मंदिर के आस-पास गोसाईं समाज की समाधियाँ, सावन के महीने में सुल्तानिया गाँव के धाकड़ समाज के पटेल माई का 40 मीटर लम्बा निसान पूजने के लिए गाजे बाजे के साथ यहाँ आते हैं
बीजासनी माता के अर्चक पंडित श्याम सुन्दर पाठक ने हमें बताया कि भैंसवा माता का पाटा भरना मालवा की अनिवार्य परंपरा है। पं पाठक ने बताया कि सावन के महीने में सुल्तानिया गाँव के धाकड़ समाज के पटेल माई को अपनी बहन बेटी मानकर 40 मीटर लम्बा निसान पूजने के लिए गाजे बाजे के साथ यहाँ आते हैं।सुल्तानिया ही वह गांव है जहां मवेशी पालक,दुग्ध विक्रेता और ढोर मवेशियों को बेचने वाले यायावर व्यापारी डेरा डालते थे , नवरात्र में अरनिया, पठारिया, रोजड़ कला, पाड़ल्या से चुनरी यात्रा लेकर लगभग 60 किलोमीटर की पदयात्रा कर श्रद्धालु यहाँ भारीमात्रा में आते हैं। कश्मीर से पीढ़ियों पहले यहाँ आकर बसे श्री गौड़ ब्राह्मण परिवार के पंडित श्याम सुंदर पाठक जो यहां पीढ़ियों से पंडिताई का कार्य करते हैं हमें ग़र्भगृह में ही पूजा करते मिल गए थे उन्होंने बताया कि यहाँ आने वाले श्रद्धालु 51 से 21 लीटर तक गाय का कच्चा दूध लेकर आते हैं और माई का दुग्धाभिषेक करते हैं। रक्ताम्बरा पीठ होने के कारण माई को पाड़े की रक्त की धारा भी लगती है। पं. प्रभुलाल जी पाठक और पं मनोहर लालजी पाठक के बाद चौथी पीढ़ी के पंडित श्याम सुन्दर पाठक मंदिर में पूजानुष्ठान संपन्न कराते हैं,उन्हीं से ज्ञात हुआ कि मालवा में बीजासन माता की घड़त में नौ देवियाँ विराजमान रहती हैं। शादी ब्याह में बहू को पल्ले में कपड़े गहने के साथ बीजासन की घड़त लच्छे में पिरोकर रखने की रीत भी निभाई जाती है। बैसाख और माघ के महीने में यह विशेष आयोजन किया जाता है। यह यंत्रात्मक पूजा है जिसमें सोना, चांदी, ताम्बा और भोजपत्र गले में धारण किया जाता है। लोकास्था में दीवार पर 9 घृत मात्रिकाएँ और सिन्दूर की सात बुंदकियों वाली सप्त मात्रिकाएँ मांडी जाती हैं। नौ टिपकियों के ऊपर पुतरिया बनाई जाती है जो बीजासन देवी का स्वरुप होती हैं । इनकी पूजा में सवा गज लाल कपड़े पर पान के ऊपर 9 हल्दी की गांठें, 9 सुपारी, 9 इलायची, 9 डोंडा, 9 मखाने, 9 दाख, 9 गोला, 9 चिरोंजी और 9 लौंग रखी जाती हैं। हलुआ, भिंजा हुआ चना, गेहूं, और लपसी चढ़ाकर नौ सुहागिनें जिमाई जाती हैं। पाठक जी के अनुसार रक्त बीज का वध करने वाली माता दुर्गा की सात महाशक्तियों सहित काली का प्रतिकात्मक पूजन यहां बीजसेनी यन्त्र से किया जाता है। तंत्रवाद में दुर्गा का एक नाम वज्रासनी और वज्रडाकिनी भी मिलता है जो बौद्धों की देवी वज्रवाराही से साम्यता दर्शाता है। तंत्र पूजा बौद्ध धर्म में भी उतनी ही दृढ़ता से दिखाई देती है जिंतनी कि हमारे धर्म में।बाहर निकले तो ज्ञात हुआ कि मंदिर के आस-पास गोसाईं समाज की समाधियाँ बनी हुई हैं। पहले यह घनी वन सम्पदा से घिरा एकांकित साधना स्थल था जहाँ गुग्गली, खांखरे, रायड़ा (खिरनी), इमली, कबीट, बिल्ले के पेड़ और सीताफल की झाड़ियाँ बहुतायत में थीं,ऐसे में तपस्वियों ने यहांगुप्त साधनाएं कीं। हनुमान तालाब के निकट वट वृक्ष के नीचे जहाँ देवनारायण जी का विशलित मंदिर है वहां तक जंगल ही जंगल था हिंसक पशुओं की उपस्थिति के कारण यहां आने वाले गिनेचुने ही हुआ करते थे । हनुमानजी के मंदिर के पास चौंसठ योगनियों का एक चबूतरा था हम मार्ग के तालाब को लांघकर वहां भी पहुंचे । खानेपीने की छुटपुट दुकानों में भाषायी अंतर ने हमें पुनः अचकचा दिया था पूछा तो बताया गया कि कलाली गाँव में उमठवाड़ी का प्रचलन है जबकि भैंसवा में राजवाड़ी मालवी बोली जाती है नारायण पंडा जी जो हमारे साथ-साथ यहां तक आ गए थे वे बताने लगे ऐसा इसलिए क्योंकि बहुत समय तक भैंसवा राजगढ़ और देवास रियासतों के आधिपत्य में रहा जबकि कलाली गाँव नरसिंहगढ़ रियासत का अंग रहा । वर्तमान में दोनों गाँवों में साढ़े तीन सौ परिवार ऐसे हैं जो भैंसवा माता के पुजारी कहलाते हैं और भिलाला-धाकड़ समाज से आते हैं। पंडा जी की सतत ज्ञानवर्षा हमें लाभान्वित किये जा रही थी , पंडित पाठक भी अपने अनुभवों को साझा करने ने कोई कोर कसर बाकी नहीं रखना चाहते थे। लौटने को हुए तो कलाली के पार्श्व में प्राचीन समाधियों की विध्यमानता के कारण पाँव जम से गए थे । हम भागे भागे टीले पर चढ़ गए पर्यवलोकन किया तंत्र साधना करने वाले साधकों की समाधियाँ रखरखाव के अभाव में टूटफूट रहीं थीं । कलाली से मदिरा लेकर माईं को सेवन कराने वाले अपने उपक्रम में व्यस्त आस्था में डूबते उतराते मंदिर की ओर बढ़ते दिख रहे थे , साँझ का मद्धिम प्रकाश हमें भी लौटने के लिए उकसाने लगा था ,पीढ़ियों से हस्तांतरित होती प्रथाओं और रूढ़ियों ने आज बहुत कुछ ऐसा दिखा दिया था जो बहुधा हम देख ही नहीं पाते।किवदंतियां उनमें लुका हुआ अर्धसत्य ,और उसका ओर छोर संभाले भोलेभाले ग्रामवासी ,अब स्मृतियों को बहुत दिनों तक हिलराते दुलराते रहेंगे।
मालवा की कुंवारी कन्याओं की लोकमाता संजा माता, श्राद्धपक्ष में भादौ मास की पूर्णिमा से लेकर क्वांर मास की सर्वपित्त अमावस्या तक १६ दिन लोकोत्सव
लौटे तो आँखें सहसा गोबर से लिपी भीतों पर टिक गई थीं। मालवा की कुंवारी कन्याओं की लोकमाता संजा माता हर जगह विधमान थीं। गाँव-देहातों की गोबर लिपि भीतों पर संजा माता का किलाकोट मंडा था। इस लोकाकंन ने हमें वहीं रोक लिया। कुंवारी कन्याओं का सहज स्वाभाविक देहाती भोलापन मन को अंतरतम तक स्पर्श कर रहा था। हमारे साथ यात्रा कर रहे लोकविद वंशीधर बंधु जी ने हमें बताया कि संध्या शब्द का अपभ्रंश संजा है , श्राद्धपक्ष में भादौ मास की पूर्णिमा से लेकर क्वांर मास की सर्वपित्त अमावस्या तक 16 दिन लोकोत्सव के रूप में पूरे मालवांचल में मनाये जाने वाले इस लोकोनुष्ठान के अंतिम दिन किलाकोट बनाया जा रहा था ।
सुकुमारियों का 16 दिन का लोकपर्व संजा, गोबर लिपी भीतों पर संजा माता का किला कोट
पांच पांचे, चाँद ,पांच कटोरे, छाबड़ी, सात भाई, आठ पाँखुड़ी का फूल, नगाड़ा, नौ ढोकरियाँ, दीपक, बैलगाड़ी तथा बंदनबार, जमाई की पाती लेकर आई चिड़िया, घोड़े पर बैठे जमाई पूरी गिरस्ती, सुकुमारियों द्वारा दीवार पर मांडी जा रही थी। पूरे 16 दिन जो जो बनाया जाता रहा था आज अंतिम दिन किलाकोट में वह सब बनाया गया था। इसके बाद संजा को खमाने (सिराने) की रीत निभाई जानी थी । नानी नानी बेना हिल मिल संजाबाई ने मनावा जी घर आँगन ने लिपी पुती को संजा भीत बनावा जी, मालवा री रीत भली है, गीत ख़ुशी के गांवा जी। हमारे सहयात्री बंधु जी जो स्वयं लोकपर्वों पर पुस्तक लोकछंद लिख चुके हैं बताने लगे वस्तुतः इस लोकपर्व के माध्यम से ग्राम्य कन्याएँ मनोविनोद के साथ-साथ गृहस्थ जीवन के दायित्वों और नातेदारी का पाठ पढ़ती हैं। देश के हृदय की धड़कन मालवा की आस्तिक उत्सवधर्मी धरा के लिए जिस लोकोक्ति का अमूमन प्रयोग होता है सारवार ने नौ तैवार (अर्थात सप्ताह के सात दिन भी तीज त्यौहार के आनंदोत्सव के लिए अपर्याप्त हैं) के यहां साक्षेप दर्शन हो रहे थे। अंचल विशेष में संजा माता का लोकपर्व सामुदायिकता, सहभागिता का ही सन्देश नहीं दे रहा था, वरन् श्राद्धपक्ष में पंचमी को पांच कुंवारे मांडकर अपरिचित अविवाहित मृतात्माओं स्मरण करने , नवमी को डोकरा डोकरी उकेर कर बड़े बुजुर्गों को आदरांजलि देने , त्रयोदशी अथवा चौदस को घायल बनाकर अधगति में शांत हुए कुटुम्बियों का सम्मान करने और फिर दुपकारने की परंपरा का निर्वहन करने की सीख भी दे रहा था। संस्कारित लोक संस्कृति की चिरशाश्वतता का पीढ़ियों से हस्तांतरण और संरक्षण मन को छू गया था । संजा का नाम लेकर अपनी सखियों के नाम को आगे बढ़ाने की परिपाटी, पीहर में सुखद परिवेश की अभीप्सा, भाई बहन की परस्पर पूरकता, माता पिता के स्नेहातिक लालन पालन के प्रति धन्यता प्रकट करते लोकगीतों की अजस्त्र धारा, घर-घर जाकर गोधूलि बेला से पूर्व कलात्मक संजा बना लेने की होड़, आरती के उपरान्त ककड़ी-भुट्टे चिरौंजी वाली प्रसादी के वितरण से पहले बुद्धि का परीक्षण और लोकानुरंजन के साथ-साथ लोक मंगल की कामना , विचारों, मूल्यों, विश्वासों, भावनाओं के आदान-प्रदान की यह सहजाभिव्यक्ति मन को लुभा रही थी। छाबड़ी, बिजोरा, घेवर, कुंवारा कुंवारी, चौपड़, सात्या, सप्तऋषि, आठ पंखुड़ी का फूल, डोकरा-डोकरी, पंखा, लोकाभूषण, बैलगाड़ी, सोने जैसे दिन व चांदी जैसी रातों की परिकल्पना, केल और खजूर का पेड़, चिड़ियाएँ, मोर, सुखद घर गिररस्ती का संवार्ग पूर्ण आकल्पन गौरैया, बन्दर, कमल का फूल, सीढ़ी, किराना की दुकान, छाछ ,बिलोनी, छन्नी, बिजना, मथनी, पहरेदार, गुर्जरिन, भुट्टे और झाड़ू की सींक से बना ढोलक वाला, बुहारने वाला और ‘गंज गीत’ (बहुत सारे गीत) सुघड़ हाथों से रचित कुंवारी कन्याओं के किल्लाकोट में क्या नहीं था। अब चूँकि अमावस्या के दिन लड़की की विदाई नहीं की जाती। इस लोकविश्वास का अनुसरण कर ये लड़कियाँ एक दिन के अंतराल से संजा को सिराती हैं। विसर्जन के समय प्रायः संजा की विदाई के गीत गाती हैं। बालिकाएं गीत गा रही थीं और हम मगन होकर सुन रहे थे। संजाबाई का पीहर कहीं सांगानेर में था तो कहीं सागर में। अपनी सीमित परिधि में लोक ने जो ग्राह्य किया बस उसे उसी रूप में हस्तांतरित कर दिया था। संजा बाई को पीहर सांगानेर परण पधार्या गढ़ अजमेर रामधारी चाकरी गुलाम थारो देश छोड़ो म्हारी चाकरी पधारो बांका देस। हम लोकविद वंशीधर बंधु जी के साथ वहीं बैठ गए और संजागीतों को कलमबद्ध करने लगे।
संजाबाई संजाबाई थारी सासू कैसी / हाथ में लाठी बुड्ढी जैसी / संजाबाई संजाबाई थारो ससुरो कैसो / स्कूल में बैठे मास्साब जैसो / संजाबाई संजाबाई थारी जिठानी कैसी / माथे पर टोपली मालन जैसी /संजाबाई संजाबाई थारो देवर कैसो / घर में काम करे नौकर जैसो / संजा बाई संजा बाई थारो पति कैसो / कुर्सी में बैठे कलेक्टर जैसो इस गीत में भी परिस्थितिजन्य परिवर्तन हुए हैं कलेक्टर साहब की प्रविष्टि थानेदार के स्थान पर होना और ससुर के मास्साब जैसे होने की संकल्पना भी नई थी । उपहास और हँसी ठिठोली के बीच पतिदेव की मान मर्यादा का विशेष ध्यान रखते हुए पतिदेव कलेक्टर के रूप में कल्पित किये गए थे। एक और गीत में संजा तू बड़े बाप की बेटी / तू खावे खाजा रोटी / तू पैरे माणक मोती / रजवाड़ी चाल चले / गुजराती बोली बोले सुनकर संजा की अभिजात्य और धनाढ्यता की भावाव्यक्ति केहमें संकेत मिले थे । बालिकाओं की स्वभावगत सरलता और स्वछंदता की मिठास से पगे संजा के गीतों में ससुराल पक्ष को लेकर भी तंज कसे जा रहे थे। संजाबाई के सासरे जावंगा / खाटो रोटी खावांगा / संजा की सासू घाटी चढ़ता सुकड़ ली / असी दुआदारी के काम कराऊँगा धमका के / मैं बैठूँगा गाड़ी पे उसे बिठाऊँगी खूँटी पे / संजा का तन फूलों जैसा / भाई-भावज के प्रति संजा के हृदय में अपार स्नेह दिख रहा था म्हारा चाँद सूरज वीरो आयो/ मोटर पे बैठी भाभी भाभी की गोद में कूको / कूको का भाये टोपो टोपा में हीरा मोती,इस गीत में बैलगाड़ी का स्थान मोटर ले चुकी थी। बंधु जी ने इस बात पर ध्यान दिलाया कि आवश्यकतानुसार ग्राम्य सुदृढ़ व्यवस्था के अपरिहार्य स्तम्भ रहे भिश्ती, चौकीदार, खोड्या बामण, पालकी ले जाने वाले कहार, डाकिया, जाड़ी जसोदा, पतली पेमा, तगाड़े की जाड़े (धौंसा), धौसियाँ, सप्तऋषि मण्डल, मालिन, हाथी महावत, घोड़े, निसरनी, चांदी के फूल, रथ, जनेऊ, ढाल और तलवार, पानी की पण्डेरी, संजा लोकचित्रांकनों का कभी महत्वपूर्ण भाग रहे पर आज दिखाई नहीं देते । समय का परिवर्तन संजा माता की चितेरियों को भी प्रभावित कर रहा है। पारिवारिक जीवन से जुड़े बिम्ब संजा के अंकन में प्राथमिकता के साथ अवतरित हुए थे। पारम्परिक सहभागिता वाली साझी ग्राम्य संस्कृति के भी प्रतिमान भी गानों में विध्यमान थे जैसे हरा गोबर घोसी के घर मिलता है, लाल फुलड़ा माली के पास से सुलभ हो जाता है। बैलों को सजाने के काम आने वाली चलक (चमकीली पन्नी), आंकड़े का फूल, मोगरा, धतूरा, गुलतेवड़ी के फूल यहाँ वहां से जुटा लिए जाते हैं । बजाज के घर से लुगड़ा कांचली मिल जाती है । गन्धी के घर से कुंकुं की व्यवस्था कर ली जाती है। यह सामाजिक ताना बाना लोकजीवन में व्यावहारिक शालीनता घोलता है। जिन लड़कियों का ब्याह हो चुका था वे टोकनियों में गेहूँ और श्रृंगार का सामान और खुल्ले पैसे लेकर 16 कुंवारी लड़कियों को सौंपकर उजवानी कर चुकी थीं । कलियों से झूम रही मेहँदी से लूम रही, मस्त गगन में आज मेरी संजा, दुनिया की नजर में यह नयी रचना भी कानों में पड़ी। मोबाइल संस्कृति के प्रभाव से संजा की भक्तिपरक लोकसंस्कृति का बचे रह पाना हमें आश्चर्यचकित कर रहा था। बंधु जी बताने लगे संजा लोकानुष्ठान माता गौरी की महादेव को वरने के लिए की गयी तपश्चर्या की प्रतीकात्मकता लिए अखंड सौभाग्य और मंगलप्रद गृहस्थ जीवन की कामनाओं का पर्व है, अनिष्ट निवारणार्थ शाक्तोपासना का इससे उपयुक्त कोई लोकाचार नहीं हो सकता। आगर मालवा जिले के महुड़िया, नरवल, देहरीपाल, गुराड़िया और राजगढ़ जिले के संडावता, पाटन और शंकरपुरा गांवों में संजा माता को पूजती लोकचितेरी कन्याएँ अच्छा घर और अच्छा वर पाने की अकूत अभिलाषा लिए गोबर से ऐसा संसार सिरजती दिखीं जो वर्णनातीत है। संजा के आत्मिक लगाव का कारण मात्र एक था ननिहाल-ददिहाल और मां ने संजा माँ के रूप में लोकधर्म की जो डोर थमा दी है बस उसको थामे रखना है। भादौ मास की पूर्णिमा से क्वार मास की सर्वपितृ अमावस्या तक पूरे सोलह दिन खेल खेल में पार्वती मैया के जैसे शिव को वरने की अभिलाषा लिए मनाया जाने वाला संजा लोकपर्व बंधू जी के अनुसार ससुराल में संजा को दी गयी यातनाओं के फ़लस्वरुप उसके आत्मदाह कर लेने और मृत्योपरांत संजा की आकृति अगले दिन दीवार पर उभर आने के कारण गृहस्थाश्रम में प्रवेश से पूर्व अनिष्ट निवारण के लिए यह व्रतानुष्ठान किया जाता है। नानी से गाड़ी रडकती जाए / जामे बैठी संजा माई, संजा सासरे जाए / घाघरो चमकाती जाये चूड़लो खनकाती जाये / बिछिया बजाती जाये बईजी की नथनी झोला खाये / रोती जाये गाती जाये संजा बई जी सासरे जाये पंक्तियों को सुनकर पूरा लोक आँख के सामने तिर जाता है। खीर पूरी के साथ संजा को विदा करने के पश्चात् मालवा जनपद की बालिकाएँ गोट की तैयारी में व्यस्त हो जाएँगी । साँझ ढल चुकी थी मालवई अपनापन लिए लोक में रमते रमाते हम भोपाल लौट आये।
विशेष सहयोग :
नलखेड़ा- करण सिंह, किसन, रामदयाल, विजय
करेड़ी- अर्चना, जमनाबाई, रौशनी, किरण, अंजुल, तनु, आरती और सविता
महुड़िया- निकिता, चेतना, वर्षा यादव, गज्जी यादव, संध्या, निशा, ज्योति, निर्जला यादव, जया, वंशिका, देविका, गायत्री, नीलम, मोनिका, कुमकुम, संध्या, माया, काजल, सना यादव
देहरीपाल- रानी और मनीषा
संडावता- विद्याबाई, कोयलबाई और श्यामाबाई और कृष्णाबाई
नरवल- पूजा, अंशिका, श्वेता और वर्षा
शंकरपुर- विष्णु और आरती
बहुत ही सुंदर विवरण और फोटोग्राफी?
दिशा तुम्हारी मेहनत से हमे भी काफी रोचक जनकारियां मिलती हैं।????
बढिया रिपोर्ट।कपिल जी का भाषण अद्भुत।वे हमारे
समय के लोक और शास्त्र के बड़े चिन्तकों मे से एक हैं।उनको सुनना हमारे लोक और शास्त्र की नई व्याख्या सुनना है।
बहुत ही अच्छा ,भाषा आपकी बहुत ही अच्छी और जानकारियाँ अद्भुत हैं बहुत सी बांते तो हमें भी नहीं ज्ञात थीं
सुप्रभात दीदी?आपकी कलम को नमन बहुत सुंदर ब्लॉग लिखा है। वर्णित सारे चित्र सजीव हो उठे हैं ।
शानदार कवरेज़ है,धन्यवाद आपका ?
Good collection.
अतिi उत्तम
Good work mam for three lok devi ??????????
बहुत सुंदर वर्णन किया आप ने इस के माध्य्म से आगे की ओर जानकारी मिलती रहे
यही अभिलाषा है
जय माँ बगुलामुखी
जय महाकाल??
आपका बहुत अच्छा लगा मैडम
मैं नलखेड़ा वाली माता जी से पहले ही बहुत अभीभूत हूँ आपके आलेख ने मुझे बहुत प्रभावित किया है
दीदी अति सुन्दर वर्णन
बहुत सुंदर दीदी आपकी कलम को नमन है जय माता दी
Good morning, I have completed the lecture of kapil Ji. Excellent. Pl. Cover as much as photographs from all over the madhya pradesh and also tourist destination of your area. You are working for future. Cunningham surveyed like this before hundred years back. Now you are on the same line. Congratulations. Malwa area having good research material. Needs only researchers. Wakankar also doing such survey by foot. H v trivedi of also cover limited field . Please go ahead in your social study which will cover all field. I am behind your research and you are free to contact me at every stage of academic field. Once again jai chhathi maiya. Thanks.
हमको तो आपका काम एक नंबर का लगा बहुत बढ़िया
दृश्य बहुत अच्छे हैं। उज्जैन, राजगढ़ और शाजापुर की पुरानी यादें ताजा हो गईं।
मेङम जी आप ने जो हमारी माँ महाकाली करेङी वाली के बारे मे जानकारी दी उसके लिए आप को साधुवाद बहूत बधाई हो पहली बार शोध करके लिखा गया है करेड़ी के बारे में बहुत ही बढ़िया
अच्छी प्रस्तुति है…… सम्पूर्ण वृत में इतिहास के साथ धार्मिक, आध्यात्मिक एवं लोक-मान्यताओ को उजागर करने में स्थानीय लोगों की मान्यताओ को पुस्तकीय तत्त्व से क्षेत्र की प्राचीनता और सामाजिक अवधारणा का सुन्दर चित्रण है।
क्षेत्र की तीन देवियों की लोकास्था-लोक विश्वास की त्रिकोण यात्रा का विशेष अध्याय प्रस्तुत किया है।
चरैवेति चरैवेति…….? मंगलकामनाएं
आपकी यात्रा डायरी गांव,नगर,नदी,खेत -खलिहान , प्रकृति न सिर्फ क्षेत्र के भौगोलिक परिदृश्य से रूबरू कराती है।बल्कि क्षेत्र की पुरातात्विक, ऐतिहासिक,धर्मिक,सामाजिक ,सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अवधारणाओं की समृद्धि से भी साक्षात्कार करवाती है। इसकी पुष्टि डायरी की सजीव दृष्यवली,अद्भुत मूर्तिशिल्प, वर्णित परंपराएं, लोकाचरण से भरापुरा सहचर देव लोक, डॉ कपिल तिवारी ,डॉ केदार नाथ शुक्ल जी, डॉ प्रतिभा दत्त चतुर्वेदी जी, डॉ ओ.पी. शर्मा, डॉ रमन सोलंकी जी, डॉ प्रशांत पौराणिक जी आदि विद्वानों के महत्वपूर्ण सारगर्भित साक्षात्कारों और श्री मनोहरलाल पंदाजी,श्री रामचन्द्र गायरी, पंडित श्री महेश नगर,श्री राजेश दीक्षित आदि की अभिभूत कर देने वाली महत्वपूर्ण जानकारियों से होती है।
मालवा की मिठास घोलती मालवी के रसासिक्त संजा के लोकगीत,भोपी कृष्णा बई की संगत में भोपा भोलाराम की सारंगी के तारों से निसर्ग मनमोहक ध्वनि पर थिरकती लोक धुन से आबद्ध देवनारायण की फड़ गायकी, क्षेत्र को विशेष पहचान देती है ।
इस महत्वपूर्ण,सारगर्भित यात्रा डायरी के लिए बहुत बहुत बधाई।
बहुत ही अच्छा कवरेज मैडम बधाइयां??
दिशा बहुत ही अच्छा व्लॉग। हर बार की तरह सहज सरल भाषा का प्रयोग । गांव में बहुत सारे देवी देवता की पूजा की प्रथा और नाम पढ़कर बहुत सारी जानकारियां मिली। तुम इसी तरह घूमती रहो और सारा यात्रा वृतांत इसी प्रकार लिखो हमें पढ़ते हुए बहुत अच्छा लगता है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे हम साक्षात उस गांव में ही घूम रहे हैं।
चरैवेति चरैवेति
मध्यप्रदेश में लोक संस्कृति पर जनकार्य करने हेतु प्रख्यात श्रीमती दिशा अविनाश शर्मा ने मालवा की करेड़ी माता, बगलामुखी, भैसवामाता सहित यहाँ के लोक के हृदय में बसे भैरव, शीतला, छींक, खोखुल, मोतीझरा, बैमाता, सहित लोकदेवता देवनारायण पर जो ब्लॉग बनाया है वह जमीनी तौर पर एक अमूल्य धरोहर है जो किसी भी एतद्विषयक शोध से कमतर नहीं है। उन्होंने स्थान विशेष पर जाकर वहाँ के पर्यावरण, ग्रामीण, परिवेश को गहरे से छुआ है। मध्यप्रदेश के लोक पर अभी तक जितना भी प्रकाशित हुआ है उसमें सोने में सुहागा वाली कहावत इस ब्लॉग में चरितार्थ होती है। प्रख्यात विद्वान कपिल तिवारी, केदारनाथ शुक्ल के वैदुष्यपूर्ण साक्षात्कार इस ब्लॉग को चार चाँद लगाते हैं। नलखेड़ा का वाममार्गी अवधारणा का देवीस्थल तथा लोक में शक्ति की अंगीकार वाली अवधारणा का क्रमिक विकास इस ब्लॉग का वैशिष्ट्य है। अनेक लोक विद्वानों, तांत्रिकों के मत ब्लॉग को पुष्टता प्रदान करते हैं। अनेक सुन्दर चित्रों से संयोजित इस ब्लॉग को पढ़कर सहज ही एक अनुपम ग्रन्थ की रचना की जा सकती है। यह दिशा जी की अथक मेहनत का फल है कि वे अकेली ही इस यात्रा में चरैवेति मंत्र को जीवंत कर रही हैं।
बहुत अच़्छा। आधार डॉ. कपिल तिवारी ने आगम से ही लिया है। लोक उससे भी परे है।
लोकास्था – लोकविश्वास मातृशक्ति धाम की त्रिकोण यात्रा
का आपने जो लालित्यपूर्ण शैली
में वर्णन किया है । वह अद्भुत है
ऐसा लगा जैसे ललित निबंध पड़
(सुन)रहें हों ।।
बहुत सुंदर यात्रा संस्मरण ।
विद्वान अतिथि महोदय ने कितना
सहज व्याख्यायित किया गूढ़
तत्वों को । वाह वाह ।।
???????
आपका नया ब्लाग पढ़ कर अति प्रसन्नता हुई और जिज्ञासा और बढती जा रही है साथ ही ये सवाल भी उठ रहाँ है कि कितना बडा केन्द्र किसी समय में रहा होगा ये स्थान वामपंथी तपस्या और तांत्रिक साधना का जिसके जीवंत प्रमाण आपके शोध में बहुत ही साफ देखा जा सकता है शायद इतना बड़ा केन्द्र पूरे अखण्ड भारत में नहीं होगा पर वो कैसे धीरे-धीरे समाप्त हो गया ये भी बहुत घना रहस्य है जो आपने चौंसठ योगीनी मंदिर के अवशेष, व भैरव के अवशेष आप ने खोजे है वो भी आज के समय में बहुत ही सराहनीय प्रयास है मुझे लगता है कि यदि सरकार इसे चाहे तो आज ये भारत का पुरी दुनिया के लिए एक बहुत ही बड़ा पर्यटन स्थल बन सकता है और देश व दुनिया के लिए ज्ञान विज्ञान को समझने मे भी सहायक होगा और भारत के गौरवशाली इतिहास को बताने मे भी सहायक होगा ।
बहुत ही सुंदर लेखनी है और आपके द्वारा हमें मां बगलामुखी मंदिर के दर्शन हुए इस बात के लिए बहुत आभारी है अगली लेखनी का इंतजार रहेगा ??
बहुत ही सुंदर लेखनी है बगुलामुखी जय महाकाल ?
हमने आपके पांचो ब्लाग पढ लिऐ है ।पढकर अच्छा लगा सबसे पहले दो बातो के लिऐ साधुवाद देना चाहुंगा ,पहला यह की आपने ज्यादातर शुद्व हिन्दी शब्दो को धाराप्रवाह प्रयोग किया है ।जो आपकी विदुता को दर्शाता है ।यह अच्छी बात है ।कि आप हिन्दी को अपने मुल स्वरूप में बहने देती है ।
दुसरा यह है कि आपने फोटोग्राफ़ी उत्तम कोटि की है ।जिस भी छवि चित्र को देखते मन को भा सा जाता है ।सारे ब्लागो को पढकर ही आपके लेखन को थोडा बहुत जाना जा सकता है ।सब कुछ ठीक ठाक है ।हमारी शूभकामनाऐ आपके लेखन को।
Disha mam ..आप मालवा की अन्जानी और छुपी हुई कला,संस्कृति ,और आस्था से सबको परिचित करवा रही हैं, हम मालवा वाले हृदय से आपका आभार एवं धन्यवाद प्रकट करते हैं ।????आपके ब्लोग पढ़ कर लगता हे हम आपके साथ घूम रहे हैं ?????????
अद्भुत संग्रहण
बहुत महत्वपूर्ण जानकारी है दिशा जी, कई दिनो बाद यौगनियों के बारे में सार्थक व उपयोगी सूचनाएं मिली.
दिशा जी, योगिनी शिल्प पर मैं एक पुस्तक लिख रही हुं इस बारे आपसे बात करूंगी ???
अच्छा वृत्तांत है।इसमें वर्णित अनेक देवी-देवता भील जनजाति समूह के लोगों की आस्था के केन्द्र भी हैं।डॉ. कपिल तिवारी जी ने बहुत गहराई से सृष्टि और देवलोक की अवधारणा को स्पष्ट किया है।
इसमें मैं केवल इतना जोड़ना चाहता हूँ कि शास्त्रों की रचना लोक मान्यताओं के अवलोकन और विवेचन के आधार पर हुई होगी,क्योंकि लोक मान्यताएँ मानव-सभ्यता के आरंभिक विकास के साथ ही धीरे-धीरे स्थापित होती चली गयी हैं।ये परंपरा के रूप में आगे बढ़ी हैं।शास्त्र इन्हीं मान्यताओं के परिष्कृत रूप हैं।यह भी कहा जा सकता है कि शास्त्र एक प्रकार से लोक मान्यताओं का कोडिफ़िकेशन हैं।यह काम चिंतक,अध्ययनशील और अन्वेषक ऋषियों ने किया है,जो बहुत बाद की स्थिति है।इसलिये यह सोचना एक बड़ी भूल होगी कि क्या वैदिक,शास्त्रीय, पौराणिक आदि देवी-देवता कम पड़ गये थे,जो लोक ने एक बड़े देवलोक की रचना कर ली? कपिल जी ने सही कहा है कि लोक आस्था के मूल केन्द्रबिंदु भी शिवशक्ति हैं।इसी से हम अनुमान लगा सकते हैं कि लोक-आस्था और मान्यताएँ शास्त्रीय ज्ञान-परंपरा की अनुगामिनी नहीं हैं।
आपका यह वृत्तांत और कपिलजी की बातचीत अत्यंत ज्ञानवर्द्धक है।आपकी जिज्ञासा,अन्वेषणशीलता और परिश्रम को प्रणाम!
शुभकामनाएँ!
बहुत सुन्दर आलेख
बहुत ही शानदार प्रस्तुति आपके साथ मां भेंसवा महारानी की व्याख्या रोमांचित करनेवाली यात्रा रही बहुत साधुवाद