बिहार प्रान्त की लोकनाट्य परंपरा, गोंड नाट्य शैली गोंड़ऊ, व्यंग्यात्मक संवाद, नृत्य की प्रधानता
पिछले दिनों भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय के दर्शनगृह में देश की लोकसंस्कृति और लोकांचलों के परिवेश की सुरम्यता को अनुभूत करने का अवसर मिला। रंग प्रयोगों के प्रदर्शन की साप्ताहिक श्रृंखला के अन्तर्गत बिहार प्रान्त की गोड़ऊ लोकनाट्य शैली में शिव-विवाह प्रसंग का रसमय मंचन हुआ वर्तमान में विलुप्त प्राय तीव्र गति से होने वाले अथवा हुड़का नृत्यों की बहुलता वाली इस शैली को बक्सर के प्रभुकुमार गोंड के निर्देशत्व में तैयार किया गया था। लगभग डेढ़ घण्टे की नृत्य संगीत और व्यंग्यात्मक वार्तालाप वाली यह प्रस्तुति लोकतत्वों से परिपूर्ण थी। लोक नाटक में राजा हिमालय के पुत्री के विवाह की चिंता, पर्वत राज कन्या पार्वती के विवाह के अवसर पर शिव का डाकिनियों, भूत -प्रेतों, चुड़ैलों वाली बारात लेकर आना, दैवीय जल से शिव का दिव्य रूप में परिवर्तन और फिर विवाह समारोह को लोक स्वरूप में प्रस्तुत किया गया। गोड़ऊ लोक नाट्य विद्या के संबंध से हमने प्रभु कंमार गोडं से चर्चा की। उन्होंने बताया कि बिहार के बक्सर, कैमूर रोहतास इत्यादि क्षेत्रों में गोंड जाति द्वारा भोजपुरी भाषा की मिठास लिए किए जाने वाले प्रदर्शनों में दो उंगलियों से बजने वाले हुड़का वाद्य की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। डमरू सृदश दिखने वाले हुड़का की थापों से जब द तिन द तिन अथवा तिन दा तिनदा की ध्वनियां निकलती हैं तो दर्शक झूम उठते हैं। प्रभु कुमार यह भी बताना नहीं भूलते कि अहल्या माता के पूजकों की धरती बक्सर जिलें में सोनगंगा के तट अथवा जंगलों की रहवासी गोंड जाति के लिए हुड़का की महत्ता इतनी अधिक है कि ये लोग मानते हैं हुड़का वाद्य की पूजार्चना से ही वंशवृद्धि संभव हो पाती है। यहां तक कि विवाह अवसर पर ढोलक के स्थान पर हुड़का ही पूजी जाती है।
काहंवा में ए हुड़का तोहरों जनमिया
काहंवा में प्येल पैसार ए हुड़का
गोड़वे के घरवा हुड़का तोहरो जनमिया
गोड़वे के घरवा प्येल पैसार ए हुड़का
काहे खातिर गोड़वा हुड़का तोहरे के पूजले
काहे खातिर पूजे ओका कुल खानदान
बेटवे कारण भइले हमारो जनमिया
बेटवे खातिर पूजे ओका कुल खानदान
इन पंक्तियों के माध्यम से हुड़का की महत्ता स्पष्ट हो जाती है ।खूंटी पर लटके हुडुका की पूजा समय समय पर होती रहती है।
शिव को अराध्य के रूप में पूजने वाली गोंड़ जाति सदा शिव के डमरू से गहनासक्ति रखती है। इसीलिए डमरू से साम्यता रखने वाला हुड़का सम्भवतः उसका साध्य बन जाता है। गोड़ऊ नाट्य कला के संदर्भ में प्रभु कुमार ने हमें बताया कि शास्त्रीयता से परे लोकाभिव्यक्तियों व लोकभिनय प्रधान इस लोक नाट्य में व्यंग्यात्मक शैली में सामाजिक कुरीतियों और बदलते मूल्यों पर प्रहार किया जाता है। प्रभु कुमार के अनुसार लोकानुरंजन के समय सबसे पहले हुड़का, झाल, कंठताल, मंजीरा और पखावज लिए संगतकार मंच पर विराजते हैं। सभी वरिष्ठ कलाकारों के चरण स्पर्श कर लोक कलाकार लोकदेवी-देवताओं का सुमिरन करते है।
पहले चरनिया मनाइला डीहवार बाबा के
डीहवार बाबा हो आ गइनी सरन तोहार
दूसरा चरनिया मनाइला सायर मइया के
सायर माई हो आ गइनी सरन तोहार
यों गाकर लोक देवी देवताओं का आवाहन किया जाता है।सभी देवी देवताओं को गुड़ चढ़ाने की औपचारिकता के साथ कार्यक्रम की शुरुआत होती है। संगीत तेज होने के साथ ही सभी पात्र ठुमकते हैं, इसके बाद पात्र जो मंडी का अगुआ (व्यास) होता है, वह देवी गीत गाता है। नर्तक (लौंडा) नृत्य करता है। आंगिक अभिनय से किसी पात्र को जीता है। और फिर जोकर की प्रविष्टि होती है। जोकर दो होते हैं। विदूषक की वेश भूषा हास्यास्पद बनाई जाती है। उनके मुखौटे लगे रहते हैं। जो अपनी प्रविष्टि के साथ ही संवादो से स्वयं को हेय दृष्टि से देखने के लिए विवश करता है। उसके बाद दर्शकों की खिल्ली उडाता है। और पात्र से दर्शकों को जोड़ देता है।
मैया आवा आवा न तोके चुनरी चड़ावात
तोहरे दुअरे खड़े है मैया आवा आवा न
तोहके दुधवा चड़ावत ह मैया आवा आवा न
गांवों में पूरी रात चलने वाले गोड़ऊ लोक नाट्य के आयोजन हेतु पूर्व में मशाल जलाने की परंपरा थी आजकल उसका स्थान दीये के प्रकाश ने ले लिया है। मंडली का अगुआ जिसे ब्यास कहते है देव गीत से लोकनाट्य खोलता है। स्त्री पात्रों की भूमिका में पुरूषों (लौंडे) के प्रवेश के साथ ही गीत नृत्य प्राधान्य लोक नाट्य में गति आ जाती है। बीच-बीच में मण्डली के दो विदूषक अपने हास्यपरक आंगिक अभिनय से दर्शकों को गुदगुदाते हैं।विचित्र वेशभूषाओं और मुखौटों के प्रयोग से मसखरे अपने चुटीले संवादों से सामाजिक राजनीतिक सामंतावादी व्यवस्थाओं पर चोट करता चलता है। जिसे कुजड़ा संवाद कहा जाता है।मर्यादाएं लांघने पर विदूषक को बांस को काटकर बनायी गई झाड़ूनुमा घरनाठ के प्रहार से सीमाओं में रहने के लिए सचेत भी किया जाता है। प्रभुकुमार जी ने बताया कि बिहार में धोबिया, धोबिनियाँ, नट नटी, सती बिहुला, भाँट पवरिया, समा चकेवा, नौटंकी और बिदेसिया आदि प्रचलित लोक नाट्य परम्पराएँ हैं। लेकिन पूर्ण स्वायत्त और उन्मुक्तता लिए गोंड नाच या गोंड नाट्य शैली अपने आप में अनूठी है। इसकी विषय वस्तु लोक भाषा, वेशभूषा और विधि वैशिष्ट्य लिए हुए है। मूल रूप से इस नाच शैली का कोई संरचनात्मक ढाँचा नहीं है।
उनकी मानें तो आज भी बिहार के गांव देहात में बारात में गोड़ऊ लोक नाट्य व नाच मंडली के पहुँच जाने भर से डीजे की ज़रुरत नहीं पड़ती। लड़के के घर में परिछावन प्रारम्भ होने से लेकर लड़की की विदाई तक की सभी रस्मों में ये लोककलाकार लोकानुरंजन का कार्य करते हैं।वे यह अवश्य स्वीकारते हैं कि फ़िल्म और टीवी जैसे दृश्य माध्यमों ने विधा और लोक नर्तकों का जीवन यापन कठिनतर कर दिया है।प्रभु के अनुसार कुछ विद्वान् हमारी कला को प्रतिरोध की अभिव्यक्ति भी कहते हैं क्योंकि इसमें मन की भड़ांस निकलने का भरपूर अवसर मिलता है जैसे
फंसवलस रे अगुअवा नतिया जान के
बामना के पोथी जरे, नउआ के बेटा मरे
अगुअवा के पतोहिया मुसमात रे… फंसवलस
इस दर्दीले गीत में उपेक्षित स्त्री की व्यथा कथा सामने आती है वह शादी व्यवस्था को कोसती है।छठ पूजा, तिलक, विवाहादि, बाल उतारने, जन्मदिवस समारोहों में आमंत्रण पर 12-15 कलाकारों की यह मंडली आवश्यक्तानुसार घर, आंगन, गली, मैदान कहीं भी सहजता से मंचन कर लेती है।
इस प्रदर्शनकारी कला को मेहनत मजदूरी करने वाले गोंड जाति के लोगों ने पाला और पोसा है। पत्थर काटने, पत्ता संग्रह करने और लकड़ी बीनने के कार्य में संलिप्त रहने वाले ये लोग सोन गंगा के तट पर या जंगलों में घनी वन सम्पदा के बीच रहते हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी अन्य राज्यों की भांति गोंड सम्प्रदाय बहुतायत में है। प्रभु बताते हैं कि नाट्य प्रदर्शन पूरी रात चलता है, कभी कभी लघु आकार के जैसे धोबिन ऊँट वाली और भालू वाला इत्यादि पर भी नाटक प्रस्तुत किये जाते हैं। किसी घटनाक्रम की तात्कालिक मौखिक प्रस्तुति इस नाट्य परंपरा की एक और विशेषता है। इसमें गीतों और संवादों की प्रधानता रहती है। राजनैतिक उठा-पटक, किसी व्यक्ति विशेष का बड़बोलापन, सामजिक भेदभाव को नाटक के माध्यम से प्रदर्शित करना, मंच के बगैर गली नुक्कड़ आँगन घर चौराहे पर खड़े होकर बेबाकी से अपनी बात कहने की परंपरा ही गोंडऊ नाट्य परम्परा है।गोंडऊ लोक नाट्य शैली का लिपिबद्ध साहित्य नहीं मिलता जैसा कि अन्य लोक धर्मी परंपराओं का मिलता है। कथा गीतपरक दोहे-चौपाई, सद्यःप्रसूत, कल्पित संवादों और लास्यागों वाली अनोखी मौलिकता लिए सामने आती जाती है। आज मंच पर दीपक जलता है। पहले मशाल जला करती थी । अब तो एक बड़ी बोतल में कपड़े की मोटी बाती डालकर उसे मशाल का स्वरूप दिया जाता है। बोतल में मिटटी का तेल डालकर मुंह वाले भाग में गीली मिटटी लगाईं जाती है। एक व्यक्ति उसे हिलाकर रौशनी धीमी पड़ने पर भभकाता रहता है।वर्तमान में आधुनिकता की विकृतियों के कारण संघर्षशील गंवई संस्कृति के बीच हुड़का नाच परंपरा को भी बचा पाना प्रभु कुमार गोंड जैसे लोक कलाकारों के लिए असंभव प्रतीत हो रहा है वे बताते हैं कि मूलरूप से धान और चना की खेती मजदूरी, फूटकर काम करने वाली गोंड जाति की युवा प्रतिभायें इसमें रूचि नहीं लेतीं मोबाईल ने लोकरंजन की गोड़ऊ लोक नाट्य शैली को अधिक प्रभावित किया है।नए सृजनशील कलाकरों का आभाव उन्हें अखरता है। जो दर्शक के मनोभाव भांपकर तत्क्षण संवादों में बदलाव लाने का सामर्थ्य रखते हैं।
इसी कारण उनकी मण्डली के अधिकांश लोक कलाकार 60 वर्ष से अधिक उम्र के हैं। यद्यपि गोंडऊ नाच परंपरा ने वह दिन भी देखे हैं जब बच्चोें के तिलक और मुंडन आदि के शुभ अवसर पर माएं अपना आंचल बिछाकर गोंडउ कलाकारों की अगवानी किया करती थी। उसी आँचल पर लौंडा नाचकर अशीष गीत गाता था उसे उन दिनों में 1000 रू. की राशि ईनाम में दी जाती थी। कुजड़ा – कुजड़िन की हंसी ठिठोलियों में रुचने वाला लोकमानस यहां तक कि सिनेमागृहों का रास्ता तक भूल चुका था।
स्नातक उत्तीर्ण प्रभुकुमार अब अपने पूर्वजों की श्रृंगारिक धार्मिक और सामाजिक कथानकों वाली परंपराओं को लिपिबद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं। वे बताते हैं धोबी-धोबनिया का ‘दुमखच’ जिसमें बारात में पुरूषों की रवानगी के पश्चात घर में छूट गई महिलाएं डकैती के डर से मोहल्ले को जगाये रखने की गरज से जुलवा की नकलें व स्वांग करती थीं उन्हें भी सहेजने के दायित्व उन्होंने उठाया है। ‘बकलौल’ दहेज की कुरीति से बचने के लिए 18 साल की नववधु और उम्र दराज पति (बुड़बक) वाला विवश तरूणाई प्रहसन जो लोक रसिकों को दुलराता -झकझोरता है को भी उनके द्वारा पृष्ठांकित किया जा रहा है।
हुड़का वादक नाट्य की परिधि के मध्य का केन्द्र बिन्दु होता है। जो स्वयं स्फूर्तवान् नर्तकों का संचालन अपने ध्वनि संकेतों से करता चलता है। उसके संकेत पाकर ही नर्तक तेजी से हिलता डुलता ठुमकता है और पुनः पैतरा बदलता है। मुरदार शंख रगड़ कर, होंठरानी लगाकर, राख से काजल (करीखा) बनाकर बनावटी बालों के उपयोग से सादगी भरी देहाती साज-सज्जा में जब इनका अंग-अंग फड़कता है तो लोक में थिरकन पैदा करता है। यद्यपि भावावेश में पात्रों द्वारा परिवेश से प्रभावित होकर अश्लील गाली-गलौज और फब्तियां कसने से इस लोकनाट्य शैली को उत्कर्ष के बाद अपकर्ष का भी सामना करना पड़ा है।प्रभु भी सहमति जताते हैं , इस बात की चिंता प्रभु कुमार जैसे संवेदनशील कलाकार को भी सताती है और वे भरसक प्रयास करते हैं कि मंच पर उनके दल के सदस्य संयमित और मर्यादित संवादों का ही प्रयोग करें ,वे निरंतर परिवर्तनशील प्रदर्शनकारी लोक कलाओं के संरक्षण संवर्धन के लिए किये जा रहे सरकारी प्रयासों को नाकाफी मानकर इस लोकनाट्य कला को और अधिक प्रश्रय देने की वकालत करते हैं। वे गोंडजाति के युवाओं को घर-घर जाकर समझाते हैं।मोबाईल संस्कृति के कारण कई युवा कलाकार इस लोककला से छिटके अवश्य हैं पर प्रभु के धरोहर को बचाने के आवाहन से कुछेक जुड़े भी हैं अपनी शैली में वे बताते हैं “हम साग सब्जी बेचहिं बटिया प खेती करहीं कि इ कला क जिंदा रखीं ठीक ह जब तक करत हईं करत हई इ कला आपन पूर्वजन क धरोहर ह एके सहेजल आपन धरम ह”। अपनी प्रभावकारी कला से ‘शिव-विवाह’ के प्रस्तुतिकरण से दर्शकों को बिहार की लोकसंस्कृति से परिचित कराने वाले प्रभुकुमार गोंड, नंदजी गोंड, संजय गोंड, श्रीनिवास गोंड़, दहारी गोंड़, भीम राठौर, हुड़क पर भृगुनाथ गोंड़, मंजीरे पर कमला गोंड़, श्रीकांत गोंड, मोतीलाल और गुप्तेश्वर गोंड़ की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम ही होगी।
Excellent write up.
Thank you so much for the write up and video.
Excellent reporting.
Regards
Marami Medhi ?
Superb
वाह बहुत ही सुन्दर
आपने तो हम लोगों का नाटक का इतिहास लिख डाला बहुत अच्छा लगा अब तक तो हमारी शैली को कोई इतना प्यार नहीं किया जितना आप ने दिया है
Bihar me hudka naach ke rup me ye famous dance form lupt ho raha hai isme purush hi mahila patra ban nachte accha laga
Very nIce…OLD Traditions must be preserved….well carried out..
आपने बिहार का गोड़ ऊ नाच का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है परन्तु मै जहाँ तक समझता हूँ ये गोड़ जाती और उनका नाच सिर्फ बिहार का कहना ठीक नही होगा क्योकि ये गोड़ जाती बिहार के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी अच्छी खासी तादाद में पाये जाते हैं हमारे आजमगढ़ और मऊ जिले में खूब है और इनका हुरका नाच बहुत ही शौक से लोग देखते है हमारे गाँव के देवीजी के मन्दिर पर साधारणतया हर मौके जैसे मुंडन शादी और पूजा पर खूब देखने को मिलता है हमारे घर के पीछे काफी संख्या गोड़ लोगों की है आप ने लिखा है कि ये सिर्फ पुरुष ही करते है परन्तु हमारे घर के पीछे एक गोड़ीन थी उसके जैसा गोड़ऊ नाच करने वाला हमने नहीं देखा जिसका पिछले वर्ष ही देहांत हो गया परन्तु आपका लेख व गोड़ो का प्रोगाम देख कर गाँव की याद ताजा हो गई ।
हम सभी गोंड भाइयों को गोंड लोक नृत्य और संस्कृति की रक्षा और विकास के लिए अपने सभी विशेष कार्यक्रमों में गोड़ाऊ नाच को शामिल करना चाहिए