बुंदेलखण्ड की हास्य-परिहास वाली स्वांग परंपरा

बुंदेलखण्ड की हास्य-परिहास वाली स्वांग परंपरा

हमनें लीलाधर रैकवार से बुंदेली स्वांग से संदर्भित जानकारी चाही तो विदित हुआ कि सामाजिक संदर्भों पर आधारित इस परंपरा का उद्भव रात भर चलने वाले राई नृत्य प्रदर्शन के मध्य नर्तकों और संगतकारों को विश्राम देने के लिए हुआ था। नृत्य की एकरसता भंग करने के लिए बीच-बीच में लोकानुग्रह वाले लघु अवधि के स्वांग डाले जाने की परिपाटी रही है। निर्बल और निर्धन वर्ग की मानसिक संतुष्टि करने वाले इन स्वांगों में विदूषक प्रवृति वाले कलाकारों का जमावड़ा होता है। समाज की विंगतियों को सामने लाने वाले बुंदेली स्वांगों में श्री रैकवार के अनुसार एकदम देहाती परिवेश रहता है। पुरूष ही स्त्री पात्रों का अभिनयन करते हुए साड़ी पहन कर मंच पर अवतरित होते हैं। पावों में धुघंरू बांधे पात्र अभिनय में दक्ष होते हैं। रंगीन चश्मा, लाठी, घड़ी, पोटली, बाल्टी, गमछा (जिससे सौंटा बनता है) के उपयोग के साथ कुर्ता धोती-बण्डी-पहने पात्र भीड़ का अपने हावभाव से मनोरंजन करते चलते हैं। सौंटे का प्रहार विनादेन करने वाले कलाकारों  द्वारा परिस्थिति निर्मित कर गाहे-बगाहे होता रहता है।

मूलतः ढिमरयाई नृत्य में प्रवीण लीलाधर बताते हैं कि उनका दल श्री लोककला नवयुवक मण्डल दिल्ली और चंडीगढ़ के प्रतिष्ठित मंचों पर बुंदेलखण्ड की लोक संस्कृति के रंग बिखरे चुका है। पूना बावरी उनके दल का सर्वाधिक जनप्रिय स्वांग है। वे ब्याह शादी के अवसर पर किये जाने वाले अन्य पारंपरिक स्वांगों के अतिरिक्त वे कन्हैया के धार्मिक स्वांग भी करते हैं। हमने देखा पोंड़ा को मचल गओं मोंड़ा रे पर
उनके दल ने प्रशंसनीय नृत्य प्रदर्शन किया। अपने 80 वर्षीय पिता चुन्नी लाल जी रैकवार के साथ मंच पर केकड़ी (सारंगी) बजाकर बुंदेली गीत गाते हुए उनका मंच पर पुनरावर्तन होता रहा। यों तो बुंदेलखंड की स्वांग प्रस्तुति में मशालची की महत्वपूर्ण भूमिका होती है लेकिन लीलाधर बताते हैं भोपाल में मंचीय प्रस्तुति के मध्य पलीता लगाकर मंछौ (मधुमख्खी के छत्ते) को तोड़ने वाली मशाल जलाने की स्वीकृति न मिलपाने के कारण उन्होंने यह उपालम्ब नहीं किया। मजदूरी करने, खेती, मण्डी और दूकानों पर सेवाएं देने वाले इन लोक कलाकारों में विलुप्त होती स्वांग परंपरा को लेकर असीम चितांए हैं। दल के आधे से अधिक लोकलाकार प्रौढ़ावस्था बल्कि वृद्धावस्था तक पहुंच चुके है। ऐसे में बांकड़ई नदी के किनारे स्थित अपने कुर्रापुर गांव के लोकधर्मी कलाकारों को लेकर वे कबतक इस परंपरा को संजो पायेंगे बता नहीं सकते। यहां हम चऊदे रैकवार, पूरन रैकवार, डालचंद रैकवार, कल्लू रैकवार, खचौरि रैकवार ये वो कुछ नाम हैं जिनका कि उल्लेख करना चाहते हैं इनकी उपस्थिति के बिना कार्यक्रम आनंददायक नहीं बन पाता लीलाधर रैकवार के साथ अमरदीप प्रकाश  रैकवार, मुन्ना सेन के कंठों से निकले सुरीले गीत मन को छू गये। ढोलक पर अमर रैकवार झींका पर दिनेश कोरी लोटा वादन में भगीरथ रैकवार की संगति ने स्वांग को रोचक बना दिया।

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Comments

  1. Hardial s thuhi says:

    Disha ji aap ke pryatan behad srahania hain. Aur raajon ki kalaon Ko aam logon tak pahuchana achhi baat hai.
    Hardial s thuhi

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