निमाड़ की रसवन्ती लोक नाट्य गम्मत शैली, ओडिसी नृत्य में शिव और शिवा की अभिन्नता

 

वे गर्व से बताते हैं कि उनके कौशल से प्रभावित होकर ही प्रसिद्ध रंगकर्मी बंसी काॅल जी ने निमाड़ोत्सव की शीर्ष प्रस्तुति हेतु उनका चयन किया था। गांवों की कोई भी भजन संध्याएं हों या विवाह गीत हों या फिर गुरूवाणी उनकी गायकी के बिना अधूरी मानी जाती हैं। एक प्राचीन गम्मत का कड़ी छट (छोटी मोटी बात) का उल्लेख कर वे अभिनय कर हमें दिखाते हैं-बारह गाड़ी प एक काकड़ी, व भी आग सि वाकड़ी। गम्मत में लोकोक्तियों, मुहावरों और व्यंग्य वक्रोक्ति के सहारे हृदय की बात कही जाती है। जैसे पटेल-पटलन संवाद में

हऊं तो ओंकार महाराज की जतरा जाऊंग
पटलन ने कयो-हऊं भी चलुंग
पटेल ने कयो-वहां भीड़ गंज रहेग तू मत जाये
फिर भी नी मानी व हऊं तो चलुंग नहीं लई जाओग तो हऊं तो म्हारे पीयर चली सम्हाल थारा जनक

और फिर साहिबा मक लई दो करण फूल झुमको गीत के साथ शोभाराम जी सभागर में उपस्थित दर्शकों को भी थिरकने पर विवश कर देते हैं। आगे नाचण्यों के रूप में अपनी उद्भुत क्षमता के रूप में बांकड़या, कन्दोरा, बांवठया, हंसली, तागली पहने शोभाराम जी नारी पात्र की भूमिका में पूरी तरह तन्मय हो जाते हैं। सिंगरना प्रदर्शनकारी कलाओं की अनिवार्यता रही है। गम्मत भी इससे अछूती नहीं है। शोभाराम के अनुसार मुर्दासिंगी घिसकर मुंह रंगने वाली व्यवस्था अब तो गम्मत का अंग नहीं रह गयी है लेकिन हिंगुल होठ रखने के लिए अभी भी प्रयुक्त की जाती है स्वयं उन्होंने हिंगुल को तेल में मिलाकर होठ रंगने, गाल लाल करने और आँखों में उभार देने का प्रयोजन किया था। चेहरे पर चमक हेतु भोडल (अभ्रक) भी लगाया था। नयी सिंगार सामग्रियों के आ जाने के बाद बहुत से पुराने टीम-टाम हटते जा रहे है परन्तु शोभाराम जी पारंपरिकता को अंगीकार किये हुए हैं इसलिए भी क्योंकि हिंगुल को तेल में मिलाकर लगाने से ‘आवाज’ परिवर्तित नहीं होती, अन्य रासायनिक पदार्थों वाली लालिमा गले को नुकसान पहुंचाती है। 45 कलाकारों वाली अपनी मण्डली के साथ निमाड़ी की लोकसंस्कृति को प्रसिद्धि दिलाने के प्रति संकल्पित शोभाराम जी जब नणंद बाई घुघुरा कहां भूल आई हो गीत में महेश्वर की गणगौर, लिक्की की टिक्की, कुक्षी को कुकुं, लगइबो, रसुआ गांव की रसरोटी खाई बो, मिसरपुरा की नथणी, खरगोन का ताजण  गाते हैं तो गांव-गांव के दर्शक श्रोता उनसे स्वाभाविक रूप से जुड़ जाते हैं। जिसकी झलक हमने सभागार में देखी दर्शकों ने उनकी हर प्रस्तुति के बीच-बीच में करतल ध्वनि के साथ उनका उत्साहवर्धन किया। असीम ऊर्जा का भण्डार शोभाराम जी की सुफल प्रस्तुति में उनके सहभागी बने सुनील पाण्डे, सुभद्र फागना, पूजा, वसु लक्ष्मी, अंतिम, अतुल, चैतन्य, हिमांशु, गौरव की भी सराहना करनी होगी।

लोकनाट्य मौखिक परंपरा में जीते रहे हैं। इन्हें लिखने की आवश्यकता कभी नहीं पड़ी पर शोभाराम इन दिनों प्रसंगोचित नई गम्मतें लिख रहे हैं। पूर्वजों की गम्मतें भी वे लिपिबद्ध कर रहे हैं। अपने पूर्वजों की धरोहर को सहेजना उनके लिए भले ही दूभर हो चाहे नई पीढ़ी लोकनाट्य परंपरा के प्रति उदासीन हो “पोरा पोरी किचवा रहे हों” तो भी वे पूरी ताकत के साथ इस लोकनाट्य पंरपरा को जीवंत बनाये रखने का भरसक प्रयास करते रहेंगे। उनकी कला यात्रा अबाधित जारी रहे इसके लिए वे दर्शकों से भी अपेक्षा रखते हैं कि वे लोकधर्मी विधाओं की मंचीय प्रस्तुतियों को अधिक से अधिक देखें और सराहें।

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