स्मरण रहे विकास की अंधी दौड़ ने खेल के मैदान और आँगन तो हमसे छीन ही लिए हैं, साथ ही शालेय शिक्षा ने भारी-भरकम बस्तों के बोझ तले बाल सुलभ क्रीड़ाएँ भी लील ली हैं। बचपन की सहेली गुड़ियाएँ तो कबकी विदा हो चुकी हैं। अब तो मिट्टी की पशु-पक्षियों की आकृतियाँ भी आकर्षण का केंद्र नहीं रह गयी हैं। अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बो अस्सी नब्बे पूरे सौ, सौ में लगा धागा चोर निकलकर भागा जैसी बाल मन की सहज अभिव्यक्ति को पहचानना और बखानना भी कठिन हो गया है। ऐसी परिस्थितियों में ऐसे आयोजनों का पुनरावर्तन होते रहना चाहिए ये हमारा नहीं यहाँ उपस्थित प्रजापतियों का भी मानना है। खेल हमारे संगी-साथी हैं, ये हमें हिलराते दुलारते रहे हैं।
अगला पंडाल पश्चिम बंगाल के बाकुरा जिले के सेन्द्रा गाँव से आये राज्य पुरस्कार प्राप्त स्वप्न सन्यासी का था। उनके बनाये काटा-काटी, दाबा (शतरंज) और लूडो खेलते बालक-बालिकाएँ लाल माटी प्रदेश के ग्राम्य जीवन की सहज स्वाभाविक जीवन शैली के बिम्ब प्रदर्शित कर रहे थे। उन्होंने बताया कि दारकेश्वर नदी के निकट स्थित गाँव की माटी, गाँव में ही उपलब्ध साधन इन खेल-खिलौनों का माध्यम बने हैं। सम्पन्नता से परे लँगड़ी, सात तिकड़ी, कोड़ामार, चूल्हा चमकी, तीरंदाजी (तीर कामट्या), नद्दी, पहाड़, कंचे जैसे सामान्य खेल जिनमें संसाधानों की आवश्यकता कतई नहीं होती है,इनमें समाहित होती है तो सिर्फ खेल भावना, को आस पास के पंडालों में देख कर मन बचपन को कुरेदने लगा था।
पंडालों की अगली कड़ी में औरंगाबाद गांव, जिला गोरखपुर, उत्तर प्रदेश के राममिलन प्रजापति के दस सउआ, लट्टू मार, कोड़ा जमाल साई पीछे देखो मार खाई, मदारी, सपेरा, गुल्लक, गुलेल हमें बाल जीवन के सामूहिक रसमय उत्साही परिवेश में ले गयी। कभी जिन खेल-खिलौनों में जीवन का सार निहित हुआ करता था, वे वर्तमान मोबाइल संस्कृति के कारण उड़न छू हो चुके हैं सभी पारंपरिक कुम्हारों के यही विचार थे ।