लुका-छिपी, आँख-मिचौनी, धूप ले के छैंया, सितौलिया, आसी-पासी, कुक्कर कुक्कर कांकरो, आती-पाती, फुंदी फटाका, लंगड़ी, गुल्ली-डंडा और गुड्डे-गुड़ियों के साथ घर-घर खेलने वाले उल्लसित और उत्फुल्लित लोकमन की समूहात्मक अभिव्यक्ति हमें पिछले दिनों भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय के दस दिवसीय शिविर में माटी के खिलौने बनाने वाले कुशल शिल्पकारों के शिल्प में दिखायी दी। राजस्थान, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश राज्यों के सिद्धस्त शिल्पियों ने मुक्ताकाश तले मुक्त कल्पनाओं से माटी के खेल खिलौनों का अभिनव संसार रच दिया। आंचलिक परिवेश में अपने बचपन की स्मृतियों में लौटकर खेल-खेल में ही आपसदारी सिखाते शिल्पियों में देश के कई प्रांतों और मध्यप्रदेश के विभिन्न लोकांचलों के कुम्हार सम्मिलित हुए। आयोजक मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् की ऐसे शिविर के आयोजन के लिए प्रशंसा करनी होगी जिन्होने लुप्तप्राय देहाती खेलों में बसी लोकचित्त की उमंग वाली खेल प्रवृतियों को माटी के माध्यम से सहेजने का अनूठा प्रयास किया।
कुम्हार जिसकी गौरव गाथाएँ विश्व के सांस्कृतिक इतिहास के पन्नों पर अंकित हैं। चाक, चखेरी, पिटनी, ऊधरी, आंवा और खिलौने के लिए साँचे लिए अपनी माटी का मोह और चाक देवता के प्रति आदर भाव उसे इस रचना क्रम से जोड़े रहता है। हमने पाया कि कुम्हारों की नयी पीढ़ी, निर्माण क्रम में लगी हुई थीं। घूमता हुआ चाक, चिकनी मिटटी से सनी हुई उँगलियाँ हमे प्रतीति करा रहीं थी मानो काल चक्र तीव्रता से घूम रहा है और नियंता स्निग्ध उपादानों से सतत निर्माण में संलग्न है। हम देख रहे थे माटी के सुघढ़ कुम्हारों द्वारा हाथी, घोड़ा, राजा, मंत्री, गुड़िया, मिटटी के खेल-खिलौनों को सिरजते हुए। सुदूर उड़ीसा के सोनपुर अंचल की महानदी की माटी का सौंधापन और लोच श्री अनंत राम राणा के बनाये खेल-खिलौनों में रची-बसी थी। भादौ माह की अमावस्या के सुअवसर पर विशालकाय हनुमान का स्वरुप बनाने वाली लोक मान्यता हो या ढिमकी धान से चावल बनाने वाली ओखली, या हो कुची, कित-कित, पान पतर, चका भंवरी आदि लोकांचल में प्रचलित रंजन के वे संसाधन जिनमें आतंरिक आनंद की अनुभूति होती है, सभी अनंतराम राणा द्वारा सिरजे गए थे।
उन्हीं के निकट राजस्थान के मुलेला से पधारे राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त दिनेश चंद्र कुमार ने क्षेत्रीय मनोविनोद की पारम्परिक सामग्री बनाकर मरुभूमि के लोक खेलों के प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट कराया था। फिसल पट्टी, घोड़ा गाड़ी, कबड्डी, गोटी खेल, गुड्डा-गुड्डी, हवाई जहाज से सजे सँवरे उनके स्टॉल पर मुलेला की मिट्टी से बने शिल्पों में, मैदान के खेल थे, आँगन के खेल थे और घर के भीतर कमरों में खेले जाने वाले ऐसे खेल भी थे जो बच्चों को सहभागिता, सामूहिकता, सहनशीलता और सहजता का पाठ पढ़ाते रहे हैं।