कश्मीर के अनंतनाग की भांड पथर चौराहा नाटक शैली

कश्मीर

मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय के सभागार में कश्मीर की लोक प्रचलित चौराहा नाटक शैली ‘भाण्ड पथर’ प्रहसन का दर्शी बनना हमारे लिए नये अनुभव से साक्षात्कार करने जैसा था। शिकारगाह पथर शीर्षक से पर्यावरण तथा वनजीव संरक्षण का संदेश देकर कश्मीर की लोक संस्कृति को प्रतिबिम्बित करते प्रसंगों ने देखने वालों को न केवल गुदगुदाया बल्कि सोचने पर भी विवश कर दिया। ‘इम्तियाज अहमद बगथ’ के निर्देशन में की गयी प्रस्तुति में लकड़हारे और चरवाहे के संवाद, शिकारी और चरवाहे के बीच झड़प, चरवाहे और उसकी पत्नी का वार्तालाप, आलसी सिपाही की सजग चरवाहे के साथ विनोदमूलक वार्ता और अंत में राजा द्वारा जंगल को बचाने के प्रति निष्ठावान चरवाहे को वन संरक्षक बना दिये जाने के साथ ही लोक नाट्य का पटाक्षेप हुआ। मंच पर पूरे समय तपस्यारत साधू की उपस्थिति अरण्य क्षेत्र में एकांत साधना करने वाले तपस्वियों की पीड़ा दर्शा रही थी, जंगल कटने का दर्द भूत प्रेतों को भी सताता है शिकारगाह पथर में इसका भी विशेष ध्यान रखा गया। सूक्ष्म कथा को प्रस्तुतीकरण की दक्षता से विशिष्ट बना देने वाली कश्मीर की भांड लोक परंपरा मूलतः कथा कहने वालों की लोकविद्या है। कॉशुर भाषा (कश्मीरी) में मंचित इस लोकनाट्य का प्रारंभ बच्चा नगमा नृत्य की एकल प्रस्तुति से हुआ। कश्मीर की मिश्रित भाषाई विविधता और सूफीमत से प्रभावित इस लोक कला में कश्मीरी फारसी हिन्दी और पंजाबी भाषा के संवाद सुनने को मिलते रहे। शेर, भालू, हिरन की उपस्थिति बच्चों को लुभाती रही।

कश्मीर घाटी के अनतंनाग जिले के अकिनगान गांव में अंतः सलिला झेलम (वितस्ता) नदी के जल से सिंचित धरा पर विशालकाय देवादार, चिनार के वृक्षों के बीच पनपी और विकसी परंपरा को सहेजते ‘बगथ परिवार’ में से एक इम्तियाज अहमद बगथ से हमने “भाण्ड पथर” लोक कला के संदर्भ में जाना उन्होंने बताया कि भांड पथर लोक शैली में सूक्ष्म कथानकों को नुक्कड़ नाटकों की भांति मजमा जमाकर हाव-भावों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता  है। गतानुगत (बरसों से चली आ रही) इस परंपरा में नृत्य, अभिनय, संगीत और संवादों में पिरोकर कथा वस्तु मौलिकता लिए हुए सामने आती है और जन-जन में लोकप्रिय हो जाती है।

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