन्दर है

  4. उदयसेवक धावनी says:

    Vah.. Excellent… Apni information aur lekhni bahot hi kabiledad he apne Garba.. Dandiya aur tippani ke bare me bahut hi aches likes he dhanyavad

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