तारा चंद बाड़मेर जिले के दुधवा से पहली बार किसी प्रदर्शनी का हिस्सा बनने के लिए यहां आये थे। बाल मन को भाने वाली ढेरों खेल सामग्री बनाकर मंजे हुए शिल्पकारों के साथ शिविर में भाग लेकर वे फूल के कुप्पा हुए जा रहे थे। छतरपुर जिले के धमना के भगीरथ प्रजापति और बैतूल के दीपक कुमार प्रजापति से विलुप्त होती खेल परिपाटियों को जानने का सुअवसर भी आया। जैसे जैसे आगे बढ़ते गये, निष्काम भाव से बनाये गये इन शिल्पों से सादगी भरी आदिवासी खेल संस्कृति की ब्यौरेवार जानकारियाँ मिलती गयीं। घर का आँगन, गली-खोरी और खिरखा डांड में जब मन किया, हृदय में उमंग उठी कि मन बहलाने की चाहना लिये खेल खेलने वाले बच्चों के मनमाफिक खेल-खिलौने बनाकर लाने वालों में कुम्हारिनें भी सम्मिलित थीं।
गढ़ा गेंद, बिसखापरी, डंडा चूमना, फुर्र-फुर्र, कूमी की हाँक व लखुरी दांव जैसे गोंड आदिवासी खेलों से लेकर कबड्डी, खो-खो और आदा-पादा सरीखे खेल भी कुम्हारों के शिल्पों में उतर कर मन को भा गए। छकाने वाली, पदाने वाली, रोंगटी खोन वाली, बात बिगड़ने पर रूठने और मनाने वाली, गरियाने वाली, खीजने (चिढ़ने) और खीजाने (चिढ़ाने) वाली, लड़ने-झगड़ने वाली, हारने और जीतने वाली खेल गतिविधियाँ बच्चों को हिलाने डुलाने, दिल बहलाने का साधन भर नहीं होतीं वरन् बच्चों को लुभाती भी हैं। काँच से बने कँचे, ईमली के बीज को दो-फाड़ कर अष्टा-चंगा पे, गुच्ची, फलांग, खेंचा-खेंची, कुलाम डाल, अत्ती-पत्ती, जितने अंचल उतने नाम – ध्येय केवल एक मनोरंजन।