राज्य पुरस्कार प्राप्त छतरपुर के देवीदीन की जीवन को गतिमान करती छुक-छुक गाड़ी हमें सीटी बजाती, सवारियाँ चढ़ाती-उतारती, सरपट भागती रेलगाड़ी के स्मृति संसार में लिवा लाई थी।उनके पंडाल पर चैंया बैंया, गिप्पी, गोल बंटैया, लुक छिप, कुश्ती, कौंड़ामार, चकरी, गदामार, चील झपट्टा, पतंगबाजी आदि खेलों से आलस्य त्यज्य कर तन-मन में स्फूर्ति का संचरण करने वाली क्रीड़ाओं का मनोहारी शिल्पांकन दिख रहा था।
अगले पंडाल में मण्डला से भीकम प्रजापति के माटी के खिलौनों में भी पारम्परिकता के दर्शन हुए। नान्हे गुन सयानी विद्या वाली लोकोक्ति को चरितार्थ करते ये अबोले खिलौने जाने-अनजाने बहुत कुछ बोल गये थे। वास्तव में कभी खेल साहित्य ही तो बचपन में हमारी नैतिक शिक्षा के माध्यम हुआ करते थे, याद कीजिए। उनके बनाये चिड़िया उड़, चींटा पंचगोटी, घोड़ी गाड़ी, चका, अप्पु, पतंग उड़ाते पुंगी बजाते शरारती बच्चों का बचपन नर्मदा नदी की सहायिका बंजर नदी की माटी में ढलकर अद्भुत लग रहे थे।