भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय की लिखन्दरा दीर्घा में मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के झेर ग्राम की युवा चितेरी शरमा बारिया के भीली चित्रों के परिलेखन में आदिवासी जनजीवन के वैविध्य की समग्रता के दर्शन हुए। मूल रूप से भीलियों में प्रचलित मान्यता के अनुसार भीतियाँ जूनी नहीं रखे जाने के उद्देश्य से बनाये जाने वाले अनुष्ठानिक भित्ति चित्रों को कैनवास पर उतारने वाली शरमा बारिया से हमने भेंट कर भाव निमग्न लोकवासियों की अन्तः प्रेरणा से उद्भूत लोकचित्रों का समझने का प्रयास किया। हृदयग्राही, अकृत्रिम, सहज, सरल, भील आदिवासियों के अतीत की वैभवपूर्ण संस्कृति दर्शाते इन चित्रों में आदिवासी जीवन अपनी सम्पूर्णता के साथ बिम्बित हुआ था। धर्मिक विश्वासों से अनुप्राणित शरमा के चित्रों में उनके जीवन दर्शन की छाप स्पष्ट दिखाई दी। प्रदर्शनी में अरण्य संस्कृति में पली-बढ़ी शरमा की कल्पना के वन्य प्राणी, प्राकृतिक सौंदर्य से उद्घाटित नदी, वन-प्रांतर, वन उपादान, पेड़-पौधों के अनूठे परिदृश्य चित्रित हुए थे। शरमा बताती हैं कि प्रकृति उनकी संगी-साथी रही, उसकी गोद में ही उनका बचपन बीता, इसलिए वे प्रकृति से इतर कुछ और नहीं सोच पातीं। संघर्षमयी जीवन उन्हें अल्पायु में ही भोपाल लिवा लाया। दिहाड़ी मजदूरी के बीच समय निकालकर उन्होनें भीलों को सजाने वाली आकृतियों को बहुवर्गी पोस्टर कलर्स के माध्यम से कैनवास पर चित्रित करना प्रारम्भ कर दिया। भरण-पोषण के लिए विवाहोपरांत भी मजदूरी के साथ-साथ कलाकर्म को साधे रखा। प्रख्यात भीली चित्रकार भूरी बाई का सानिध्य पाकर उनकी कलाधर्मिता में और भी निखार आ गया। अनगिने बिंदुओं और रेखीय संरचनाओं के गुम्फन से भराव वाली उनकी चित्राकृतियों में चटक रंगों का समावेश होता गया। हमने पाया कि कभी भीली अंचल में मिलने वाली काली, पीली, भूरी, रेतीली, गेरू और पाण्डु मिट्टी का चित्रांकन करने वाली शरमा बारिया के चित्रों का रंग संयोजन अद्भुत है। सर्वथा भिन्न, मौलिक शरमा बारिया के चित्रों को देखना हमारे लिए किसी अनुभव से कम नहीं था।
मोर और गन बाप जी उनकी चित्रावलियों का प्रिय विषय हैं। गन बाप जी तो उनके अराध्य ही हैं- जिनकी प्रार्थना के उपरान्त ही वे चित्रों को अन्तिम रूप दे पाने में सफल हो पाती हैं। रेखाओं में अनंत विस्तार समेटे शरमा के चित्रों में परंपरा, स्मृति तथा मिथकों का सुयोग है। उनके पति दुबु बारिया भी जनजातीय चित्रकला क्षेत्र में परिचित नाम हैं- जिनकी सहभागिता से ही शरमा अपनी रचना प्रक्रिया को आगे बढ़ा पाई हैं। हमें दुबु के भी चित्र देखने का सौभाग्य मिला। उनके रंगों का फैलाव और टिपकियों का जमाव शरमा से पृथक विलक्षणता लिए हुए है। शरमा की स्वभावगत सौम्यता उनके चित्रों में भी उतर आयी है, जिनमें गीतात्मकता है, इसलिए उनका गाया गीत भी उनके चित्रों की भांति चुम्बकीय प्रभाव छोड़ता है। मन को लुभाने वाली उनकी भीली चित्रकला पशु-पक्षियों और पेड़ों-बैलगाड़ियों तक ही सीमित नहीं दिखती बल्कि कल्पना की उड़ान भरकर हवाईजहाज और उसमें बैठी सवारियों तक को अपने विराट स्वप्न में लाकर चित्र फलक पर उतारती चलती है। तीन संततियों की माँ शरमा की रचना प्रक्रिया में लोकानुभूति और लोकाभिव्यक्ति का बढ़िया सामंजस्य दिखाई देता है। सहृदयी शरमा अकृत्रिम रचनाओं में लोकानुभवों को ऐसे बिंदुकित और बिम्बित करती चलती हैं कि देखने वाला केवल दर्शक ही नहीं रह जाता बल्कि लोक में घुल-मिल जाता है। उनके लोक भाव रस बनकर गीतों में उतर आते हैं। भीली भाषा की मिठास लिए सामाजिक समरसता वाले भीली लोकगीतों की संगीतात्मकता निःसंदेह उनकी रचनाओं को भी लयात्मकता प्रदान करती दिखती है। अपनी पहली एकल प्रदर्शनी के माध्यम से कला-रसिकों की वाह-वाही बटोरने वाली शरमा के उज्ज्वल भविष्य के लिए हमारी शुभकामनाएँ।
आपका श्रम, प्रस्तुति और उद्देश्य तीनों स्तवनीय हैं ! हार्दिक आभार इन बेहतरीन पोस्ट्स के लिए ….