राजस्थान की मांगणियार गायकी
लोकगीत समय और शब्द के महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं जिनमें लोक जीवन के सुख सौंदर्य हास उल्लास, दुख तनाव, संस्कार अनुष्ठान और लोक की धड़कनें समाहित होती हैं। मरूभूमि बाड़मेर के रेतीले धौरों की मांगणियार गायकी में हमें पीढ़िायों की संजोयी स्मृतियों के दर्शन हुए। भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय के सभागार में आयोजित कार्यक्रम में बाड़मेर जिले के शिव सहसील के पुसद गांव से पधारे मांगणियार गायकों के परंपरागत गीतों ने राजस्थान की राग रागिनी आधारित गायकी का रसास्वादन कराया। पश्चिमी राजस्थान के पंथ निर्पेक्ष संगीत को जन-जन में लोकप्रिय बनाने वाले हारमोनियम साधे गफ्फूर खां खड़ताल पर करीम खां, कमायचा पर गफूर खां, भुवेरखान, ढोलक पर फकीर खां की प्रस्तुति सभागार में उपस्थित दर्शक को अत्यधिक रास आयीं। राजस्थान का लोक जीवन यों भी गीतिमय काव्य है और उनमें भी मांगणियार समाज में गायकी का प्रभाव इतना व्यापक है कि यहां बालक गीतों की उंगली पकड़कर चलना सीखता है। किशोर गीतों के शब्द सुनकर युवा होता है, युवा गीतों के अर्थ की डोर पकड़कर प्रौढ़ होता है और प्रौढ़ स्वयं गीत बनकर अनुभव बन जाता है ऐसे ही अनुभवों का निचोड़ है 56 वर्षीय गफ्फूर खां जिन्होंने अपने पिता हैदर खां से मांगणियार गायकी के गुर सीखे। सिंध की गायकी की शैलीगत सभ्यता व निरंतरता मांगणियार को लंगा गायकी के समीप्य लाती है वहीं उसके राजपूत यजमानों, रजवाड़ों, चारण और ब्राह्मणों के ठौर ठिकानों में अवसर विशेष पर प्रदर्शन करने की भिन्नता उसे वैशिष्ट्य भी प्रदान करती है। मांगणियार जाति राजपूतों के जन्म, विवाह, दाम्पत्य जीवन के सुख दुख के गीतों के अतिरिक्त मरण गीत, दाह संस्कार पर आत्मा की अमरता के गीत गाती है। हिन्दूओं की यजमानी करने वाली मांगणियारों की गायकी इसीलिए भक्तिपरक गीतों से सम्पन्न है।
આપને ભવાઈ ખકે બારે મે પુખ્તા જાનકારી પ્રાપ્ત કરકે સુંદર શબ્દાર્થ કે સાથ લિખી હૈ.
બહુત બઢીયા .
યુવા પેઢી કો એક નયી દિશા મે, સહી દિશા મે ,સાસ્કૃતિક વારસા કા જ્ઞાન દેને કે લિયે આપકો
ધન્યવાદ. ?