माच परंपरा के संरक्षण-संवर्धन पर आधारित एक परिसंवाद में माचकार गुरु सिद्धेश्वर सेन की सुपुत्री सुश्री कृष्णा वर्मा जी का उद्बोधन
माच की समाप्ति पर मालवा की माच परंपरा के संरक्षण-संवर्धन पर आधारित एक परिसंवाद का आयोजन किया गया जिसका प्रारम्भ माचकार गुरु सिद्धेश्वर सेन की सुपुत्री सुश्री कृष्णा वर्मा जी के उद्बोधन के साथ हुआ। अपने सम्भाषण में कृष्णा जी ने मुक्ताकाशी मंच पर किए जाने वाले माच के खेलों से 15 दिन पूर्व मांगलिक तिथि निर्धारित कर खम्ब गाड़ने और विधिवत खेल की शुरुआत करने सम्बन्धी जानकारियाँ साझा कीं। उन्होनें 18 शताब्दी के उत्तरार्ध से मालवा में प्रचलित नाट्य शैली की रूढ़िगत विशेषताओं पर प्रकाश डाला। अपने पिता के कृतित्व और व्यक्तित्व से सम्बंधित विचार व्यक्त करते हुए उन्होनें बताया कि वे बचपन में पिता के साथ साइकिल के डंडे पर बैठकर पोथियाँ लिए गाँव-गाँव जाया करती थीं। परिस्तिथियों से संघर्ष करते हुए उनके अनुसार उनके पिता ने समाज के निषेधों की परवाह नहीं की। इंदौर जिले के रंगवासा में जन्मे श्री सिद्धेश्वर सेन ने वस्तुतः राम दंगल में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और अपनी कला को परिमार्जित कर निरंतर निखारा था। गाँव की रीति-नीति का ज्ञान तो उन्हें था। वे बौद्धिक व्यक्ति नहीं थे पर उनकी बौद्धिकता कई बौद्धिक व्यक्तियों से स्तरीय थी , वे ऐसे सुगढ़ जौहरी थे जो लोकमन के रत्नों की परख तत्काल कर ले । राजा रिसालु नामक खेल की रचना उन्होनें 19 साल की उम्र में ही कर ली थी। उनकी भावुकता, लोक-भावों को ग्रहण करते हुए माच को ऐसा प्रेषणीय बना देना बखूबी जानती थी कि वह शीघ्रता से लोकग्राह्य हो, लोकमुख को भाए और लोकानुभूति व लोकाभिव्यक्ति बनकर लोककंठ में स्थापित हो जाए। संघर्षों के घात-प्रतिघात में बीता उनका जीवन उन्हें और अधिक लगन व संघर्षशील बनाता था। कृष्णा जी के अनुसार उनके मन की ललक कभी तृप्त ही नहीं होती थी। सन 56 में ही उन्होनें सामजिक और शासकीय आमंत्रणों पर माच का अनवरत प्रदर्शन करना प्रारम्भ कर दिया था। अपने निजी साक्षात्कार में कृष्णा जी ने हमें बताया कि उनकी पुश्तैनी नाई की दुकान उनके माच प्रेम के कारण ही बंद हो गई थी और तब आर्थिक स्थिति की विकटता को देखते हुए दादी माँ और माँ अगरबत्ती के कारखाने में जो कि उज्जैन में लाल मस्जिद के पास हुआ करता था , जाने लगीं थी। तीसरी क्लास तक पढ़े सिद्धेश्वर जी ने अपनी बिटिया कृष्णा में माच के संस्कार डाले। यही कारण रहा कि सिद्धेश्वर सेन जी और कृष्णा जी मध्यप्रदेश की एकमात्र ऐसी सिध्ह्हस्त प्रतिभाएँ रही हैं जिनकी पिता-पुत्री की जोड़ी को राज्य सरकार के प्रतिष्ठित शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया था। 85 रंगतों का उपयोग कर एक एक गीत में 7-7 धुनें सिरजने वाले धुन के पक्के सिद्धेश्वर जी ने 1956 में जिस मालवा लोकनाट्य संस्था ‘लोकनाट्य माच’ की नींव रखी थी, कृष्णा जी आज उसकी संचालिका हैं। टकसाली मालवी में लिपिबद्ध उनके पनिहारिन माच खेल को हमें दिखाते हुए कृष्णा जी ने बताया कि उनके पिता की लेखनी की हर कोई प्रशंसा करता था। वरिष्ठ इतिहासकार डॉ. भगवती लाल राजपुरोहित और लोकधुन के मर्मज्ञ भावसार बा के साथ कंठाल चौराहे पर सिलाई की दुकान पर बैठकर सिद्धेश्वर सेन जी राजा भरथरी, तेजाजी, नरसी मेहता, सत्यवादी हरिश्चंद्र पर घंटों बात करते रहते थे। हमने डॉ. भगवती लाल राजपुरोहित से भी उज्जैन में संपर्क साधकर सिद्धेश्वर जी के सन्दर्भ में जानने के प्रयास किए। उन्होनें बताया कि लोकनाट्य माच के प्रसार-प्रचार में परवर्ती काल में जितना योगदान श्री सिद्धेश्वर सेन जी का है उतना किसी का नहीं है। उन्होनें गाँव-गाँव घूमकर, 30 गाँवों में माच की शाखाएँ बनायीं। नए लोक कलाकारों को इस विधा के प्रति आकर्षित किया। राजा भरथरी के माच में 38 रंगतों में 61 गीतों की रचना की। जिसके एक गीत में 7 बार धुनें पलटती हैं। उन्होनें मालवा के पौराणिक, ऐतिहासिक, धार्मिक लोकतत्वों को कथानक में गूँथकर , रंगतों में ढालकर रात-रात बैठकर लोकोपयोगी रचनाएँ लिखीं। डॉ. राजपुरोहित ने माच की प्रस्तुति के पूरी रात चलने वाली प्रक्रिया को भारतीय नाट्य परंपरा के कालावधि की दृष्टि से समवकार के निकट और प्रकृति की दृष्टि से मतल्लिका के समीप ठहराते हुए उचित ठहराया। उन्होंने स्पष्ट किया की साहित्य दर्पण में रूपक समवकार और उपरूपक या मतल्लिका की गणना में यह निर्दिष्ट है कि समवकार अंक 1 = 12 नाली (घड़ी), अंक 2 = 4 नाली, अंक 3 = 2 नाली, कुल 18 नाली, मतल्लिका अंक 1 = 3 नाली, अंक 2 = 5 नाली, अंक 3 = 6 नाली, अंक 4 = 10 नाली, अंक 24 = 25 नाली, 1 नाली 1 घटी 24 मिनिट की होती है, ढाई घटी का एक घंटा होता है, इसलिए समवकार 7 घंटे 10 मिनिट का होता है। वर्तमान माच भी 7 घंटे अवधि का ही होता है। अतः वे मानते हैं कि शास्त्रीय नियमों के अनुसार माच के लिए निर्धारित 7 घंटे की अवधि ही पर्याप्त है। इसे लघु कलेवर देना माच की शैलीगत परम्पराओं के साथ खिलवाड़ करने जैसा है।डा राजपुरोहित ने बताया कि यद्यपि अपने जीवनकाल में ही सिद्धेश्वर सेन जी ने लघु माचों की भी रचना की थी, पर वे सभी जनजागृति विषयक माच थे। ऐतिहासिक और पौराणिक विषयों पर आधारित माच के लिए रसिक श्रोता/दर्शक और उतने ही रसवंती लोकतत्व लिए खेलों की आवश्यकता होती है। सन 64 में ही गुरु सेन ने पुखराज पांडे, विद्या बाई, शारदा बाई, हेमलता राव जैसी महिलाओं को राजा भरथरी के माच में सम्मिलित तक कर लिया था । ध्यान रहे माच पुरुष प्रधान लोक नाट्य है जिसमें महिला पात्रों की भूमिका पुरुषों द्वारा ही की जाती है। उनके लिखे माच के टेके और दोहे जिनमें करुण रस से पगे झुरना भी शामिल थे को लोग रात-रात तक जागकर सुनने के लिए दूर दूर से आते थे स्मरण रहे माच का दोहा 26 से 40 मात्राओं का होता है। राम वनवास, पूरनमल, राम-जानकी विवाह, उगतो सूरज, भक्त प्रह्लाद, डाकू दयाराम गूजर, बंदीछोड़ कोदर सिंह उनकी लिखी अन्य रचनाएँ हैं। वर्तमान माचकारों में बईसा (बहन) के रूप में ख्यात कृष्णा जी ने बताया कि उनके पिता के कारण ही बहादुरगंज की भाट गली माच गली कहलाने लगी थी।
बकौल कृष्णा जी अपने कार्य के प्रति सदैव तल्लीन रहने वाले उनके पिता उनसे कहते थे जाते समय घर की सांकल बाहर से लगा दे ताकि हर आने-जाने वाला उनके नियत लेखन कर्म में व्यवधान न डाल पाए। वे बताती हैं कि 8 साल की उम्र में चौका-बासन करने के कारण जब वे पिता के साथ नहीं जा पाती थीं तब भी पिता माँ के आने से पहले ही बासन माँजने में उनका हाथ बँटा दिया करते थे। बहुत दिनों तक यह व्यवस्था चलती रही, एक दिन भांडाफोड़ होने पर माँ पिताजी पर बहुत गुर्राईं और बिटिया को तो उन्होनें धुन ही दिया। यह क्रम कृष्णा जी के हायरसेकेण्डरी तक आ जाने तक अबाधित जारी रहा ,लोक को देखो, बात करो, उसे माच के खेल में उतारो बस यही उनकी दिनचर्या थी। बाद में हालांकि कृष्णा जी की माँ कंचनबाई सेन भी माच के खेलों में श्रृंगार करने के लिए जाने लगीं थीं। कृष्णाजी बताती हैं कि गाँव में बरसात के दिनों में घुटनों तक कीचड़ भरे रास्तों पर पिताजी साईकिल काँधे पर रखकर जाया करते थे। यह वो दौर था जब माच की 350 मंडलियाँ उज्जैन और उसके आस-पास सक्रिय थीं, जो आज सिमटकर 4 या 5 रह गयीं हैं ।कृष्णा जी ने हमें बताया कि माच में शास्त्रीय राग-रागनियों सिंधु, पीलू, आसावरी, कालिंगड़ा, मांड, भैरवी और सोरठ का प्रयोग बहुतायत से मिलता है। हालांकि इसमें आलाप तो होते हैं पर मुरकियाँ नहीं होतीं। मचान अथवा डांगला जो कभी खेतों की रखवाली के लिए बनाया जाता था वह प्रायः इतना ऊंचा बनता था जिसके नीचे से बैलगाड़ी आसानी से निकल जाये वही मच का मंच होता था । कोई 200 वर्ष पहले राजस्थान के झालावाड़ के रास्ते माच रजवाड़ों के महत्तर, भिश्ती, फर्रास, हलकारा, चौपदार, सिपाही वाली भूमिकाएँ लिए मालवा में अवतरित हुआ था। पूरी रात चलने वाले इस माच खेल के सबसे पहले परिकल्पनाकार भागसीपुरा में रहने वाले माचगुरु गोपाल जी थे। गुरु बालमुकुंद, गुरु रामकिशन, गुरु भैरवलाल, गुरु राधाकिशन, कालूराम उस्ताद, गुरु शिवजी राम, गुरु चुन्नीलाल, चम्पालाल रतलाम, जीवणजी नाथूलाल और सिद्धेश्वर सेन ये वो नाम हैं जिन्होनें मालवा की माच परंपरा को लोकगृहीत बनाकर सबके हिय में टाँक दिया। यही कारण रहा कि संगीत नाटक अकादमी द्वारा दिल्ली में 1994 में श्री सिद्धेश्वर सेन को राष्ट्रपति ने सम्मानित किया । सहज दुराव-छिपाव से परहेज रखने वाले निश्छल श्री सिद्धेश्वर सेन का जब 18 साल पहले निधन हुआ तब भी वे माच का नया खेल लिख रहे थे। नाट्य शास्त्र के आधार पर सात घंटे तक चलने वाले माच के खेलों के अतिरिक्त उन्होंने अल्पावधि के भी एड्स, छुआछूत, बेटी बचाओ और मलेरिया सम्बंधित माचों की रचना की थी। विक्रमादित्य डॉ. राज पुरोहित के अनुसार उनका लिखा अधूरा माच है। कृष्णा जी के भाई प्रेमकुमार सेन भी माच मंडली का संचालन करते हैं और अपने पिता के लिखे माच के खेलों से लोकानुरंजन करते हैं। स्वयं कृष्णा जी का चितेरा स्वभाव मांडना, संजा जैसे लोक चित्रांकनों में रमता है। वे अपने पिता के मंचों की सजावट भी किया करतीं थीं । कुल मिलाकर बुद्धि की सजगता बररते हुए रूढ़ियों के साथ चलते हुए श्री सिद्धेश्वर सेन जी ने अव्वल दर्जे का जो माच साहित्य रचा वो आज भी लोकमानस को रसवत्ता से परिपूर्ण कर रहा है। लगभग 60 वर्षों तक सिद्धेश्वर सेन जी ने मालवी माच को न केवल गतिमान रखा बल्कि उसमें नई संभावनाएँ भी तलाशीं। यह अपने आप में एक कीर्तिमान है। पारम्परिक लोक रुपांकरन कला के क्षेत्र में जाना-माना नाम रहीं कृष्णा वर्मा जी ने अब तक अपनी संस्था के माध्यम से चित्रांकन लोक-नृत्य और लोकनाट्य माच का प्रशिक्षण दे कर 7,000 से भी अधिक प्रशिक्षुओं को पारम्परिक कलाओं से जोड़ा है। उनकी मालवा लोककला केंद्र संस्था द्वारा खेले जाने वाले माच हों या फिर पिता की छाप वाली शाखाओं के माच खेलों का प्रदर्शन हो वे आयोजन स्थलों पर सदैव उपस्थित रहती हैं और अपनी गुरुबेन के वहां पाकर माच के कलाकार भी स्वयं को धनी मानते हैं।