ग्राम विहार : राजा विक्रमादित्य के पिता गन्धर्वसेन की गन्धर्वपुरी, तालोद का सूरजकुण्ड विक्रमादित्य का षष्ठी पूजन स्थल

गंधर्वपुरी के राजा जी मंदिर 11 वीं सदी के उत्तरार्ध और 12वीं सदी के पूर्वार्द्ध का परमार कालीन, भूमिज स्थापत्यकला, उत्तराभिमुखी शिवलिंग

अमावस्या के दिन गंधर्वपुरी के इस शिवालय में  विशेष पूजन की व्यवस्था रहती है। यहीं समस्त आत्माओं के ईश्वर महेश्वर लिंगरूप में विराजे हैं। शिव शाब्दिक रूप से ही कल्याणवाची  हैं उनकी प्रतिष्ठा के कारण भी मंदिर में नित्य सर्वकालिक स्मरण स्तवन और संकीर्तन विधान चलता रहता है। लोकास्था है कि राजा गंधर्वसेन महाकाल के परम भक्त थे उनकी सच्ची भक्ति से प्रभावित होकर ही महादेव ने उन्हें विक्रम जैसा सुपुत्र देकर वंश चलाया था। लोक तो लोक है लोकसाहित्य जिसे आत्मीयता के साथ स्वीकारता है वही सर्वस्वीकृत और सर्वमान्य अटल सत्य के रूप में प्रचलन में आ जाता है ,लोकनायक विक्रमादित्य की निर्विकारिता ,सत्यवादिता और अपार हृदयता उन्हें तो उन्हें उनके पिता को भी ईष्ट के समकक्ष लाकर खड़ा करती है यह हमें गंधर्वपुरी में प्रत्यक्ष रूप में दिखाई दे रहा था। हम पूर्व मुखी मंदिर में देवकोष्ठ में स्थापित गर्दभ रूपी, समचरणी  महराज गन्धर्व सेन की प्रतिमा के समक्ष प्रणवत खड़े हुए थे, वैजयती माला, अधोवस्त्र, कटिमेखला व उत्तरीय धारण किये हुए वे एक हस्त में सम्भवतः तम्बूर लिए हुए सामवेद स्वरूपी प्रतिष्ठित थे, गर्भगृह के मध्य में काले प्रस्तर से निर्मित उत्तराभिमुखी शिवलिंग था। परमार कालीन भूमिज स्थापत्यकला की भव्यता को देख कर मन अवगुंथन में लगा था परमारों ने 500 वर्षों तक मालवा सहितआस पास के जनपदों पर शासन किया हो न हो विक्रम के इक्कीस सौ वर्ष पूर्व के कथा प्रसंगों को सत्याधारित मानकर ही गंधर्वपुरी में उन्होंने मंदिरों की निर्मिति की होगी। गंधर्वपुरी के राजा जी मंदिर को निर्मिति के आधार पर पुराविद् भी 11 वीं सदी के उत्तरार्ध और 12वीं सदी के पूर्वार्द्ध का परमार कालीन बताते रहे हैं। परमार काल  मुख्यतः शैव,शाक्त, वैष्णव और जैन सम्प्रदायों से आबद्ध शिल्पकला का उन्नयन काल था इसीलिए मंदिर परिसर में शैव, वैष्णव, शाक्त और जैन प्रतिमाओं के खंड विखंड यत्र तत्र दीख रहे थे। मालवा की सुप्रसिद्ध वास्तुविद्या भूमिज शैली में निबद्ध इस शिवालय का भूविन्यास कभी भव्य गर्भगृह, अंतराल, सभामण्डप, अर्धमण्डप से युक्त रहा होगा लेकिन वर्तमान में  गर्भगृह और अधिष्ठान संघाट ही मौलिक स्वरूप में दिख रहे थे। अधिष्ठान पर निर्मित मंदिर में खुर, कुम्भ, कलश, कपोतिका आदि बंधन थे जो लता, रत्न, गागरक, जालकर्म और पुष्प अलंकरणों से सुशोभित थे। देवालय की जंघा से ऊपर का भाग बाद में बनाया गया था। बलुआ पत्थर से निर्मित मंदिर के गर्भगृह और अर्धमंडप केअतिरिक्त शिखर व सभामंडप भी परवर्ती काल के निर्माण थे। यत्र तत्र बिखरे मंदिर के भग्नावशेषों में मंदिर के स्थापत्य खंड, द्वार स्तम्भ, तोरण द्वार, सिरदल, ज्यामितिक अलंकरण और लतावल्लरियों वाले स्थापत्य खंड, शिल्पसौष्ठव  की उत्तमता दर्शा रहे थे। वास्तविकता यह है कि परमार नृपों की देवपाल शाखा ने देवास जिले में अनेक मंदिर सिरजे थे, चौमुखी योद्धा ,कुशल निर्माताऔर विद्वजनों के संरक्षक देवपाल ने देव भूमि देवास में शिल्पियों का एक कला केंद्र ही  बना डाला था। विदिशा शाखा के महाकुमार हरिश्चंद्र का पुत्र देवपाल (1229 ई ) का शासनकाल मृण्मूर्तिकला के वैशिष्ट्य का काल था उस के बाद जयतुंग देव, जयवर्मन द्वितीय, जयसिंह तृतीय, अर्जुनवर्मन द्वितीय, और भोज द्वितीय ने मालवा की सत्ता संभाली थी। सन 1291 ईस्वी में खिलजी सुल्तान जलालुद्दीन और तुगलकों के विध्वंस ने  गंधर्वपुरी के गौरवशाली इतिहास को छिन्न-भिन्न कर दिया था।  परमारों के पराभव के साथ ही गंधर्वपुरी का गरिमामयी शिल्प सौंदर्य भी फीका पड़ गया था। गंधर्वसेन मंदिर के गर्भगृह के एक देवकोष्ठ पर शिव की नौआसीन प्रतिमाएं थीं ।

गंधर्वपुरी मंदिर का परमारकालीन स्थापत्य भूमिज शैली में निर्मित मंदिर, कुबेर, यम, वामन, शिव-पार्वती, ललितासन में शनि प्रतिमा और वाङ्गशुण्डि गणेश प्रतिमा

गर्भगृह की रथिकाओं में सर्वप्रथम समपाद में खड़ी पार्वती जी की प्रतिमा थी, जिसके एक ओर कार्तिकेय और दूसरी ओर गणेश जी का अंकन था। अन्तराल में वाहन महिष पर ललितासन में शनि प्रतिमा, चतुर्भुज गणेश की आसीन प्रतिमा थी। राजा जी की गर्दभ सृदश प्रतिमा मध्य देवकोष्ठ में थी, पुराशास्त्री गंधर्वसेन की गर्दभ सृदश प्रतिमा की विद्यमानता को परवर्ती राजपूत शासकों की उपासना पद्धति से जोड़कर देखते रहे हैं। परिकर में देवी देवताओं की प्रतिमाओं के अतिरिक्त  ललाट बिम्ब में वीणाधर शिव सुदर्शन लग रहे थे। तीन द्वार शाखाओं वाले इस मंदिर के द्वार के नीचे द्वारपाल थे। कमल दल आकृति वाला अर्धमंडप वितान उछिप्त था। शिव, ब्रह्मा ,पार्वती तथा  लक्ष्मी के अंकन वाले देवकोष्ठ, कीर्तिमुख युक्त बंधन और भार वाहकों के प्रकोष्ठ, परमारकालीन स्थापत्य की अनुपमता दर्शा रहे थे। सिरपट्टी पर नवग्रह का अंकन शोभायमान था। बांई ओर ब्रह्मा और दाईं ओर शिव विराजे थे। देवालय के बाहरी स्तम्भों पर देवकोष्ठों में चारों ओर नायिकाएं उत्कीर्ण थीं । इनके ऊपर के स्तम्भ अष्टकोणीय हो गये थे।  गंधर्वसेन मंदिर के दायीं ओर आले में अर्धपर्यकासन आसन में  यम की प्रतिमा थी। मंदिर के प्रवेश द्वार के बायीं ओर सिंदूर आलेपित समपाद वामन ब्रम्हचारी की प्रतिमा (जो विष्णु के वामन अवतार रहे हैं  जिन्होंने तीन पगों में सम्पूर्ण पृथ्वी नाप डाली थी) स्थापित थी । मंदिर परिसर में अनेक स्तम्भ भग्नावस्था में आड़े तिरछे रखे हुए थे। कल्याण सुन्दर शिव प्रतिमा, शिव पार्वती प्रतिमा, भारवाही कीचकों वाले अनेक शिल्पखंड, वाङ्गशुण्डि गणेश प्रतिमा, जिनके निचले हाथ में त्रिशूल और दाहिने ऊपरी हाथ में परशु , बाएँ ऊपरी हाथ में नाग और निचले बाएँ हाथ में मोदक पात्र था, विशांतभुजी दुर्गा प्रतिमा भग्नावस्था में, सुखासन में तुन्दिल कुबेर प्रतिमा जिनके एक हाथ में सुरा प्याला और दूसरे हाथ में नकुल था एक तवंगी मोहक मुखाकृति पुष्ट्यौवना अपने हस्त में  रखे आसव कुम्भ से मदिरा उंडेलने को अधीर दिखाई दे रही थी, इनके अतिरिक्त मंदिर स्थापत्य के अनेक ध्वंसावशेष इधर उधर बिखरे हुए दिखाई दे रहे थे जो परमारकालीन सौन्दर्योपासना और शिल्पियों के मनोगत भावों को व्याख्यित कर रहे थे, शिल्पों में अंगों के आलेखन में चारुता, मृदुता, शालीनता के साथ श्रद्धा और भक्ति का अनूठा समन्वय था । दर्शन करके लौटे तो अहाते में चाँद और सूरज की आकृति वाले प्राचीन सती स्तम्भ के संन्निकट हमें 98 वर्षीय हीरालाल कुशवाहा जी मिल गए उनके अनुभवों का निचोड़ हमारे काम आ गया। पूर्वजों की सुनी सुनाई  बातों के आधार पर वयोवृद्ध श्री कुशवाह ने इंद्र की सभा में महाराज गंधर्वसेन के आनेजाने वाली कथा और उनके वंश के  गुणवंतों में  महान सम्राट विक्रमादित्य और सिद्ध योगी भरथरी के कीर्तित होने का विवरण गीत के माध्यम से साझा किया। उन्होंने बताया कि मालवी भाषा में गंधर्व सेन के गर्दभ रूप की प्रमाणिकता को सिद्ध करते हुए जनश्रुति मिलती है कि राजा भागोर की पुत्री बाईसा अपनी सहेलियों के साथ खेल रही थी तभी मेघ बरसने लगे थे वर्षा को बाधक जानकर  बईसा ने इन्द्र देव से प्रार्थना की कि अभी मतआना खेल खत्म हो जाने के बाद आ जाना। खेल समाप्त होते ही इन्द्र राजा उस तक पहुंच गए उन्होंने  बईसा से गंधर्व विवाह किया। उनसे हुए पुत्र से गांव वाले पिता का नाम जानने की चेष्टा किया करते थे। व्याकुल और संत्रस्त बालक हर दिन मां से पिता का नाम पूछता था थक हारकर मां ने एक दिन नित्यअर्धरात्रि में भेंट हेतु आने वाले इन्द्रदेवता के जाते हुए विमान को दिखाकर बालक को उसके पिता के नाम से अवगत करा दिया, बालक दौड़कर इन्द्र के विमान को पकड़कर इन्द्रपुरी पहुंच गया। जहां अप्सराएं नृत्यरत थीं । इन्द्रसभा में आये नये आगन्तुक को देखकर अप्सराओं का ध्यान भंग हो गया क्रुद्ध इन्द्र ने सभा में खड़े अपने पुत्र को देखकर आवेश में यह कह दिया तू यहां आ भी गया गधा कहीं का और पैर से उसे नीचे की ओर धकेल दिया। पृथ्वीलोक में गिरकर बालक गधा बन गया और गधी के गर्भ से जन्मा। कथा की समाप्ति पर हम मन ही मन विचारने लगे थे कि लोक जिस किसी पर तुष्ट हो जाता है उसमें  दिव्यता की सर्जना स्वमेव कर लेता है। वयोवृद्ध हीरालाल जी ने बातों बातों में  यह भी जानकारी दे डाली कि गंधर्वपुरी के समीपवर्ती तालोद गांव में विक्रमादित्य की षष्टी पूजन (जलवाय पूजन ) का कार्यक्रम हुआ था ऐसा उन्होंने अपने काका बाबा से सुन रखा है ।

Comments

  1. O P Mishra says:

    Wow! Well written and finely executed. You proved that Gardbhilla was Vikramaditya’s father. You are on the footsteps of Mrs devala Mitra DGA SI. Taking forward the interest in the field of art culture,and archaeology.
    Congratulations!

  2. दिनेश झाला says:

    काफी समय बाद आपकी गन्धर्वपुरी पर रचना पढने के बाद बहुत आनंद आ गया धन्यवाद आभार।
    -दिनेश झाला शाजापुर ।??????

  3. Shyam says:

    दीदी नमस्कार.केसर बाई के लोकगीत मे आनंद आ गया आपके द्वारा हमे कई सारी एतिहासिक जानकरी प्राप्त हुई आपका आभार.आपको बधाई.

  4. वीरेंद्र सिंह says:

    ऊँ नमः शिवाय आपका नया ब्लाग पढ़ कर अति प्रसन्नता हुई परन्तु उससे अधिक जिज्ञासा बढ़ गयी गन्धर्व पुरी के बारे में एक ऐसे प्रतापी राजा और वंश के बारे में जिन्होंने परमार वंश की नीव रखी जिनका साम्राज्य मध्य भारत से दक्षिण भारत तक फैला हुआ था जिनके वंशज एक महान सम्राट विक्रमादित्य हुए तो दूसरे राजा भर्तृहरि जिन्होने हिन्दू धर्म का मार्ग दर्शन किया, सबसे बड़ी बात जो आपके शोध से सामने आयी कि किस प्रकार पहले के इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास के साथ घोर अन्याय किया है आपने जिस तरह से पूरी प्रमाणिकता के साथ तथ्यों को सामने लाने का प्रयास किया है शायद इससे आने वाले समय में भारत का प्राचीन इतिहास पुनः एक बार ऐसे ही शोध के साथ देश दुनिया के सामने लाने की आवश्यकता है, आज की जो युवा पीढ़ी जिसको अपने गौरव शाली इतिहास को ना तो बताया गया और ना तो दिखाया गया ऐसे छात्रों के लिए आपका ये लेख किसी अमूल्य खजाने से कम नहीं हैं पर मेरा उन छात्रों से भी निवेदन है कि वे आपका लेख सिर्फ पढ़े नहीं बल्कि गंधर्वपुरी आकर स्वयं अवलोकन भी करे ।इतिहास में प्रामाणीकता सिर्फ किताबों के अन्दर नहीं बल्कि भारत के लोककथाओं में व लौकक्तियो में भी भरे पड़े हैं । जिसको ये पश्चिमी मानसिकता वाले इतिहासकारों ने बड़ी चालाकी से नकारने की कोशिश की । मेरे विचार से आपका ये लेख राजपूत वंश में परमार वंश को और अधिक गहराई से जानने में सहायक सिद्ध होगा ।गंधर्वपुरी को सरकार को विश्व धरोहर स्थल व पर्यटक स्थल घोषित करना चाहिए जिससे भारतीय अपने गौरव शाली इतिहास को जान सके व राज्य का भी आर्थिक विकास हो ।

  5. कमलेश बुन्देला says:

    अति सुन्दर जानकारी
    कमलेश बुन्देला

  6. दयाराम सिरोलिया says:

    बहुत ख़ूब दीदी
    दयाराम सिरोलिया देवास

    1. Rajendra Kumar Malviya says:

      दीदी आप बहुत अच्छा लिखती है, मैं आपका फैन हूँ और हमेशा आपके सारे लेख पढता हूँ। दीदी आपका बहुत अच्छा प्रयास है जो महाराजा विक्रमादित्य और उनसे जुड़े विभिन्न अनछुए पहलुओं को लोगो को बता रही है। दीदी गंधर्वपुरी और राजा गंधर्वसेन के बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा, मानो इतिहास से महाराजा विक्रमादित्य, गंधर्वसेन और उनकी गन्धर्वनगरी को फिर से जीवंत कर दिया हो आपने दीदी।

  7. जितेंद्र सिंह सेंधव, तालोद says:

    दिशा जी शर्मा आपके द्वारा सोनकच्छ तहसील के ग्राम तालोद में आकर सूरजकुंड और माता सृष्टि देवी पर जो लेख लिखा है वहां गौरवशाली है आप आगे और इसी प्रकार प्रयास कर इसे पुरातत्व विभाग तक ले जाने का प्रयास करें।

  8. O p Mishra says:

    Good morning,I have read all about gandharvapuri,temple,sculptures,mythology,interviews othe locals,historian,archaeologist,these are excellent matter for new generations.new young archaeologist must see the survey of the sites.mam you have given the complete chronologies of this makes region.this main site was the famous for jainism, Hindu but no remains of buddhist.there are satisfied memorials which prove the late historic remains.if you have some yogini sculptures in talod,it will be a great for researcher.please see once again this site.without prove we can say the rare discoveries.please see the report of Cunningham volume, he might have written some thing.saptamatrikas are also a part of 64yoginis.wait for new evidences.thanks for sending this matter to me.

  9. आर सी ठाकुर महिदपुर says:

    ???? बहुत ही स्तुत्य, अदभुत प्रस्तुति ।आपका अभिनन्दन।

  10. Rajesh Upadya Ujjain says:

    Thanks didi Bhaut accha laga

  11. राजेश चौधरी गन्धर्वपुरी says:

    बहुत सुन्दर ?????

  12. अजय मंडलोई ऊन खरगोन says:

    बहुत शानदार????

  13. Bhagatsingh says:

    नवम्बर 6, 2019
    काफी समय बाद आपकी गन्धर्वपुरी पर रचना पढने के बाद बहुत आनंद आ गया धन्यवाद आभार।
    Bhagatsingh kushwah khushwahnagar

  14. अहमद अली भोपाल says:

    अति सुंदर?

  15. Op mishra Bhopal says:

    No doubt,you have explained in detail about nature,local mythology, gandhavasen story, relation with ujjaini.good literary records.gandhrvapuri was the centre for parmara art and architecture.ghar ghar me sculptures are still available.thank to your devotions to the social culture ,art ,religious life of the common people,kancha playing girls sent us our child hood.so once again thank you very much.

  16. बंशीधर बंधु, शुजालपुर मंडी says:

    आदरणीया दीदी आपकी रोड डायरी में दृश्यावलियों के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक,धार्मिक और पुरातात्विक उल्लेख अद्भुत हैं। राजा विक्रमादित्य और उनके पिता राजा गंधर्व सेन के मालवी लोक धुन से आबद्ध गुरीले गीतों ने चार चांद लगा दिए हैं।
    गंधर्वपुरी पर आपका शोध पूर्ण कार्य बहुत महत्वपूर्ण है। शोधार्थियों के लिए अवसर प्रदान करने वाला है यदि चाहें तो।
    इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए आत्मीय बधाई एवं शुभकामनाएं

  17. Dr Radha Ballabh Tripathi says:

    In these blogs, Disha Sharma the celebration of life that somehow still continues in rural area. She explores the remotest villages in Madhya Pradesh and with an undaunting courage and jijnAsA continues her search for the roots which are otherwise lost. She creates real feast for lovers of art, history and indigenous traditions. What an undiscovered glory of ancient and mediaeval Archeology!

  18. ललित शर्मा, झालावाड़ - महाराणा कुम्भा इतिहास अलंकरण - वाकणकर रजत इतिहास अलंकरण - says:

    -देवास के लोक की समृद्धि का अद्भुत प्रयास-

    सम्राट विक्रमादित्य के पिता गंधर्वसेन की लोक गाथाओं से परिपूर्ण एवं देवों की प्रिय नगरी देवास को गंधर्वपुरी भी कहते हैं। इसी की भूमि से जुड़ी अद्भुत गाथाओं वाली संस्कृति को गहराई से अपने संस्मरणों में गुंथा है। प्रासेह पत्रकार दिशा अविनाश जी शर्मा ने क्षेत्रीय अनेकशः ग्रामों में जाकर उन्होंने परमारकालीन संस्कृति के शिल्प, मंदिरों के साथ वहाँ लोक में रची संस्कृति को बहुत सुन्दर ढंग से सचित्र उभारा है। धुंध, बादल और सूरज के मध्य संस्कृति का चित्रण बड़ा जीवंत है। ग्राम्य परिवेश, पहाड़, खेत की हरियाली के दृश्यों का जीवंत चित्रण मनोहारी है। वसूली पटवारी राकेश चौधरी की चर्चा के साथ ग्रामीण आवास, केसरबाई द्वारा गंधर्वसेन की गाथा, पं रमेश चंद्र शर्मा द्वारा गन्धर्व गाथा, ये सब इतनी रोचकता लिए हैं कि यहाँ संस्कृति बोलती है और इतिहास मौन रहता है।

    दिशा जी ने मालवा की पुराकला, शिल्प को जिस प्रकार लोक से जीवंत भाव द्वारा जोड़ा वह उनकी अपरिमेय गहनता, विद्वता को प्रकट करता है। मैं हृदय से उनका आभार व्यक्त करता हूँ और परिश्रम को प्रणाम करता हूँ। -देवास के लोक की समृद्धि का अद्भुत प्रयास-

    सम्राट विक्रमादित्य के पिता गंधर्वसेन की लोक गाथाओं से परिपूर्ण एवं देवों की प्रिय नगरी देवास को गंधर्वपुरी भी कहते हैं। इसी की भूमि से जुड़ी अद्भुत गाथाओं वाली संस्कृति को गहराई से अपने संस्मरणों में गुंथा है। प्रासेह पत्रकार दिशा अविनाश जी शर्मा ने क्षेत्रीय अनेकशः ग्रामों में जाकर उन्होंने परमारकालीन संस्कृति के शिल्प, मंदिरों के साथ वहाँ लोक में रची संस्कृति को बहुत सुन्दर ढंग से सचित्र उभारा है। धुंध, बादल और सूरज के मध्य संस्कृति का चित्रण बड़ा जीवंत है। ग्राम्य परिवेश, पहाड़, खेत की हरियाली के दृश्यों का जीवंत चित्रण मनोहारी है। वसूली पटवारी राकेश चौधरी की चर्चा के साथ ग्रामीण आवास, केसरबाई द्वारा गंधर्वसेन की गाथा, पं रमेश चंद्र शर्मा द्वारा गन्धर्व गाथा, ये सब इतनी रोचकता लिए हैं कि यहाँ संस्कृति बोलती है और इतिहास मौन रहता है।

    दिशा जी ने मालवा की पुराकला, शिल्प को जिस प्रकार लोक से जीवंत भाव द्वारा जोड़ा वह उनकी अपरिमेय गहनता, विद्वता को प्रकट करता है। मैं हृदय से उनका आभार व्यक्त करता हूँ और परिश्रम को प्रणाम करता हूँ।

  19. जगदीश भावसार शाजापुर says:

    गंधावल से गंधर्वपुरी के ऐतिहासिक परिदृश्य गांव की सकरी एवं सहृदय गलियों से एवं ग्रामीण मार्ग में इमारती लकड़ी के सागोन वृक्षो से परिचय तो कहीं चंदन की मधुर गंध से गंधावल नाम धन्य करती है ।गांव की पगडंडी में टेशु के मनभावन फूल से स्फूर्ति एवं इमली के बीज से बालिकाओं का खेल सृजन ,घरों के ओसारे-ओटलों से झांकते भग्नावशेष एवं संग्रहित मूर्तियां क्षेत्र की दशा दिशा को उजागर करती है।
    पौराणिक प्रसंग एवं राज वंशावली का सिलेवार वर्णन क्षेत्र की प्राचीनता ,स्थापत्य कला ,साहित्य एवं संगीत के वैभव पठनीय है। धूलकोट जैसे लौकिक कथानक की प्रासंगिकता पर स्वीकृति नहीं है ।देवस्थान आस्था मान मन्नत एवं विश्वास से सराबोर है ।भाषा के माधुर्यऔर सरल प्रस्तुतीकरण में क्षेत्र के विभिन्न आयामों का चित्रण बहुत ही प्रभावी एवं सारगर्भित ढंग से हुआ है विश्लेषण सराहनीय है

  20. लक्ष्मीनारायण पयोधि, भोपाल says:

    इस यात्रा-वृत्तांत में प्रयुक्त भाषा ने चमत्कृत और मोहित किया।इसकी भाषा और वर्णन शैली ने अनायास ही आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की याद दिला दी।आपकी भाषा इस वृत्तांत के आरंभ से ही काव्यात्मक बन पड़ी है।पढ़ते हुए प्रकृति के विविध बिम्ब अपने संपूर्ण सौंदर्य के साथ अवतरित होते जाते हैं।पुरात्व की तकनीकी भाषा तथ्यों को प्रामाणिक बनाती है।ऐतिहासिक,पौराणिक,सांस्कृतिक,श्रुतिमूलक और लोकमान्यताओं के संदर्भ तो हैं ही।कुल मिलाकर एक भव्य यात्रा-वृत्तांत।इसमें एक अच्छे उपन्यास की संभावना भी दिखायी देती है।यदि आपकी रुचि हो तो इसी को लेकर आगे काम कर सकती हैं।
    बहरहाल,एक प्रभावी यात्रा-वृत्तांत के लिये बहुत बधाई और शुभकामनाएँ!

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *