मध्यप्रदेश सरकार के मुक्ताकाशी संग्रहालय में संग्रहीत लगभग 305 शैव, शाक्त, वैष्णव व जैन प्रतिमाएं, सूर्य की दुर्लभ प्रतिमा भी
मन जैसे ढकी हुयी सचाई को परत दर परत उघाड़ रहा था और कहे भी जा रहा था कि गंधर्वसेन और विक्रमादित्य की वाचिक परम्परा में मिलने वाली लोकधारणाओं की अवहेलना कदापि नहीं की जा सकती, गांव की संकरी गलियां हमें पंचायत भवन में स्थित मध्यप्रदेश पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित संग्रहालय की मुक्ताकाशी दीर्घा तक ले आई थीं। यहां हमें रामप्रसाद कुसुमारिया जी मिले जो मध्यप्रदेश सरकार की ओर से यहां संग्रहीत लगभग 305 शैव, शाक्त, वैष्णव व जैन प्रतिमाओं के संरक्षण का दायित्व संभाल रहे थे। अवलोकनार्थ रखी ध्यानवस्थित शिव की प्रतिमा ,उमा महेश्वर की वृषभारुड़ प्रतिमा, समभंग मुद्रा में चतुर्भुजी शिव प्रतिमा, सौम्य मुखाकृति अलंकृत शेषशायी विष्णु प्रतिमा, वराह स्वरूपी प्रतिमा, चतुर्भुजी अष्ठ हस्तधारी समभंगी मुद्रा में विष्णु जी के नीचे हयग्रीव दो द्वारपाल खड्गासन में प्रतिमा , गरूढ़ासीन अष्टभुजाधरी वैष्णवी प्रतिमा ,सूर्यशिव, विष्णु और ब्रह्मा का सामजस्य प्रदर्शित करती सूर्य की दुर्लभ प्रतिमा जिसका प्रभामण्डल चेत्याकार तीन बंधनों में दृष्टिगोचर हो रहा था परमारकालीन सर्वोत्तकृष्ट कृति थी। भीतर रखी सरस्वती, भुवनेश्वरी, वैष्णवी, चामुंडा, पार्वती, अम्बिका प्रतिमाओं में शिल्पियों का देहबोध और रसाभिव्यक्ति का अनूठा समन्वय दिखाई दे रहा था, संग्रहालय में प्रदर्शित पदमासन में जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी की प्रस्तर प्रतिमा, खडगासन में शांतिनाथ जी, महावीर स्वामी जी का पद्मकलम से अलंकृत मनोहारी प्रभामण्डल, कुन्तल केशराशि और छाती पर श्रीवत्स भी अत्यन्त प्रभावकारी लग रहे थे। अम्बिका देवी द्विभंग मुद्रा में सप्तफणी नाग के नीचे आजानबाहू पार्श्वनाथ जी, लेटी हुई अवस्था में जैन तीर्थंकर, कल्प वृक्ष के नीचे खड़ी जैन यक्षिणी का माधुर्य, बीस भुजाओं वाली चक्रेश्वरी देवी की द्विभंगी मुद्रा का लालित्य परमार काल के शिल्पसौष्ठव की पराकाष्ठा दर्शा रहा था। धार्मिक सहिष्णुता के परिचायक परमारकालीन शिल्प उस समय के शिल्पियों के शिल्प नैपुण्य को प्रदर्शित कर रहे थे। चतुर्भुजी महिषासुर मर्दिनी, अष्टभुजी अतिभंग मुद्रा में किरीटधारी देवी, 21 इंच उंचाई 40 इंच गोलाकार व्यास वाला पुरातन शिवलिंग नंदी, लंबोदर ऋद्धि-सिद्धि के साथ गणेश प्रतिमा, मयूर पर आरूढ़ कार्तिकेय, उत्तर दिशा के दिक्पाल कुबेर भद्रपीठ सिंहासन पर लालितासन में विराजे थे उनके दाहिने हाथ में आसवपात्र था, द्वारपाल जो स्थापत्य के रक्षक माने गये हैं उनकी भी अनेक प्रतिमाएं यहां संग्रहीत थीं। नृपदम्पत्ति की प्रतिमा, व्यान्तर देवताओं में गंधर्वनाग, यक्ष, यक्षिणी, सिद्ध दैत्य, दानव राक्षसों की प्रभावोत्पादक प्रतिमाओं का संग्रहण , वीणावादन करते शिव की चतुर्भुज आसीन प्रतिमा, लक्ष्मी नारायण, नवग्रह, दशावतार, हिरण्यगर्भ, व्याल आकृतियां, आदिनाथ कायोत्सर्ग मुद्रा में, आदिनाथ दिगम्बर स्वरूप, सुपार्श्वनाथ, मुनि सुव्रतनाथ, नेमिनाथ, गोमद अम्बिका, अद्वितीय लक्षणों से परिपूर्ण शिल्प की श्रेष्ठता का सम्यक प्रदर्शन कर रहे थे। शासकीय संग्रहालय में बहुविद अलंकृत समभंग मुद्रा में नायिका समीप में एक त्रिभंग देवगंना की देहयष्टि अद्भुत थी। वस्तुतः परमारकालीन सम्राट मुंज के राज काज में धनपाल, धनंजय आदि जैन विद्वानों के राजदरबार में होने के कारण जैन धर्म सम्बन्धी पुरावशेष उज्जयिनी और उसके आस-पास प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं इसीलिए यहां भी अधिकाधिक जैन प्रतिमाएं प्राप्य होती रहीं हैं। विष्णु की पृथ्वी का उद्धार करते हुए चतुर्भुजी प्रतिमा, विशंतभुजी दुर्गा जो कि मुंड माला और अधोवस्त्र धारण किये हुए थीं परिकर में दोनों ओर मालाधारी युगल थे उनके ऊपर 5 देवकोष्ठ थे जिनमें जैन तीर्थंकर ध्यानस्थ मुद्रा में थे। सर्पफण में पार्श्वनाथ और चंवरधारिणी परमारकालीन नृपों के धर्म सहिष्णु होने का परिचय करा रही थीं। गंधर्वपुरी की सूर्य त्रिमुखी दुर्लभप्रतिमा, ब्रम्हा विष्णु महेश, उमामहेश्वर, पंचाग्नि पार्वती प्रतिमा, योगासन ध्यानस्थ शिव, नंदी, शिव पंचमुखी विष्णु, शेषशायी विष्णु नृसिंहविष्णु और वराह अवतार, अलंकृत वराह, शारदुल प्रतिमा, वैष्णवी प्रतिमा, दुर्गा काली, स्तम्भों पर नायिकाओं का उत्कीर्णन, उमामहेश्वर प्रकार की प्रतिमाएं जिसमें शिव के दाएं हाथ में त्रिशूल, बायां हाथ देवी को आलिंगन पाश में लिए हुये हुए, पार्वती शिव की बांयी जंघा पर विराजीं हुईं उनका हाथ शिव के स्कंध पर बाएं हाथ में कमल, वैष्णवी देवी प्रतिमा में उड़ता हुआ गंधर्व प्रदर्शित था। प्रत्यालीढ़ मुद्रा में हनुमान (8वीं सदी), वामन प्रतिमा में बलि और शुक्राचार्य, चार मुख आठ भुजाओं वाली विष्णु प्रतिमा वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध के साथ, समभंग मुद्रा में जिसके पार्श्व भाग में बलराम, प्रतिमा के नीचे हयग्रीव और 2 द्वारपाल खड्गासन में, विलक्षण शेषशायी विष्णु उनके नाभिद्वार से निकले कमल पर ब्रह्मा विराजमान, और लक्ष्मी उनके पैर दबा रही थीं । ग्यारहवीं बारहवीं तेरहवीं शताब्दी की सरस्वती, भुवनेश्वरी, वैष्णवी, चामुंडा, पार्वती, अम्बिका, उमा महेश्वर, वीणाधर शिव, योगनारायण, बैकुण्ठनारायण, शिव, प्रतिमा वितान, कार्तिकेय, त्रिमूर्ति, हरि हरेक, हरिहर, देव प्रतिमा, शेषशायी विष्णु,कृष्णजन्म नायिकाएँ, देवांगनाएँ, चक्रेश्वरी प्रतिमाएँ निःसंदेह अवलोकनीय हैं।
मध्यप्रदेश पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित संग्रहालय की मुक्ताकाशी दीर्घा में 305 शैव, शाक्त, वैष्णव व जैन प्रतिमाओं का संरक्षण, संरक्षक रामप्रसाद कुण्डलिया,अंतिम चित्र राज्य पुरातत्व संग्रहालय भोपाल में गन्धर्वपुरी से प्राप्त संरक्षित कार्तिकेय प्रतिमा, चक्रेश्वरी देवी भोपाल के बिड़ला संग्रहालय में गोमेद अम्बिका
सूर्य की अत्यंत दुर्लभ प्रतिमा जिसमें सूर्य शिव विष्णु ब्रह्मा के मिश्रित रूप में प्रदर्शित थे। स्थानक मुद्रा में दोनों हाथों में खिला हुआ कमल लिए हुए सूर्य प्रतिमा में अनुचर भी दिखाई दे रहे थे। प्रतिमा का प्रभामंडल चेत्याकार तीन बंधनों में दिखाई दे रहा था। प्रतिमा के ऊपर कोष्ठक में ब्रह्मा विष्णु महेश क्रमशः ललितासन, पद्मासन और ललितासन में विराजे थे। गदा चक्र शंख और त्रिशूल अक्ष माला लिए कंठ माल यज्ञोपवीत मेखला और वलय से अलंकृत यह परमारकाल की सर्वोत्कृष्ट कृति थी, खड्गासन में ही महावीर स्वामी कुन्तलकेश और प्रभामंडल लिए जैन तीर्थंकर ध्यानवस्थित मुद्रा में, द्विभंग मुद्रा में मातृत्व का प्रतीत अम्बिका देवी, सप्तफणी नाग के नीचे पार्श्वनाथ जी, अत्यंत विशालित आदिनाथ जी की प्रतिमा जिसके पैरों के पास माता अम्बिका, जैन यक्षिणी कल्पवृक्ष के नीचे खड़ी हुई, वृक्ष के ऊपर बैठे हुए बन्दर अत्यंत मनोहारी लग रहे थे, पार्श्वनाथ जी की सप्तफणी नाग के नीचे बैठी प्रतिमा, भगवान् आदिनाथ की सहचरी यक्षिणी, चक्रेश्वरी की द्विभंग मुद्रा, जिनकी 20 भुजाएँ थीं। महिषासुर मर्दिनी की चतुर्भुजी प्रतिमा, अष्टभुजी दुर्गा प्रतिमा अतिभंग मुद्रा में जिनके ऊपर उड़ते गन्धर्व वरदमाला हाथ में लिए हुए थे, अत्यंत प्राचीन शिवलिंग, विशाल नंदी, लम्बोदर रिद्धि सिद्धि के साथ, मयूर पर आरूढ़ कार्तिकेय, भद्रपीठ सिंहासन पर ललितासन कुबेर, 44 इंच लम्बाई, 22 इंच चौड़ाई और 11 इंच मोटाई वाली महावीर स्वामी बड़ी प्रतिमा, राजोचित वेशभूषा में युगल दंपत्ति, व्यानान्तर देवता, यक्ष यक्षणी, सिद्ध दैत्य, गन्धर्व, नाग आदि भी वीथिका में दिखाई दे रहे थे। भोपाल के बिरला संग्रहालय में भी हमें गंधर्वपुरी से प्राप्त जैन गोमेध अम्बिका प्रतिमा,देखने का अवसर मिला, राज्य पुरातत्व संग्रहालय की दीर्घा में भी कार्तिकेय की एक प्रतिमा प्रदर्शित थी जिसकी प्राप्ति का स्थान गंधर्वपुरी था, गांव भ्र्मण के दौरान रामप्रसाद जी से हमें पता चला कि वर्तमान भुवनेश्वरी मंदिर की द्वारशाखा के अधोभाग में गंगा जमुना की प्रतिमाएँ हुआ करती थीं, राममंदिर की द्वार शाखा, रामसिंह के बाड़े में रखीं तीर्थंकर प्रतिमा, गंधर्वपुरी में जहां कहीं भी उत्खनन होता है या तो प्रतिमा अथवा स्थापत्य खंड प्राप्त हो ही जाता है।
Wow! Well written and finely executed. You proved that Gardbhilla was Vikramaditya’s father. You are on the footsteps of Mrs devala Mitra DGA SI. Taking forward the interest in the field of art culture,and archaeology.
Congratulations!
काफी समय बाद आपकी गन्धर्वपुरी पर रचना पढने के बाद बहुत आनंद आ गया धन्यवाद आभार।
-दिनेश झाला शाजापुर ।??????
दीदी नमस्कार.केसर बाई के लोकगीत मे आनंद आ गया आपके द्वारा हमे कई सारी एतिहासिक जानकरी प्राप्त हुई आपका आभार.आपको बधाई.
ऊँ नमः शिवाय आपका नया ब्लाग पढ़ कर अति प्रसन्नता हुई परन्तु उससे अधिक जिज्ञासा बढ़ गयी गन्धर्व पुरी के बारे में एक ऐसे प्रतापी राजा और वंश के बारे में जिन्होंने परमार वंश की नीव रखी जिनका साम्राज्य मध्य भारत से दक्षिण भारत तक फैला हुआ था जिनके वंशज एक महान सम्राट विक्रमादित्य हुए तो दूसरे राजा भर्तृहरि जिन्होने हिन्दू धर्म का मार्ग दर्शन किया, सबसे बड़ी बात जो आपके शोध से सामने आयी कि किस प्रकार पहले के इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास के साथ घोर अन्याय किया है आपने जिस तरह से पूरी प्रमाणिकता के साथ तथ्यों को सामने लाने का प्रयास किया है शायद इससे आने वाले समय में भारत का प्राचीन इतिहास पुनः एक बार ऐसे ही शोध के साथ देश दुनिया के सामने लाने की आवश्यकता है, आज की जो युवा पीढ़ी जिसको अपने गौरव शाली इतिहास को ना तो बताया गया और ना तो दिखाया गया ऐसे छात्रों के लिए आपका ये लेख किसी अमूल्य खजाने से कम नहीं हैं पर मेरा उन छात्रों से भी निवेदन है कि वे आपका लेख सिर्फ पढ़े नहीं बल्कि गंधर्वपुरी आकर स्वयं अवलोकन भी करे ।इतिहास में प्रामाणीकता सिर्फ किताबों के अन्दर नहीं बल्कि भारत के लोककथाओं में व लौकक्तियो में भी भरे पड़े हैं । जिसको ये पश्चिमी मानसिकता वाले इतिहासकारों ने बड़ी चालाकी से नकारने की कोशिश की । मेरे विचार से आपका ये लेख राजपूत वंश में परमार वंश को और अधिक गहराई से जानने में सहायक सिद्ध होगा ।गंधर्वपुरी को सरकार को विश्व धरोहर स्थल व पर्यटक स्थल घोषित करना चाहिए जिससे भारतीय अपने गौरव शाली इतिहास को जान सके व राज्य का भी आर्थिक विकास हो ।
अति सुन्दर जानकारी
कमलेश बुन्देला
बहुत ख़ूब दीदी
दयाराम सिरोलिया देवास
दीदी आप बहुत अच्छा लिखती है, मैं आपका फैन हूँ और हमेशा आपके सारे लेख पढता हूँ। दीदी आपका बहुत अच्छा प्रयास है जो महाराजा विक्रमादित्य और उनसे जुड़े विभिन्न अनछुए पहलुओं को लोगो को बता रही है। दीदी गंधर्वपुरी और राजा गंधर्वसेन के बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा, मानो इतिहास से महाराजा विक्रमादित्य, गंधर्वसेन और उनकी गन्धर्वनगरी को फिर से जीवंत कर दिया हो आपने दीदी।
दिशा जी शर्मा आपके द्वारा सोनकच्छ तहसील के ग्राम तालोद में आकर सूरजकुंड और माता सृष्टि देवी पर जो लेख लिखा है वहां गौरवशाली है आप आगे और इसी प्रकार प्रयास कर इसे पुरातत्व विभाग तक ले जाने का प्रयास करें।
Good morning,I have read all about gandharvapuri,temple,sculptures,mythology,interviews othe locals,historian,archaeologist,these are excellent matter for new generations.new young archaeologist must see the survey of the sites.mam you have given the complete chronologies of this makes region.this main site was the famous for jainism, Hindu but no remains of buddhist.there are satisfied memorials which prove the late historic remains.if you have some yogini sculptures in talod,it will be a great for researcher.please see once again this site.without prove we can say the rare discoveries.please see the report of Cunningham volume, he might have written some thing.saptamatrikas are also a part of 64yoginis.wait for new evidences.thanks for sending this matter to me.
???? बहुत ही स्तुत्य, अदभुत प्रस्तुति ।आपका अभिनन्दन।
Thanks didi Bhaut accha laga
बहुत सुन्दर ?????
बहुत शानदार????
नवम्बर 6, 2019
काफी समय बाद आपकी गन्धर्वपुरी पर रचना पढने के बाद बहुत आनंद आ गया धन्यवाद आभार।
Bhagatsingh kushwah khushwahnagar
अति सुंदर?
No doubt,you have explained in detail about nature,local mythology, gandhavasen story, relation with ujjaini.good literary records.gandhrvapuri was the centre for parmara art and architecture.ghar ghar me sculptures are still available.thank to your devotions to the social culture ,art ,religious life of the common people,kancha playing girls sent us our child hood.so once again thank you very much.
आदरणीया दीदी आपकी रोड डायरी में दृश्यावलियों के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक,धार्मिक और पुरातात्विक उल्लेख अद्भुत हैं। राजा विक्रमादित्य और उनके पिता राजा गंधर्व सेन के मालवी लोक धुन से आबद्ध गुरीले गीतों ने चार चांद लगा दिए हैं।
गंधर्वपुरी पर आपका शोध पूर्ण कार्य बहुत महत्वपूर्ण है। शोधार्थियों के लिए अवसर प्रदान करने वाला है यदि चाहें तो।
इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए आत्मीय बधाई एवं शुभकामनाएं
In these blogs, Disha Sharma the celebration of life that somehow still continues in rural area. She explores the remotest villages in Madhya Pradesh and with an undaunting courage and jijnAsA continues her search for the roots which are otherwise lost. She creates real feast for lovers of art, history and indigenous traditions. What an undiscovered glory of ancient and mediaeval Archeology!
-देवास के लोक की समृद्धि का अद्भुत प्रयास-
सम्राट विक्रमादित्य के पिता गंधर्वसेन की लोक गाथाओं से परिपूर्ण एवं देवों की प्रिय नगरी देवास को गंधर्वपुरी भी कहते हैं। इसी की भूमि से जुड़ी अद्भुत गाथाओं वाली संस्कृति को गहराई से अपने संस्मरणों में गुंथा है। प्रासेह पत्रकार दिशा अविनाश जी शर्मा ने क्षेत्रीय अनेकशः ग्रामों में जाकर उन्होंने परमारकालीन संस्कृति के शिल्प, मंदिरों के साथ वहाँ लोक में रची संस्कृति को बहुत सुन्दर ढंग से सचित्र उभारा है। धुंध, बादल और सूरज के मध्य संस्कृति का चित्रण बड़ा जीवंत है। ग्राम्य परिवेश, पहाड़, खेत की हरियाली के दृश्यों का जीवंत चित्रण मनोहारी है। वसूली पटवारी राकेश चौधरी की चर्चा के साथ ग्रामीण आवास, केसरबाई द्वारा गंधर्वसेन की गाथा, पं रमेश चंद्र शर्मा द्वारा गन्धर्व गाथा, ये सब इतनी रोचकता लिए हैं कि यहाँ संस्कृति बोलती है और इतिहास मौन रहता है।
दिशा जी ने मालवा की पुराकला, शिल्प को जिस प्रकार लोक से जीवंत भाव द्वारा जोड़ा वह उनकी अपरिमेय गहनता, विद्वता को प्रकट करता है। मैं हृदय से उनका आभार व्यक्त करता हूँ और परिश्रम को प्रणाम करता हूँ। -देवास के लोक की समृद्धि का अद्भुत प्रयास-
सम्राट विक्रमादित्य के पिता गंधर्वसेन की लोक गाथाओं से परिपूर्ण एवं देवों की प्रिय नगरी देवास को गंधर्वपुरी भी कहते हैं। इसी की भूमि से जुड़ी अद्भुत गाथाओं वाली संस्कृति को गहराई से अपने संस्मरणों में गुंथा है। प्रासेह पत्रकार दिशा अविनाश जी शर्मा ने क्षेत्रीय अनेकशः ग्रामों में जाकर उन्होंने परमारकालीन संस्कृति के शिल्प, मंदिरों के साथ वहाँ लोक में रची संस्कृति को बहुत सुन्दर ढंग से सचित्र उभारा है। धुंध, बादल और सूरज के मध्य संस्कृति का चित्रण बड़ा जीवंत है। ग्राम्य परिवेश, पहाड़, खेत की हरियाली के दृश्यों का जीवंत चित्रण मनोहारी है। वसूली पटवारी राकेश चौधरी की चर्चा के साथ ग्रामीण आवास, केसरबाई द्वारा गंधर्वसेन की गाथा, पं रमेश चंद्र शर्मा द्वारा गन्धर्व गाथा, ये सब इतनी रोचकता लिए हैं कि यहाँ संस्कृति बोलती है और इतिहास मौन रहता है।
दिशा जी ने मालवा की पुराकला, शिल्प को जिस प्रकार लोक से जीवंत भाव द्वारा जोड़ा वह उनकी अपरिमेय गहनता, विद्वता को प्रकट करता है। मैं हृदय से उनका आभार व्यक्त करता हूँ और परिश्रम को प्रणाम करता हूँ।
गंधावल से गंधर्वपुरी के ऐतिहासिक परिदृश्य गांव की सकरी एवं सहृदय गलियों से एवं ग्रामीण मार्ग में इमारती लकड़ी के सागोन वृक्षो से परिचय तो कहीं चंदन की मधुर गंध से गंधावल नाम धन्य करती है ।गांव की पगडंडी में टेशु के मनभावन फूल से स्फूर्ति एवं इमली के बीज से बालिकाओं का खेल सृजन ,घरों के ओसारे-ओटलों से झांकते भग्नावशेष एवं संग्रहित मूर्तियां क्षेत्र की दशा दिशा को उजागर करती है।
पौराणिक प्रसंग एवं राज वंशावली का सिलेवार वर्णन क्षेत्र की प्राचीनता ,स्थापत्य कला ,साहित्य एवं संगीत के वैभव पठनीय है। धूलकोट जैसे लौकिक कथानक की प्रासंगिकता पर स्वीकृति नहीं है ।देवस्थान आस्था मान मन्नत एवं विश्वास से सराबोर है ।भाषा के माधुर्यऔर सरल प्रस्तुतीकरण में क्षेत्र के विभिन्न आयामों का चित्रण बहुत ही प्रभावी एवं सारगर्भित ढंग से हुआ है विश्लेषण सराहनीय है
इस यात्रा-वृत्तांत में प्रयुक्त भाषा ने चमत्कृत और मोहित किया।इसकी भाषा और वर्णन शैली ने अनायास ही आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की याद दिला दी।आपकी भाषा इस वृत्तांत के आरंभ से ही काव्यात्मक बन पड़ी है।पढ़ते हुए प्रकृति के विविध बिम्ब अपने संपूर्ण सौंदर्य के साथ अवतरित होते जाते हैं।पुरात्व की तकनीकी भाषा तथ्यों को प्रामाणिक बनाती है।ऐतिहासिक,पौराणिक,सांस्कृतिक,श्रुतिमूलक और लोकमान्यताओं के संदर्भ तो हैं ही।कुल मिलाकर एक भव्य यात्रा-वृत्तांत।इसमें एक अच्छे उपन्यास की संभावना भी दिखायी देती है।यदि आपकी रुचि हो तो इसी को लेकर आगे काम कर सकती हैं।
बहरहाल,एक प्रभावी यात्रा-वृत्तांत के लिये बहुत बधाई और शुभकामनाएँ!