उज्जैन और उसके आसपास का पुरावैभव दर्शाता विक्रम विश्वविद्यालय का अनूठा संग्रहालय-अध्ययनशाला

उज्जयिनी पुरातन काल से कला, शिक्षा, विद्या और धर्म का केंद्र रही है। कनकश्रन्गा, विशाला, कुशस्थली, अवन्ति, पद्यावती, अमरावती,  प्रतिकल्पा नामों से अभिहित उज्जयिनी के  पुरावैभव का अवलोकन करने का सुअवसर पिछले दिनों मिला। भूतभावन महाकाल की अधिष्ठान भूमि तथा भूमि पुत्र मंगल की जन्मभूमि उज्जयिनी की आस्थावान प्रणाम्य धरा के यूँ तो कई बार दर्शन किये हैं लेकिन इस बार पुरातात्विक दृष्टि से परिपूर्ण उज्जैन के प्राच्य सिंधिया शोध प्रतिष्ठान के संग्रहालय और अध्ययनशाला के दर्शन करने का मानस बना। उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय के विक्रम कीर्ति मंदिर में स्थित अनुशीलन संस्थान के रूप में स्थापित यह शोध संग्रहालय विश्वविद्यालय में अध्ययनरत पुरातत्व और इतिहास के शोधार्थियों के लिए अध्ययनस्त्रोत के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विश्वविद्यालय के पुरातत्व तथा उत्खनन विभाग से सम्बद्ध संग्रहालय में  मौर्यकालीन, शुंगकालीन, गुप्तकालीन, प्रतिहारकालीन, परमारकालीन और मराठाकालीन पुरासम्पदाएँ संग्रहित की गयी हैं। ज्ञात, अज्ञात लुप्त और विद्यमान अनेक निर्माणों की महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध कराने वाले शोधसंस्थान के क्यूरेटर तथा समन्वयक पुराविद डॉ रमण सोलंकी ने हमें प्रदर्शनकक्षों में सुव्यवस्थित रखी हुई सामग्रियों की ऐतिहासिकता से अवगत कराया। उन्होनें बताया कि लब्धप्रतिष्ठित पुराविद पदमश्री डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर की परिकल्पना और पुण्यश्लोक पंडित सूर्यनारायण व्यास के संयुक्त प्रयासों से सन 1957 से अस्तित्व में आये  संग्रहण में पुरातात्विक उत्खननों से लेकर दुर्लभ शिलालेखों और प्रतिमाओं की श्रंखलाएं सम्मिलित थीं  जिन्हें बाद में संग्रहालय की दीर्घाओं में प्रदर्शित किया गया। विक्रम विश्वविद्यालय में अध्ययनरत इतिहास और पुरातत्व विभाग के स्नातकोत्तर और डॉक्टरेट उपाधि अर्जित करने वाले अन्वेषणकर्ताओं के लिए यह स्थान अतिमहत्त्वपूर्ण  है।

उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग की अध्ययनशाला में रखे अति प्राचीन जीवाश्म, मृदापात्र, स्थापत्य खंड

डॉ. सोलंकी के अनुसार संग्रहालय के प्रदर्शन कक्षों में दंगवाड़ा, रुणीजा, नावड़ातोड़ी, महेश्वर, महिदपुर, सोढंग, आचार्य वरामिहिर के क्षेत्र कायथा और उज्जैन के तीन उत्खननों से प्राप्त जीवाश्म, मृदापात्र, मृणमूर्तियां, ताम्राश्मकालीन अवशेषों, धूसरपात्रों, ताटकचक्र मनके, हाथी दन्त के आभूषणों और पाषणोपकरणों को दर्शाया गया है। 532  से अधिक प्रतिमाएँ, 400 जीवाश्मों के संग्रहण में मनावर से प्राप्त डायनोसौर का सहस्त्रों वर्ष प्राचीन अंडा, पांच लाख वर्ष पुराना गेंडे का सींग, भैंस का जबड़ा, दरियाई घोड़े का दांत और ऐरावत हाथी का चौदह हज़ार वर्ष पुराना मंडला से प्राप्त दुर्लभ जीवाश्म सम्मिलित हैं। भीमबेठका से प्राप्त अतिप्राचीन पाषाण अस्त्र से लेकर 2600 वर्ष प्राचीन अंजन की लकड़ियों के लट्ठे भी प्रदर्शनी की दीर्घा का हिस्सा हैं जिन्हें डॉ. वाकणकर ने उज्जयिनी के पश्चिमी क्षेत्र से संग्रहित किया था। डॉ सोलंकी के अनुसार क्षिप्रा नदी के तेज बहाव से भूमिकटाव को रोकने के लिए काष्ठप्राकार बनाई गई थी। ऐसी ही  काष्ठप्राकार पटना में भी मौर्य काल में बनाये जाने की जानकारी मिलती है। डॉ सोलंकी ने बताया कि ऋणमुक्तेश्वर से पीर मच्छेन्द्रनाथ की समाधि तक अमृतवाहिनी क्षिप्रा पर बनाई जाने वाली लकड़ी की दीवार का कुछ हिस्सा वाकणकर जी द्वारा एकत्रित किया गया जिसे यहां लाकर रखा गया। उज्जैन में हुए द्वितीय उत्खनन में मृत्तिका-प्राकार के अवशेष मिले 250 फ़ीट चौड़ी परिखा और पक्के इष्टिका  घाट के अवशेष भी प्राप्त हुए थे। पहला उत्खनन उज्जैन में 1936-37 में पुरातत्व संचालक स्वर्गीय मो. ब. गर्दे ने करवाया था। 1954-56 में दूसरा उत्खनन हुआ। जिससे ये ज्ञात हुआ कि विश्व की प्राचीनतम पक्की मेटल्ड रोड उज्जैन में ही थी। मत्स्येन्द्र नाथ नाले के पूर्व की ओर पक्की ईंटों से बनी आद्य मौर्य युगीन एक नहर और पीपल खोदरा नाले के पास 30-35 फ़ीट लम्बा चौड़ा कुंड  प्राप्त हुआ। कायथा उत्खनन से यह स्पष्ट हो गया कि उज्जैन में मणि बनाने का कारखाना था। यहां संगृहीत दुर्लभ स्थापत्य खंडों  के अनुशीलन से शैवोपासना, वैष्णवोपासना, शाक्तोपासना और सूर्योपासना के इस क्षेत्र में प्राचुर्य का पता चलता है। जैन तीर्थंकरों के अतिरिक्त शुंगकालीन यक्ष व यक्षणियाँ, राजा भोज, मौर्यकालीन हस्ती स्तम्भ, गुप्तकालीन सूर्य प्रतिमा संग्रहालय  के अन्य आकर्षण हैं। उज्जैन से विस्तारित बौद्धधर्म के संदर्भों के अनुसंधायकों के लिए भी यहां पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध हैं, योगेश्वर जगद्गुरु श्री कृष्ण की शिक्षास्थली संबंधी डेढ़ सौ वर्षीय चित्र, उदयन वासवदत्ता  प्रसंग से जुड़ा प्राचीन शिल्प, दशावतार पट्ट, कुबेर प्रतिमा, देवनागरी तथा फारसी लिपिबद्ध शिलालेख, बाईस सौ वर्ष पुरानी त्रिकोणात्मक ईंटें, उज्जैन में रोम से आने वाले दो हजार वर्ष पुराने मदिरा पात्र के अवलोकन से  विश्वसनीय जानकारियां एकत्रित करने में हमारे जैसे जिज्ञासुओं की भांति आप भी लाभान्वित हों इसलिए  विक्रमविश्वविद्यालय के शोध संग्रहालय के अवलोकनार्थ आपको लिए चलते हैं ।

Comments

  1. डॉ जगदीश भावसार, शाजापुर says:

    वाह … विरासत से व्यवस्था तक प्रवाहित संदेश …?

  2. Manju.y@gmail.com says:

    Excellent Job Disha mam??????

  3. O P Mishra, Bhopal says:

    You have good collection of the museum. One can see museum on this description. Very good and informative. Thanks.

  4. नारायण व्यास, भोपाल says:

    द्वितीय ब्लॉग रमण जी के सँग्रहालय का है जिसमें विभिन्न जगह की एकत्रित पुरानिधायाँ का वर्णन हाथ मे लेकर किया है।बहुत अच्छा लगा रमण जी आलमारी से निकाल निकाल कर बता रहे थे।बरमान घाट देवाकछार के जिवाश्म.विशेष रूप से विशाल मेमथ हाथी का मस्तक विशेष उल्लेखनीय बताया है.

  5. Dr B M Reddy, Hyderabad says:

    Very good disply of objects and informative. This museum preserves lot of rare information for research purpose. Video of Dr Raman Solanki is excellent in terms of his explanation of each and every object with reference and importance of it refering late Dr V. S. Wakankar, the father of this Museum, with due respect to him. Great and memorable for me.

  6. Dr B M Reddy, Hyderabad says:

    Very good collection and display of the objects in the Museum. It is good informative too. This Museum preserves vary rare objects and useful for the research purpose also.Video is excellent of Dr. Raman Solanki’s explanation of each and every object with relevent reference and importance of it, refereing late Dr. V. S. Wakankar, the father of this Museum, with due respect to him. Great and memorable to me.

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