गुजरात की भवाई लोकनाट्य शैली, राजस्थान की मांगणियार गायकी

लोकगाथाएं लोक के पुराण हैं इसीलिए इतने वर्षों के बाद भी उनका अस्तित्व विद्यमान है। 13वीं सदी के उत्तरार्ध और 14वीं सदी के पूर्वार्ध में उत्तर गुजरात में अद्भूत लोकनाट्य शैली भवाई का मंचन भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय के प्रेक्षागृह में देखने के उपरांत उरोक्त पंक्तियों की पुष्टि स्वतः ही हो गई। मोरबी (गुजरात) से पधारे विवेकानंद भवाई मण्डली  के 70 वर्षीय श्री हरिलाल पैजा के पुत्र प्रकाश के निर्देशन में 25 लोक कलाकारों के मन हरने वाले पारंपरिक भावमय प्रदर्शन ने हमें भावविह्वल कर दिया। रावत रनसिंह शीर्षक वाले भवाई लोकनाट्य में मोरबी के राजा रावत रनसिंह का मोजड़ी प्रेम प्रसंग, कोटवाल की चापलूसी, अछूत कन्या का भक्तिपरक बोधगम्य ज्ञानवर्धन, राजा का हृदय परिवर्तन और अंत में समाधिस्थ अछूता व राजा का धार्मिक आचरण जैसे प्रसंगानुरूप सहज अभिनय में गुंथी कथा वस्तु दर्शकों का भरपूर रंजन करती रही। पौरूष प्रधान अभिनय का कौशल्य, नृत्य गतियां और लोकधर्मी गीत लिए भवाई लोकनाट्य लोक तत्वों से सोलहआने रंगा हुआ दिखाई दिया। भवाई का प्रारब्ध भूंगल की अनुगूंज के साथ हुआ। गांवों में यहीं भूंगल भवाई आज मंडेगी की सूचना के प्रसारण में प्रयुक्त होता है भवइया वर्ष के चार माह छोड़कर अश्विन मास की नवरात्रि से भवाई करने लगते हैं। हर मण्डली के गांव और परंपरागत यजमान बंधे हुए होते हैं जिनके आमंत्रण पर यह मण्डिलयां चाचर में एकत्रित होकर ढोलक, झांझ और खाली डब्बों, पीपों को बजाकर अपनी उपस्थिति से गांव वालों को अवगत कराती चलती हैं।

गणपति और देवी की अराधना और जयकारे के पश्चात् भवाई भले-भले भाई-भाई रमती करों भवाई के साथ खेल प्रारंभ हो जाता है। सर्वप्रथम रांगला आता है। जो अपने मनो विनोद पूर्ण संवादों और प्रभावोंत्पक मुद्राओं से हसांता जाता है। उसके करतब, हास-परिहास दर्शकों की अग्रिम पंक्ति में बैठे बच्चों को गुदगुदाते हैं, हाथ में कटार और डागला की टोपी लिये मंच पर अपनी प्रविष्टि के साथ ही रांगला उछलता कूदता हुआ दर्शकों के बीच बैसणी (बैठक) लेता रहता है।  नायक वेश के आगमन पर आवणी गाई जाती है। लोकनाट्य के समस्त वेशों के आने पर आवणी (प्रविष्टि की सांकेतिक भाषा) में  सह कलाकारों को  ता थैया थैया ता थैया ता थई आवै छैं गाकर बुलाया जाता है। संस्कारित, मर्यादित तथा धर्मोंन्मुख संवाद और पात्र की मनः स्थितियों के अनुसार हृदयस्पर्शी संगीत भवाई का आकर्षण होता है। गावों में सरपंच की अनुमति लेकर पूरी रात चलने वाले इस लोकनाट्य में अनुरंजन के साथ-साथ शिक्षण का भी प्रावधान रहता है। सामाजिक सरोकारों, लोक विश्वासों, पारंपरिक मान्यताओं, पारस्परिक संबंधों और धार्मिक रीतियों पर आधारित भवाई की विषयवस्तु धार्मिक रूढ़िवादिता, अस्पृश्यता आदि कुरीतियों पर भी कटाक्ष करती चलती है।

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Comments

  1. राम जूनागढ़ says:

    આપને ભવાઈ ખકે બારે મે પુખ્તા જાનકારી પ્રાપ્ત કરકે સુંદર શબ્દાર્થ કે સાથ લિખી હૈ.
    બહુત બઢીયા .
    યુવા પેઢી કો એક નયી દિશા મે, સહી દિશા મે ,સાસ્કૃતિક વારસા કા જ્ઞાન દેને કે લિયે આપકો
    ધન્યવાદ. ?

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