80 बसंत पार कर चुके बंशीलाल जी उर्फ बशीर मोहम्मद द्वारा निर्देशित लोक नाट्य की प्रस्तुति
इसमें कोई संदेह नहीं मंगल भाव लिए हमारे लोकनाट्य हों याँ लोक नृत्य, सामाजिक स्थितियों और परंपराओं की उजास से परिपूर्ण क्षेत्र विशेष का दर्पण होते हैं। भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय के सभागार में राजस्थान की लोकनाट्य कुचामणि ख्याल शैली और महाराष्ट्र की लावणी नृत्य परंपरा के दर्शी बने हम यही अनुभूत करते रहे। सभागार में अभिनयन श्रंखला के अन्तर्गत राजस्थान के नागौर जिले के डेगाना तहसील के चुयी गांव से पधारे बंशीलाल खिलाड़ी एंड पार्टी द्वारा जगदेव कंकाली की सराहनीय प्रस्तुति की गयी। कुचामणी ख्याल परंपरा में लोक नाट्य का कथानक धारनगरी के राजा उदयदीप के ज्येष्ठ पुत्र दान परायण, सत्य निष्ठ और धर्मप्रवण जगदेव के आस-पास घूमता रहा। जगदेव की सौतेली मां के बर्ताव से क्षुब्ध मां कंकाली दासी का रूप धारण कर बच्चे का लालन पालन करती हैं। जगदेव के बड़े होने पर सौतेली मां के कहे अनुसार राजा रणधवल को सत्ता सौंपकर जगदेव को पदच्युत कर देते हैं।
जगदेव राज्य छोड़कर कन्नौज राज्य में राजा जयचन्द्र के दरबार में सेवाएं देने लगते हैं। कन्नौज की रानी चन्द्रिका भैरव नामक राक्षस के दुर्व्यवहार से संत्रस्त रहती है। राजा जगदेव को रानी की सुरक्षा का दायित्व सौंपता है। जगदेव भैरव राक्षस से युद्ध कर उसे परास्त कर देता है। उसकी कर्तव्यनिष्ठा से प्रसन्न होकर राजा अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव उसके समक्ष रखता है। उधर अपनी पराजय से व्यथित राक्षस जो कि कंकाली माता का परम भक्त भी होता है माता के समक्ष जगदेव को मृत्युदंड दिए जाने की याचना करता है। माता याचक का वेश धरकर राज दरबार में प्रस्तुत होती हैं। राजा उनके स्वरूप से अनिभिज्ञ होकर उनसे बुरा बर्ताव करता है। क्रोधित होकर देवी कंकाली राजा को सबक सिखाने के लिए जगदेव का सिर मांग लेती हैं जिसे राजा की स्वीकारोक्ति भी मिल जाती है। जगदेव अपना शीष माता के चरणों में प्रस्तुत करने के लिए सहर्ष तैयार हो जाता है। उसके कटे हुए शीष को देखकर भैरव का हृदय परिवर्तन हो जाता है और लोकनाट्य कंकाली माता द्वारा जगदेव को पुर्नजीवित कर दिये जाने वाले सुखांत प्रसंग के साथ समाप्त हो जाता है।
संगीत नाटक अकादमी सम्मान प्राप्त बंशीलाल जी के मारवाड़ी खेलों का प्रारंभ बाला जी की स्तुति के साथ हुआ और समापन शिव के जयकारे के साथ हुआ। कुचामन निवासी कवि लच्छीराम द्वारा रचित इस लोकनाट्य में जब यह संवाद आता है कवित्त में सुनोरी कमोद प्यारी, चालण की करो त्यारी, फूट्यो दरियाव भारी, तांके नई पाज है। मात घोल घात, तात ने जणाई बात, गई हात, भात, हूं को राज है।। दसरथ ने सीकाय, सुती कैकेई रिसाय, राम ने दीनु खीनाय, बोई दिन आज है। केत कवि लछीराम, छोड़ी धन धाम बाम, धारा नगरी में रीया आपणों अकाज है। तब प्रेक्षागृह में उपस्थित दर्शक भाव विव्हल हो जाता है। मूलतः मांड गायकी में सिद्धहस्त ये कलाकार सोरठ, कालिंगड़ा, श्याम कल्याण, बिलावल रागों में निबद्ध रंगतों से कानों में मिश्री घोल गये। चार दशकों से अधिक समय से कुचामणी ख्याल परंपरा की लोकधर्मिता को अक्षुण्ण रखने वाले 80 बसंत पार कर चुके बंशीलाल जी उर्फ बशीर मोहम्मद द्वारा निर्देशित इस लोक नाट्य की प्रस्तुति में शौकत खिलाड़ी माजिद, यायूब, मांगीलाल, छोटू, कालू खुर्दा, प्रकाश, शाहरूख झुम्मापुरी, मिट्टू की प्रशंसनीय लोकगायकी और अभिनय कौशल ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। इससे पूर्व उदयपुर के पश्चिमी क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र द्वारा कूचामणी ख्याल परंपरा में उल्लेखनीय अवदान हेतु सम्मानित बंशी खेलवाले के नाम से प्रसिद्ध श्री बंशी उर्फ बशीर मोहम्मद के निर्देशत्व में अमर सिंह राठौड़, विक्रमजीत, गोगा चैहान, राजा हरीशचंद्र, नौटंकी शहजादा, राजा मोरध्वज, राजा भरतहरी, खींवची आमल दे, पारस पीताम्बरी, राव डिमल सोटी इत्यादि कथानक राजस्थान ही नहीं देश-विदेश के अनेक दर्शकों के हृदय में स्थान बनाने में सफल रहे हैं। 12 वर्ष की आयु में नंदौती गांव के पंडित बद्रीप्रसाद दिवाकर की रामलीलाओं से अपनी कलायात्रा प्रारम्भ करने वाले बंशीलाल जी ने कभी हाथरसी ख्यालों में हंसोड़ और महिला पात्रों की भूमिकाएं निभाकर कचामणि ख्याल परंपरा के क्षेत्र में कदम रखा था। तब लगभग दो शतक पुरानी कुचामन की यह ख्याल परंपरा अपनी ख्याति के उत्कर्षकाल में थी, लोकरंजन के उद्देश्य से रमने वाले दर्शकों की भी कमी नहीं थी।
लोग संवादों और गायकी की इस सम्मिश्रित देहाती व्यवस्था में रूचि लेकर आनंद उठा रहे थे लेकिन आज स्थिति ठीक उसके उलट है, बंशीलाल जी को यही बात सालती है। वे ख्याल परंपराओं के मंचन में युवा प्रतिभाओं की अनुपस्थिति को लेकर भी क्षुब्ध दिखाई देते हैं। कभी मुक्ताकाशी मंचों पर पशु मेलों की चहल-पहल रहे कुचामणी ख्यालों के प्रति गाँवो में भी उदासीनता दिखती है, बदली मनः स्थितियों में तख्वतोड़ पद संचालन और जोशीले संवादों वाली कुचामणी ख्याल नाट्य परंपरा को मूल स्वरूप में सहेजना उनके लिए भी कठिन हो रहा है। दोहा, कवित्त, शेर, सोरठा, छप्पय ठंडी, टेरे रंगतों का जमाव, और दोहों में चन्द्रायणी व तिल्लाणी पर ईनाम देने वाले रसिकों की कमी उन्हें अखरती है।
हमने पाया कि टूटी-फूटी अंग्रेजी में गिटर-पिटर कर हंसाने वाला हलकारा हो या पारंपरिक कांचली कुर्ती लुगड़ा राजस्थानी पहरावा पहने मुरदारसिंगी सूखा हिंगुल और काजल से सजे संवरे पुरूष स्त्री भूमिकाओं में हों सभी अपनी ओर से श्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहे थे, अंततः हम यह कह सकते हैं कि एक हाथ में रूमाल और दूसरे में तलवार लिये ये लोककलाकार वीर रस से ओत प्रोत सरस गीतों और अपनी अगिंक चेष्टाओं के बल पर वीरता व अखण्डता के लिए प्रसिद्ध मरु भूमि के रेतीले धौरों के बीच दर्शकों को ले जा पाने में पूर्णतः सफल रहे। धार्मिक पुट लिए संवाद और श्रृंगारपूर्ण प्रभावक अभिनय के गुंथाव वाली यह प्रस्तुति मन को तंरगित कर गयी। हमने बंशी लाल जी के पुत्र जो मकराना का संगमरमरी व्यवसाय छोड़कर इस विधा से जुड़ चुके हैं, शौकत से भी बात की उन्होंने बताया कि वर्तमान में परंपरागत विषयों के साथ-साथ साक्षरता नशाबंदी, बाल विवाह रोकथाम, सामाजिक कुरीतियों के प्रति सचेत करते जन जागृति परक मारवाड़ी खेलों को संरक्षित करने के बंशीलाल के प्रयासों में वे कंधों से कंधा मिलाकर चल रहे हैं, वे अपने पुरखों की कलामयी रचनाओं को भविष्य में भी जारी रखने के हामी हैं। इन लोककलाओं को आप जैसे सुधि दर्शकों से भी अपार आत्मीय लगाव की अपेक्षा है।
લોકનૃત્ય કે બારે મે આપ બહુત બઢીયા કામ કર રહી હૈ.
આપકી લેખનશૈલી ભી બહતે જલ કી તરહ નિરાલી ઔર લાવણી નૃત્ય જૈસી લાવણ્યમય હૈ.
મેરા સુઝાવ હૈ કી આપ સભી કલાનૃત્ય કે બારે મે એક બુક પ્રકાશિત કરે.
બહુત સુંદર શૈલી મે આપ મોતી જૈસા કાર્ય કર રહી હો.
ધન્યવાદ.
ऐतिहासिक जानकारी के लिए हार्दिक धन्यवाद