राजस्थान के चितौड़गढ़ के घोसुण्डा की कलगी तुर्रा शैली

राजस्थान

भोपाल स्थित मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय के सभागार में राजस्थान के चितौड़गढ़ के घोसुण्डा कस्बे से पधारे कलगी के उस्ताद मिर्जा अकबर बेग काग़ज़ी के निर्देशत्व में तुर्रा कलगी शैली में निबद्ध राजकुमारी फूलवंती की आकर्षक प्रस्तुति ने मन मोह लिया। डेढ़ घण्टे के इस अभिनव प्रस्तुतीकरण में दर्शक आद्यंत सम्मोहित हुए से बैठे रहे। सूरजगढ़ के राजकुमार फूल सिंह के विवाह संबंधित कथानक में फूलसिंह भाभी संवाद, रूष्ट राजकुमार के बड़े भाई का उन्हें मनाना, फूलसिंह का चन्दरगढ़ में प्रवेश और मालिन द्वारा उन्हें शरण देना, स्त्री भेश में महल में राजकुमार फूलसिंह और राजकुमारी फूलवंती का परिसंवाद, ये समस्त प्रसंग निरालापन लिए सामने आए और सभागृह में उपस्थित दर्शकों को रस स्निग्ध करते गए। गणेश सुमिरण से आरंभ हुई राजकुमार फूलवंती की कथा में चलो ऐ जी आये हम में झाड़सईं, साँचे में ढला है हुस्न मेरा नूरानी में लावणी, क्यों पड़ा है इश्क के फेरे में चूंदड़ी, मालिन गीत मस्तानी आई है में गजल, दिल को आए करार में मंडावर, मैंने कैसी बारात बनाई सिंधु मुण्डावर, मैं तो दर्शन के कारण में रसिया की रंगतों का प्रभावकारी प्रदर्शन किया गया। अंत में तुर्रा कलगी को अंग्रेजी में समझाते हुए गीत ने तो और भी आनंद ला दिया। हमने पचहत्तर वर्षीय अकबर काग़ज़ी से उनकी कलायात्रा और तुर्रा-कलगी लोक विद्या में उनके पूर्वजों के अवदान के संदर्भ में चर्चा की।

 

उन्होंने बताया कि ख्याल गायकी की परंपरा हसन बेग साहब से लेकर उनके पिता मिर्जा खाजू बेग साहब और उन तक पहुंचते-पहुंचते लगभग साढ़े चार सौ सालों का सफर तय करती आई है। अपने पूर्वजों द्वारा सौंपी गयी संगीत प्रधान लोकनाट्य शैली को निष्ठापूर्वक सहेजने वाले अगबर काग़ज़ी बताते हैं तुकनगीर और शाहअली दो दंगलबाज संतों ने लोक में पारस्परिक सौहार्द की संकल्पना से तुर्रा कलगी बैठकी ख्याल गायकी परंपरा का प्रवर्तन किया। जिनसे दो अखाड़ों का सूत्रपात हुआ। तुकनगीर और शाहअली के बैठकी दंगल से प्रसन्न होकर तत्कालीन शासकों द्वारा उन्हें तुर्रा और कलगी सम्मान के रूप में दी गयी। तुर्रा और कलगी राजा की पगड़ी पर सुशोभित होने वाले दो आभूषण रहे हैं तो इस प्रकार तुकनगीर तुर्रा के और शाहअली कलगी के संस्थापक कहलाये। तुर्रा में शिव और कलगी में पार्वती की प्रतीकात्मकता उभर कर सामने आयी। जाजम बिछाकर दो अखाड़ों के मध्य होने वाले काव्यात्मक शास्त्रार्थ लोकग्राह्य होने के कारण लोकप्रिय हुए। मिर्जा काग़ज़ी के अनुसार ख्याल गायकी की समता मूलक इस विद्या का यों तो आगरा के निकट प्रारंभण हुआ राजस्थान के मेवाड़ में तुर्रा के उस्ताद श्री चैनराम जी गौड़ और घोसुण्डा के कलगी उस्ताद मिर्जा खाजूबेग जी ने गीतबद्ध दंगलों को विस्तार दिया। जिसका प्रभाव यह हुआ कि राजस्थान के चित्तौड़गढ़ से सटे निम्बाहेड़ा करौली हिण्नडौन, भरतपुर, किशनगढ़ से होते हुए यह कला मध्यप्रदेश के मालवा अंचल में भी जन-जन तक पहुंची। तुकनगीर के अनुयायी भगवा ध्वज के साथ और शाहअली को मानने वाले हरी पताका के साथ शिव-शक्ति की प्रशंसा में कवित्त दोहे- चैपाई लिए आमने सामने हो गए। पुर्लिंग व स्त्रीलिंग के विभेद वाले तुर्रा में पुरूष अखण्ड ब्रम्हचारी तथा कलगी में नारी अक्षत कुंवारी की अवधारणा लिए ख्यालों की रचनाएं हुईं।

चंग या डफ के साथ-साथ शहनाई ढोल-पेटी और नगाड़े वाले संगतियां सम्मिलित हुए। मशाल के प्रकाश में रात-बिरात चलने वाली महफिलों में पारस्परिक कटाक्षों और व्यंगात्मक चुटकियों की भी वर्षा होने लगी। यह बात अलग है कि उनकी वाकपटुता कभी भी वाककटुता में नहीं बदली। चौक चौबारे गलियां मण्डियां ख्याली दंगलों की चर्चाएं होने लगीं। मिर्जा काग़ज़ी उदाहरण देकर बताते हैं-
कलगी- झण्डी झक मारे माणक चौक में तुर्रे वालों की तुर्रा तुम्हारा ब्रह्म है कलगी जनानी आप की
तुर्रा-   तुर्रे के संग भेज दो होगी मेहरबानी आपकी अगर नहीं भेजोगे तो होगी खराबी आपकी
कलगी- बाप की वो माने जिसके कि बाप हो बिन बाप का तुर्रा तुम्हारा तुर्रे वाले आप हो
तुर्रा-   तुर्रा तुम्हारा भ्रम है अकल करनी आपकी जनानी जननी को कहो बस यह नादानी आपकी
बेहूदा गर बका ऐसी दूंगा थापकी मिर्जा खोजूं का पट्ठा हूं धौंस नहीं तेरे बाप की (रदीफ काफिया)
आज महफिल में हूं कहने का मौका है।
अपनी मां को लेके जाओ किसने रोका है।

गीतों के माध्य से होने वाले दंगल में झाड़सई, मुंडावर, सिंधु मारवाड़ी, बहर तबील, बहरदून, चैअंग, तैअंग, दादरा अठंग, तिलोना, कहरवा के अतिरिक्त गजल, चूंदड़ी, छोटी कड़ी-बड़ी कड़ी, रसिया आदि रंगतों की प्रयुक्ति से जान डाली जाती है। असीर होना पड़ा है मुझको हुआ जो शहदा जो गुलबदन का बला का बुज़दिल का बाग़वान का बेरुख़ी का इस प्रकार से आठंग लिखा जाता है जिसमें आठ बार ब शब्द की पुनरावृत्ति होती है। स्वयं काग़ज़ी साहब ने भी गणपति वंदना लिखी है जिसमें न शब्द का पुनरावर्तन हुआ है
गणपति जय गजवदन
शुभ गुण सदन
यक रदन शुद
कारन करन
अति वेद्यतन
राखो प्रण तारन तरन
गुण ज्ञान घन
होके मगन टालो विघन
कहे जगजगन लई तब शरन
सखी-नमो गणपति सभी गजवन
शंभु सुत पार्वती नंदन
झलकता मस्तक पर चंदन
निरख छवि कहें संतन घन
नमों नित गुरू गणेश ज्ञानी
करो अकबर की इलम बानी
तुर्रा कलगी की प्रतिस्पर्धात्मक संगति में संवादप्रधान प्रश्नोत्तर के माध्यम से अपने पक्ष को प्रमाणित करने का प्रयोजन होता है। इस प्रसिद्ध लोकगायकी में तुर्रा दल शिव की श्रेष्ठता उद्घोषित कर सृष्टि की उत्पत्ति के मूल में शिव को स्थापित करता है और कंलगी दल परा शक्ति को संसार की उत्पति का कारण मानता है। इस विद्या में छन्दों की उचित प्रयुक्ति और उसकी अंतिम पंक्ति को पकड़कर प्रत्युत्तर देने की होड़ में ‘दलीलों’ का विशेष महत्व रहता है। कुल मिलाकर अपने बुद्धि चातुर्य और वाक्प्रतिभा से दोनों प्रतिद्वंदी लोकदर्शक के बीच चमत्कारिक प्रभाव छोड़ने का कार्य बड़ी सावधानी से करते हैं। जाजम बिछाकर प्रतिदिन आयोजित होने वाली बैठकों में चंग के साथ गणेश जी और गुरू के सुमिरनों के साथ रिहर्सल होती हैं। मिर्जा काग़ज़ी गाकर बताते हैं हमारे यहां शास्त्रार्थ की परंपरा है-
शिव शक्ति का है जोड़ा वेदों में सार है।
सच पूछो तो तुर्रा कलगी का यार है
जाओ जिधर भी देखो मचा हाहाकार है।
अबला के संग अनीति और भ्रश्टाचार है।
तुर्रा हमारा ब्रह्म कलगी तुम्हारी माया
वेदों के लेख पढ़ लो मिट जायेगा भ्रम अब इस रंगमंच पर लड़ना बेकार है।
सच पूछो तो तुर्रा कलगी का यार है।

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Comments

  1. मिर्ज़ा अकबर says:

    आपने तो कमाल का लिखा है हम पर अहसान किया है हमारी कला को इतनी इज़्ज़त बख्शी है जो आपने किन शब्दों में आपका शुक्रिया अदा करूँ नहीं जानता पर ख़ूब लिखा है आपने ,हमारे फ़न को इससे फ़ायदा होगा यही उम्मीद है

  2. Rini says:

    बहुत सुंदर वर्णन।

  3. वीरेन्द्र सिंह says:

    भोपाल में राजस्थान से आये हुये कलाकारों द्वारा प्रस्तुत किया गया प्रोग्राम का विडियो बहुत ही कमाल का लगा राजस्थान का ये लोकगीत एवं संगीत तो वैसे ही सबका मन मोह लेता है उसमें भी ये नयी कला राजस्थान की तुर्रा-कलगी बहुत ही रोचक है इस की जो प्रस्तुति की गई है वो बहुत ही कमाल की है दर्शक क्या पसंद करते हैं इस बात को समझ कर उसकी पसंद को अपने कला में शामिल करना ये इन कलाकारों की सबसे बड़ी विशेषता है जिस तरह से इन कलाकारों ने शुरूआत किया वह बहुत काबिले-तारीफ है, और आपने जो इनके उपर अपनी कलम चलाई है आपने ने चार चाँद लगा दिए हैं ।

  4. बलदेव महर्षि says:

    नमस्ते
    मेरा नाम बलदेव महर्षि है, मैं राजकीय महिला महाविद्यालय सिरोही में असिस्टेंट प्रोफेसर हूँ और राजस्थान के हिंदी रंगमंच और लोकनाटय पर काम कर रहा हूँ । चित्तौड़ की कलगी शैली पर आपने लिखा है , लेकिन वह मेरे मोबाइल में खुल नही पा रहा । मुझे उस लेख की जरूरत है सन्दर्भ के लिए ।
    कृपया मदद करें।
    शुक्रिया

  5. डॉ हंसराज नागर says:

    कलंगी तुर्रा शैल का बहुत अच्छा ब्लाग इसके माध्यम से राजस्थानी संगीत कला का आंनद लिया धन्यवाद दिशा जी

  6. श्री ललित शर्मा झालावाड़ says:

    राजस्थान की लोक कलंगी तुर्रा कला पर बहुत सुंदर ब्लाग है 👌इसे आधार बना कर बड़ी शोध की जा सकती है, आभार आदरणीय दिशा जी🙏

  7. Rahul Rao says:

    हमारे गांव कि इस कला को आपने उचित शब्दों में समझाया है, बहुत बहुत धन्यवाद 🙏🏼

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