हरियाणा के सोनीपत जिले के कथूरा गांव के कृष्णालाल जी को यह कला पीढ़ियों से विरासत में मिली है। उनके गुरू पं. टेकचन्द्र जी, पं. मांगेराम जी शिष्य थे। और पं. मांगेराम जी ने हरियाणा के सूर्य कवि लखमीचन्द जी से दीक्षा ली जो सोनीपत जिले के जांटी गांव के ही थे। लखीमचन्द्र को लोककवि मानसिंह का सानिध्य मिला। और इस प्रकार सबरस वाली नक़ल स्वांग लोकनाट्य कला कृष्णलाल जी की धरोहर बन गई उन्होंने लखीमचंद्र की परनाड़ी वाली स्वांग की विशुद्ध परंपरा को यथावत रखा। कृष्णालाल जी ने 6 राग और 30 रागिनियों के साथ बैरहे कबीर, नसीरा और झूमरा का सम्मिश्रण कर स्वांग में नये तत्वों का भी समावेश किया। जिसे कृष्णलाल छाप की प्रतिष्ठिा मिली। शासकीय नौकरी त्याग कर अग्रणी स्वांगकारों की श्रेणी में सम्मिलित हो चुके श्री कृष्णलाल मिरासी जाति से संबंद्ध हैं जो कभी राजस्थान के रजवाड़ों और सामंतों के यशोगान गाने के लिए जानी जाती रही गीत संगीत उनके रक्त में रचा-बसा है इसीलिए वे अभिनय करते हुए उसी पात्र में तन्मय हो जाते हैं। साहब सिंह राजाभोज, शरणदेय, नलदमयंती, भूप, पुंरजय, पदमावत कथा हों या भृतहरि व पिंगला का कथानक या हो ताराचन्द्र सेठ, चन्द्रहास की विषयवस्तु गोपीचन्द्र बरकरी हों, या फिर राजा हरिश्चन्द्र, पूरणमल, सत्यवान सावित्री, कृष्णजन्म, खाण्डेराव, राजपूत चापसिंह, उत्तानपाद जैसी कथावस्तु उनके दल की चर्चित स्वांग कृतियाँ रही हैं। डोली स्वांग का प्राणतत्व है। उस कला के सिद्धहस्त लोग शैलीगत भिन्नता लिए स्वांग की डोलियों को गेरने की कला से ही उस क्षेत्र विशेष की अनुमान लगा लेते है। रोहतक, करनाल, पानीपत, सोनीपत, गुड़गांव दादरी इत्यादि क्षेत्र स्वांग के गढ़ हैं और जहां भाषा में (तुकबंदी) काफिया मिलाने की कला और छंदों की चाल और नाद की सुन्दरता पर आधारित स्वांगों के सर्जक और रसिक बहुतायत में पाये जाते हैं।
किन्हीं-किन्हीं संवादों पर दर्शकों की ओर से बेल दी जाती है और पुनरावृत्ति के लिए उसका मन उमगता भी है। उन्होंने अपने बेटों विकास और संदीप को भी स्वांग की बारिकियों में दीक्षित किया है। श्री कृष्णलाल के अनुसार स्वांग तो सबरंगी है। हरियाणवी लोकनृत्यों धमाल, घूमर और डांक मारने (छलांग की कला) को अंगीकार करते स्वाँगकार दर्शकों से अपनी कला दक्षता के चलते आत्मीय संबंध स्थापित कर लेता है। यहां तक कि दर्शक नर्तक द्वारा मारी गयी डांकों को उंगलियों के पोरों पर गिनने लगता है। हरियाणवी पगड़ी खण्डका धोती-कमरी पहने श्री कृष्णलाल बताते हैं कि स्वांग में महिला पात्रों की भूमिकाएं पुरूषों द्वारा निभाने का प्रचलन है। पहले कभी मुरदारशंख पोतकर सिरपर काला कपड़ा बांधकर मंचपर आने वाले कलाकार वर्तमान में स्वांग भरने से पहले मेकअप कर लेते हैं। यद्यपि स्वांग में पुरूष महिलाओं की भांति सूट इत्यादि डालते तो हैं पर बाल लम्बे रखने का जतन नहीं करते। कृष्णलाल बताते है पहले रात्रिकालीन स्वांगों में हरियाणवी घाघरा कमीज ओढ़ना पहनने का चलन हुआ करता था पर अब गांवों की वेशभूषा ने स्वांगियों को भी बदलते मूल्यों पर चलने को विवश कर दिया है। सत्यतः हरियाणवी लोक नाट्य स्वांग शैली अंचल विशेष के जन-जीवन, हंसी ठिठोली में समाहित जिजीविषा और लोक विद्याओं की भाव समृद्धि का दर्शन कराती है। अनेक राज्यों सहित कश्मीर में तैनात जाट बटालियन के सैनिकों के लिए आयोजित कार्यक्रमों में हरियाणा की स्वांग परंपरा के श्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए कृष्णलाल जी को सराहना मिलती रही है।
इन दिनों कृष्णलाल जी युवाउत्सवों के लिए पानीपत के महाविद्यालयीन छात्रों को हरियाणवी लोक नृत्य और स्वांग की शिक्षा दे रहे है। वैसे भी वे समय-समय पर युवाओं को स्वांग विद्या और फाग, घूमर, घोड़ी नृत्य सिखाते रहते हैं। उनकी अभिलाषा है कि स्वांग के जो प्रतिष्ठापित मूल्य उन्हें उनके पूर्वजों को सौंपे है उनहें वे पूर्णनिष्ठा के साथ ज्यों का त्यों लोकमानस तक पहुंचाते रहें श्री कृष्णलाल और उनकी मण्डली की जितनी प्रशंसा की जाये वह कम ही होगी।
आपकी बहुत मेहरबानी आपने हम कलाकारों को इतना मान दिया
कृष्णलाल
आपने बहुत सुन्दर लिखा है लोककलाओं को आपके जैसे समीक्षक की ज़रूरत है कला क्षेत्र में अच्छे समीक्षक सीमित रह गये हैं आपके लेखन से हम कलाकारों को स्वयं को माँजने के लिए मार्गदर्शन मिलता है बहुत धन्यवाद
प्रतिभा
लोकविधाओं के लिए आपका यह प्रयास बहुत अच्छा है
ज्ञानसिंह शाक्य