लोकनाट्य, लोक की श्रमशील स्थितियों, संघर्षों, प्रकृतिजन्य बाधाओं और सामजिक आवश्यकताओं की भावभूमि पर यथार्थ की उपज होते हैं। भोपाल स्थित जनजाति संग्रहालय के सभागार में उज्जैन के खेमासा गाँव की महावीर माच मंडली के राजा भरथरी के प्रदर्शन में हमने यही अनुभूत किया। मालवा के प्रतिष्ठित, समर्पित और मर्यादित माचकारों में गुरु सिद्धेश्वर सेन का नाम आदरपूर्वक लिया जाता रहा है। उन्हीं की कलमबद्ध रचना को मंचित करती राजा भरथरी की पारम्परिक प्रस्तुति में रंगतों, हलूर, लावणी और लोकधुनों के साथ झुरना का सराहनीय समन्वय दिखाई दिया। पौरुष प्रधान अभिनय और नृत्य की समन्विति वाली यह लोकनाट्य शैली मुक्त कण्ठ की प्रभावोत्पादक पलटेदार गायकी के लिए जानी जाती है। मूल रूप से गीती नाट्य माच में गद्यात्मक संवाद चबोले की भूमिका गौण होती है,गायन , वादन और नर्तन पक्ष प्राधान्य होता है , नृत्य में लोच, लटके-झटके और गत्यात्मकता का अतिरेक होता है। ऐसे ही लोकतत्वों से परिपूर्ण 65 वर्षीय श्री दयाराम गोयल के नेतृत्व में दक्ष लोक कलाकारों द्वारा प्रदर्शित राजा भरथरी का पारम्परिक खेल दर्शकों की वाह वाही बटोर गया। इस लोकनाट्य में अवंतिका जनपद के उज्जियिनी के राजयोगी भरथरी के वैराग्य जीवन के प्रसंग, उनकी तीन पत्नियों श्याम दे, कमला दे और पिंगला दे के संवाद ,प्राणप्रिया पिंगला की परीक्षा ,अरण्य क्षेत्र में काले हिरण का वध और मृगनियों द्वारा शापित राजा के गुरु गोरखनाथ की शरण में जाने ,अपनी पत्नियों व बहन मैनावती को माता मानकर भिक्षा लेने वाले कथानक को लोक नाट्य शैली में इस तरह पिरोया गया कि सभागार में उपस्थित सहृदय दर्शकों ने करतल ध्वनि के साथ खेल की सराहना की। रूढ़िगत परम्पराओं का अनुगमन करते राजा भरथरी के खेल का प्रारंभण चौपदार द्वारा कलाकारों का परिचय कराने और गणपति, सरस्वती और भैरव वंदना के साथ हुआ। छप्पन भैरव माच के देवता हैं, अतः उनकी आराधना के बिना माच की प्रस्तुति अपूर्ण मानी जाती है। माच के रचयिता गुरु के स्मरण के साथ मच का खेल खोला गया।