हमने दयाराम गोयल से बात की और लोकप्रचलित इस नाट्य विधा के सन्दर्भ में विस्तार से जानने की चेष्टा की। मूल रूप से खेती और दुकानदारी से जुड़े दयाराम ने बताया कि राजा भरथरी के अतिरिक्त वे कालिदास, वीर तेजाजी, नानी माई का मामेरा जैसे खेल खेलते हैं। उज्जैन से 20 किलोमीटर दक्षिण में उनके गाँव खेमासा में दुर्गा माता मंदिर का परिसर गम्मतों का केंद्र होता है जिसमें नयी युवा प्रतिभाओं को माच के तौर तरीकों से अवगत कराया जाता है। अब तक राज्य के कई हिस्सों में मालवी नाच का प्रशंसनीय प्रदर्शन कर चुके दयाराम ने राजस्थान और लखनऊ में भी अपनी प्रतिभा से सबको प्रभावित किया है उनके बारह वर्षीय होनहार पोते ने भी उनकी शैली को अपना लिया है रात भर चलने वाली इस कला के डेढ़ घंटे में सिमट जाने से वे व्यथित हैं और चाहते हैं कि माच के खेलों की विस्तारिता के अनुरूप ही उन्हें मंचीय प्रस्तुतियों हेतु समय दिया जाए। वे बताते हैं कि माच के तख्तातोड़ नृत्य प्रदर्शन के लिए दस मिनिट तो शरीर गर्म होने में ही लग जाते हैं।उनके अनुसार डेढ़ घंटा राजा, दुगन, ग़ज़ल, मारवाड़ी, हलूर बड़ी, हलूर चार कड़ी, रांझा लंगड़ी झोंका, दादरा, झेला और कालिंगड़ा आदि रंगतों के लिए पर्याप्त समय नहीं है। इतना कम समय लोकानुरंजन करने वाली इस विधा की विविधता और विपुलता को ध्यान में रखकर उपुयक्त नहीं जान पड़ता। अपना घूँघट मुँह से हटाए बगैर दयाराम बताते चलते हैं कि माच का आनंद तो आँख बंद करके भी लिया जा सकता है गर कान खुले हों , क्योंकि इसमें अभिनय पक्ष कम होता है और भाव और कला पक्ष प्रधान होता है। गुरु सिद्धेश्वर सेन की माच परंपरा का अनुगमन करते दयाराम गोयल कहते हैं कि उनके गुरु की रचनाएँ इसलिए सर्वग्राह्य हैं क्योंकि उनमें अश्लील पक्ष का सर्वथा अभाव है और लोकप्रचलित शब्दों का बहाव है। मालवी लोकाचार, संस्कार, रंग-रोगन और लोकार्षण लिए उनके गुरु की माच की प्रस्तुतियाँ इसीलिए शीघ्रता से लोगों के हृदय में घर कर लेती है दयाराम ने यह हमें भलीभांति समझा दिया था