कथक गुरू मरामी मेंधी की सुरसंगम संस्था द्वारा असमिया संस्कृति की अभिनंदनीय प्रस्तुति
इसी दिन असमिया संस्कृति की सप्राणता लिए आर्यनृत्य नाटिका की अभिनंदनीय प्रस्तुति ने दर्शकों को प्रारंभ से अंत तक बांधे रखा। कथक गुरू मरामी मेंधी की सुरसंगम संस्था के आठ अन्य प्रतिष्ठित नर्तकों ने अपने अभिनव प्रदर्शन से देवी स्तुति सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके शरये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते से कार्यक्रम का आरंभण किया। जो आद्या देवी वो आर्य देवी हे परमेश्वरी! के लालित्यपूर्ण गरिमायी प्रदर्शन में कथक नृत्य की लखनऊ परंपरा की रसात्मकता के दर्शन हुए।
‘भोर’ के अन्तर्गत विविध हस्त मुद्राओं से ‘झांझ’ का संचालन तीव्रता के साथ करके आल्हादकारी ध्वनियाॅं उत्पन्न कर उल्लासमय वातावरण सर्जित किया गया। असम के बारपेटा जिले के सीपाझाड़ क्षेत्र के इस अत्यन्त लोकप्रिय नृत्य में असमियां लोक संस्कृति की तत्परता और शास्त्रीय नृत्य की नैंरतर्यता का अद्भुत समागम देखने को मिला। सत्रीय नृत्य शैली से उद्भूत इस नृत्य के पश्चात् असमिया लोक नृत्य ओझा पाली में शुम्भ-निशुम्भ और महिषासुर वध के दृश्यों का भाव प्रधान प्रदर्शन किया गया। श्रीमंत शंकर देव सत्रीय नृत्य शैली के जनक रहे हैं। माधव देव ने इसे और परिष्कृत कर ओजापाली, में अभिनय, हस्तक चारी भेद, पद संचालन, अंग उपांगों का समावेश किया था ।उसी की समन्विति को मंच पर देखकर दर्शक आनंदित थे।
दुर्गतिनाशिनी मां दुर्गा के रौद्र रूप के मंचन के लिए असमिया लोक नृत्य शैली देवधानी का उपयोग मरामी जी ने अत्यन्त कौशल्य के साथ किया । देवरमण अर्थात देवी के शरीर में आने की परिपाटी को जीवंत करती कथक गुरू मरामी मेथी की यह ओजमयी प्रस्तुति भी आकर्षक रही। गुरु मरामी की रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि और या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥ में मेखला, कमर पर पीतवर्णी चादरी औरबाएं काँधे पर हरितवर्णी चादर डाले जोन बिरी (चन्द्राकार कंठहार) कर्ण में थूरिया, हाथों में गामखाड़ू (चूड़ियों) से श्रृगारित देवी के सौम्य स्वरूप और दाव (शस्त्र) लिए रौद्रावतार के चित्रण में उनकी रचना धर्मिता और कल्पनाशीलता स्पष्ट प्रतिबिम्बित हो रही थी।
हमने उनसे असमिया नृत्य विधान के संबंध में चर्चा की।उन्होंने नृत्य गुरू सुरेन्द्र सेंकिया से प्रशिक्षित लखनऊ घराने के अग्रणी पं. बिरजू महाराज और पं. राजेन्द्र कुमार गंगानी से मार्गदर्शन प्राप्त कर लखनऊ घराने की अंगों की बनावट और गत निकास को असमिया शास्त्रीय नृत्यों के साथ सम्मिलित कर लावण्यमय लास्य पैदा करने में दक्षता अर्जित की है। मरामी जी जितनी सुन्दर दिखती हैं उतनी ही बल्कि उससे कहीं अधिक सौदंर्य अपनी प्रस्तुतियों में उडेंलती हैं।वे जितनी मृदुभाषी हैं उससे कहीं अधिक मंजुलता उनकी प्रस्तुतिओं में परिलक्षित होती है।
वे बताती हैं कि उनकी सौंदर्याभिरूचि मंच पर प्रकाश की उत्तम व्यवस्था, सहनर्तकों के परिधानों और आभूषणों में सौंदर्य बोध की सर्जना करती है। वे एक -एक पहलू पर सूक्ष्मता से मंथन करती हैं ,उनका यह मंथन कई दिनों तक चलता है ,वे बारीकी से सभी बिंदुओं पर गौर करती हैं। इन दिनों गुवाहाटी में संचालित उनके नृत्य प्रशिक्षण कला केन्द्र में 150 से अधिक प्रशिक्षु असम के लोकनृत्यों सहित कथक की बारीकियों से पारंगत हो रहे हैं। उन्होंने बताया कि मध्य आसाम के मंगलदेई स्थान पर देवधानी नृत्य का प्रभाव अधिक दिखाई देता है।उसी से प्रभावित होकर उन्होंने अपने कार्यक्रम में देवधानी की गत्यात्मकता को सम्मिलित किया है।
शाक्त परम्परा के गढ़ असम जहां देवी कामाख्या का तांत्रिक पीठ है की पावन भूमि पर 15वीं सदी ईसवी में वैष्णव मठाों की स्थापना का श्रेय श्रीमंत शंकर देव को जाता है जिन्होंने नृत्य को अराधना संकीर्तन तथा कथावाचन शैली में निबद्ध कर वैष्णव मत के प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम बनाया था ।उन्होंने ही सर्वप्रथम स्थानीय नृत्य के समस्त घटकों के सम्ममिश्रण से एक नई नृत्य शैली का सूत्रपात किया जिसके माध्यम से गायन व नृत्य ही नहीं धार्मिक आख्यानों को लोकग्राहय बनाया जा सका। समग्र असम में ऐसे पूजा केंद्र ‘नामघर’ कहलाये। शैव शाक्त, गाणपत्य परंपराायें असम की पूज्य भूमि पर पल्लवित हुईं पनपीं और विकसीं। मेधामी बताती हैं कि लंदन, मिस्त्र, फिलिस्तीन, इजराइल, न्यूजीलैण्ड, सउदी अरब, बांग्लादेश आदि देशों में उनकी कला को विशेष सराहना मिली। लेकिन सर्वाधिक प्रशंसा उज्जैन के सभागार में मिली जिसके स्मरण मात्र से आज भी उन्हें स्वार्गिक सुख मिलता है। उनका मानना है कि उज्जैन स्थित हर सिद्धि और असम में कामाख्या शक्तिपीठों की विद्यमानता के कारण भी सम्भवतः उन्हें ऐसी अनुभूति हुई हो। उनकी प्रस्तुति में पुत्री मेघरंजनी मेधी, सुकन्याबोरा, अमृतप्रवा महंता, बरनाली कलिता, हिमश्री शर्मा, हृदयपरेश कलिता की सहभागिता महत्वपूर्ण रही यहां श्री कौशिक की प्रकाश व्यवस्था का उल्लेख भी आवश्यक है। असमिया लोक संस्कृति के प्रसार हेतु निष्ठापूर्वक सेवा करना जिनका परम ध्येय हो ऐसी प्रतिभासम्पन्न कथक गुरू मेधामी मेधी की कला साधना असमिया लोक कलाओं के उन्नयन में विशेष उपलब्धि कहलायेगी।
Excellent write up.
Thank you so much for the write up and video.
Excellent reporting.
Regards
Marami Medhi ?
Superb
वाह बहुत ही सुन्दर
आपने तो हम लोगों का नाटक का इतिहास लिख डाला बहुत अच्छा लगा अब तक तो हमारी शैली को कोई इतना प्यार नहीं किया जितना आप ने दिया है
Bihar me hudka naach ke rup me ye famous dance form lupt ho raha hai isme purush hi mahila patra ban nachte accha laga
Very nIce…OLD Traditions must be preserved….well carried out..
आपने बिहार का गोड़ ऊ नाच का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है परन्तु मै जहाँ तक समझता हूँ ये गोड़ जाती और उनका नाच सिर्फ बिहार का कहना ठीक नही होगा क्योकि ये गोड़ जाती बिहार के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी अच्छी खासी तादाद में पाये जाते हैं हमारे आजमगढ़ और मऊ जिले में खूब है और इनका हुरका नाच बहुत ही शौक से लोग देखते है हमारे गाँव के देवीजी के मन्दिर पर साधारणतया हर मौके जैसे मुंडन शादी और पूजा पर खूब देखने को मिलता है हमारे घर के पीछे काफी संख्या गोड़ लोगों की है आप ने लिखा है कि ये सिर्फ पुरुष ही करते है परन्तु हमारे घर के पीछे एक गोड़ीन थी उसके जैसा गोड़ऊ नाच करने वाला हमने नहीं देखा जिसका पिछले वर्ष ही देहांत हो गया परन्तु आपका लेख व गोड़ो का प्रोगाम देख कर गाँव की याद ताजा हो गई ।
हम सभी गोंड भाइयों को गोंड लोक नृत्य और संस्कृति की रक्षा और विकास के लिए अपने सभी विशेष कार्यक्रमों में गोड़ाऊ नाच को शामिल करना चाहिए