निसर्ग विहार : जो मार्ग शनिदशा में सम्राट विक्रमादित्य को चकल्दी लाया, वही महामार्ग सम्राट अशोक को पानगुड़ारिया लाया था

1000 फ़ीट ऊँचे पर्वत शिखर पर विराजमान सलकनपुर वाली माता, मंदिर की 1450 सीढ़ियाँ, रक्तबीज का वध करने वाली रक्तवर्णी माता विजया दुर्गतिनाशनी हैं, मंदिर तक पहुंचने के लिए रोप-वे की सुविधा   

हम निकटवर्ती सलकनपुर की खप्पर वाली माता और सारू मारु की गुफाओं के अवलोकनार्थ आगे बढ़ रहे  थे।आमडो , झोलियापुर, खेरी, बोरी कौसमी मालीबायां होते हुए सलकनपुर पहुँचने के क्रम में गाँव हमें अखंड विश्व की प्रतीति कराते जा रहे थे । सलकनपुर विन्ध्यपर्वत श्रृंग समूहन के बीच विजयासन देवी का पुनीत स्थल है। रक्तबीज का वध करने वाली रक्तवर्णी माता विजया दुर्गतिनाशनी और कष्ट निवारणी हैं। सृष्टिकत्रीं पराम्बा आदिशक्ति देवी त्रयी (तीन वेद) और भगवती (छः ऐश्वर्यों)  से परिपूर्ण हैं। मंदिर के समीप पहुंचते ही असमय वर्षा के कारण सीढ़ियाँ चढ़कर देवी दर्शन करने का विचार डांवाडोल होने लगा। रोप -वे भी एक विकल्प था जिससे माँ के दरबार तक पहुँचने में मात्र 5 मिनिट की समयावधि लगती है।पर हमने पक्की सड़क वाले सुगम पथ का चयन कियाऔर  सलकनपुर वाली माता अथवा खप्पर वाली मैया के भव्य  मंदिर में दर्शनार्थी बनकर पहुँच गए।

माँ विजयसनी का भव्य मंदिर सीहोर जिले के सलकनपुर गाँव में , गर्भगृह में महाकाली महासरस्वती और महालक्ष्मी का सम्बलित रूप , मंदिर का पुराना  चित्र  

अगम्य वन क्षेत्र में स्वयं प्रकटित देवी का पूर्व में मंदिर अलंकृत शिलाखंडों से निर्मित था। दूर- दूर से भक्तगण सर्वेश्वरी के दर्शन की अभिलाषा और अभीष्ट फलप्राप्ति की कामना लिए यहाँ आते -जाते दिख रहे थे। गर्भगृह में महाकाली महासरस्वती और महालक्ष्मी के रूप में सम्बलित होकर दुष्टों के दलन हेतु अवतीर्ण हुईं विजयासन माता की प्रतिष्ठा थी जिनके समक्ष उनके अनुचर साक्षात कालराज भैरव विराजे थे । परिसर में प्राचीन मंदिर के अवशेष और प्रतिमाओं को संग्रहीत किया गया था । जीर्णोद्धार के पश्चात्  मंदिर पूर्णतः नवीनीकृत हो चुका था । मध्य्प्रदेश में वन देवी के रूप में प्रकीर्तित सलकनपुर वाली माता की मान्यता अत्यधिक है। 1000 फ़ीट ऊँचे पर्वत शिखर पर विराजमान माँ की दर्शनाभिलाषा लिए आने वाले श्रद्धालु 1450 सीढ़ियों वाले दुरूह पथ के आरोही बनकर यहां आना श्रेयस्कर समझते हैं। हमें मंदिर के पुजारी पंडित उग्रसेन शुक्ला जी से यह पता चला कि इस मंदिर की अस्ति के सम्बन्ध में यह लोकधारणा सर्वश्रुत है कि एक बार बंजारों का तांडा यहाँ निवासित हुआ था । तांडे के मवेशियों के घने जंगल में अदृश्य हो जाने से व्यथित बंजारों की माँ ने बालिका के रूप में सहायता की थी ।अतएव माँ विजयसानी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के उद्देश्य से बंजारों ने माँ विजयासनी की यहाँ विधिवत स्थापना की थी । शाक्तोपासना में बलि का विधान रहा है। इसलिए यहाँ रक्तबीजदेवी को रक्त की धार चढ़ाने वाली परंपरा का वर्षों अनुसरण होता रहा। मन के सामने सिंदूर आलेपित भैरव विराजे हैं। तंत्रवाद में देवी का एक नाम वज्रासनी प्राप्त होता है जो बौद्धों की देवी वज्रवाराही से साम्यता दर्शाता है। हम बुधनी अर्थात बुद्ध – निवास से अधिक दूर नहीं  थे। घृत की अखंड ज्योति का दर्शन और स्वामी भद्रानन्द की अखंड धूनी की प्रसादी यहाँ के अन्य वैशिष्ट्य हैं।मंदिर परिसर में मुख्य मंदिर के सम्मुख एक अन्य मंदिर में गणेश जी हनुमान जी ,मोती बाबा और खोखली माता विराजी हुई हैं जो नए मंदिर बनने से पहले भी यहाँ चबूतरे पर प्रतिष्ठित थे।

सलकनपुर वाली माता भक्तों की दानवी बाधाएँ  हरती रहीं हैं।  मंदिर के वरिष्ठ पुजारी पं उग्रसेन शुक्ला जी  जिनकी पीढियां विजयासन माता की पूर्ण निष्ठा से सेवा सुश्रुषा में संलग्न रही हैं ने हमें बताया कि विध्यांचल पर निवासित माँ विजया आसुरी प्रवृत्तियों का शमन कर संसार को तारती हैं। कहते हैं महाभारत से युद्ध प्रारम्भ से पूर्व श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विजया माता की शरण में जाने को कहा था।एकाएक घन गरज ने हमें चौंका दिया वहीं खड़े-खड़े कालिदास के सारे श्लोक स्मरण हो आये थे ,आकाश में घनघोर बादलों की धमाचौकड़ी और नीचे चतुर्दिक बरसात में धुलपुछ गये हरे हरे पत्तों का हरापन भाने लगा था मंदिर परिसर से बहुत नीचे देखने पर सीधे सादे गांव,टुकड़ों टुकड़ों में बंटे खेत खलिहान और ऊँचे नीचे पहाड़ों से घिरे जंगल में धधकती दावाग्नि दिखाई दे रही थी ,हमारे साथ भ्रमण कर रहे वाकपटु वनपाल श्री हरीश माहेश्वरी वन विभाग से संबद्ध थे। उनसे  चिंतातुर हो हमने दावानल का कारण जाना उन्होंने बताया यह तेंदुपत्ता संग्राहकों द्वारा सुलगाई गयी आग है जो शीघ्र ही ठण्डी पड़ जायेगी झमाझम वर्षा की मोटी मोटी बूँदों ने यह काम अनायास और झटपट कर दिया था।ग्रामवासियों का अनुराग देखते ही बनता था। सात्विक वातावरण अभिनंदनीय वनस्थली, बहुत नीचे छोटी इटारसी का तालाब (सलकनपुर वाली माता का जलाशय), देवी की अनुकम्पा से ऐसी अलौकिक दृश्यावलियां निर्मित कर रहे थे कि जिसका अनुकीर्तन (वर्णन) करना असंभव है।

सलकनपुर-होशंगाबाद  मार्ग पर बुद्ध निवास (बुधनी) के पानगुड़ारिया ग्राम में सारू-मारू की कोठरी जहाँ राज्यारोहण के 2 वर्ष बाद सम्राट अशोक आये थे 

सलकनपुर-होशंगाबाद  मार्ग पर नीलकछार, सिंधी कैंप, छोटा इटारसी होते हुए हम पानगुड़ारिया ग्राम पहुंच गए थे। पानगुड़ारिया ग्राम का एक टोला नकटी तलाई पुकारा जाता है।रायसेन जिले में नकटी नाम से एक नदी मिलती है मन में सहसा विचार घर कर गया था। बस वहीं से 1 किमी अंदर उत्तर दिशा में वन मार्ग सारो मारो की कोठरी नामक गुह्य निवास तक ले आया था। भोपाल से लगभग 80 किमी यात्रा दूर यह स्थान उपुनिथ महाविहार है। इस उपुनिथ महाविहार के नामकरण को लेकर विद्वजनों का मत है कि सारिपुत्र और मौद्गल्यायन के अस्थि अवशेषों को यहाँ सहेजा गया था।ठीक उस  प्रकार जिस प्रकार कि विश्वदाय स्मारक साँची और सतधारा के बौद्ध समुदाय को वहां उनके अवशेषों की प्राप्ति हुई थी।सारिपुत्र और मौदगल्यायन के अवन्ति में आने का उल्लेख अंगुत्तर निकाय में है। हम पदयात्रा कर उपुनिथ महाविहार की ओर बढ़ रहे थे। हमने सुन रखा था सम्राट अशोक के दो अति महत्वपूर्ण शिलालेखों के कारण यह स्थान कीर्तिति रहा है । जिनके अध्ययनोपरान्त विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि पानगुड़ारिया  में मौर्यकाल में उपुनिथ महाविहार नामक बौद्ध संघाराम था। केंद्रीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित और संवर्धित यह स्थान सम्राट अशोक के दो लघु शिलालेखों और शुंगकालीन यष्टि लेख के कारण सर्वप्रथम सन 76 में चर्चा में आया था जब केंद्रीय पुरातत्ववेताओं ने यहाँ ईस्वी पूर्व के बौद्ध विहार को ढूँढा था। भाषायी आधार पर बुध निवास के कारण ही यह क्षेत्र बुधनी अथवा बुध निखंड (मध्य क्षेत्र निखंड) कहलाया। इस कथ्य पर हमें भरोसा होता जा रहा था। महास्तूप हमारे ठीक सामने था। हमें विभाग की ओर से यहाँ संरक्षण का दायित्व निभाने वाले श्री तेजीलाल उइके और इस क्षेत्र की वन सम्पदा के निष्ठावान संरक्षक श्री हरीश चंद्र माहेश्वरी मिल गए थे। हरीशचंद्र जी लेंडिया, गिरिया, मोहन, सलई, तेंदू, कुल्लू, पापड़ी,  पेड़ों से आवृत्तित इस स्थान के सम्बन्ध में बताते चल रहे थे। मार्ग में  प्रस्तर खण्डों को जोड़ने के लिए मसाला बनाने में प्रत्युक्त होने वाली घट्टी रखी हुई थी। सूर्यताप प्रखर हो चुका था। गगन की निश्रेणी (निसेनी) चढ़ते चढ़ते जिस प्रकार दिवाकर परिक्लान्त हो जाते हैं वैसी ही स्थिति हमारी हो रही थी।समता के जो पौधे करुणा और मैत्री की उर्वरा भूमि पर रोप गए थे वे  विकस कर हट्टे कट्टे पेड़ बन गए थे इसीलिए यहां की हरीतिमा  मनोहारी लग रही थी ।

केंद्रीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित पानगुड़ारिया के उपुनिथ महाविहार सम्राट अशोक के दो लघु शिलालेखों और शुंगकालीन यष्टि लेख के कारण सन 76 में चर्चा में आया 

तेजीलाल जी ने अंगुल्यादेश से सामने की पहाड़ी को ओडियां का डूंगरी बताया और यह भी बताया कि लोकमान्यताओं में यह स्थान  सारू – मारू की कोठरी कहलाता है उपुनिथ महाविहार की उपत्यका में  दृश्यमान लघु नदी को वे बाणगंगा बता रहे थे। दिगन्तों तक चुप्पी का  पहरा  फैलाकर पंख समय घाटी पर ठहरा हुआ था। हम पैंया पैंया चढ़कर  विंध्य पर्वत श्रृंगों से घिरे भिक्षु विहार के समक्ष पहुँच गए थे।स्थल संरक्षक उइके जी हमें बताने लगे यहाँ से मात्र पाँच किमी की दूरी पर नर्मदा नदी का प्रबल प्रवाह है। ईसवी पूर्व विदिशा से आगे नर्मदा पार कर दक्षिण पथ पर जाने वाला यह प्रमुख व्यापार मार्ग रहा था जो विहार के बायीं ओर वनों के बीच से सेमरी नामक ग्राम होते हुए विदिशा तक जाता था । दक्षिण पश्चिम में यह मार्ग पथौरा ग्राम तक जाता था । मध्यकाल में वहीं से नर्मदा नदी को पार किया जाता था।मन सहसा कल्पना करने लगा  था मेघचर्म, अजचर्म  का  बिछौना बिछाये भिक्षुणियाँ भिक्षु कभी इन्ही विहारों की विश्रांति में एकांतिक साधना करते होंगे । यहाँ के कंकटमय पथरीले मार्ग पर चर्म से निर्मित एक तल्ले वाले उपान्ह पहने धीरजशाली भिक्षु भिक्षुणियों , उपासक उपसिकाओं  की उपस्थिति से यह मज्झिम देश (मध्य क्षेत्र)जहां हम खड़े हैं  कितना सुखकर लगता होगा ।अध्यात्मचर्या या धर्मचर्या और निर्वाण प्राप्ति में लीन रहने वाले 50-100 भिक्षु भिक्षुणी तो यहाँ कम से कम रहते ही होंगे।बौद्ध धर्म दर्शन पर आधारित पुस्तकें साक्षी हैं कि अवन्ति क्षेत्र में तथागत बुद्ध के जीवनकाल में सद्धर्म का अभ्युदय हो चुका था व्यापारिक मार्ग होने के कारण अवन्ति प्रदेश से इसका प्रसरण अधिक हुआ , अवन्ति क्षेत्र में बौद्ध धर्म की आधारशिला रखने का श्रेय बुद्ध के शिष्य चंडप्रद्योत के पुरोहित रहे महाकात्यायन को जाता है,  यद्यपि तथागत के समय अवन्ति में भिक्षुओं की संख्या लगभग 10 ही मानी गयी है। हम देख पा रहे थे यहां की प्रकृतिकृत नैसर्गिक कंदरओं  में महास्थिविर के विश्राम हेतु एक ऊंचा स्थान भी बना हुआ  जो अनुमानतः महास्थिविर की निवास स्थली रहा होगा। महास्तूप के सन्मुख सुविशालित शैलाश्रय में  उपुनिथ महाविहार का अस्तित्व था।बौद्ध साहित्य में वर्णित अवन्ति जनपद में स्थित कुरुरगृह (कुरार घर) के पपात पब्बत (पपात पर्वत) को कुछ विद्वान पानगुड़ारिया के इसी पर्वत से जोड़ते रहे हैं और यह भी लिखते रहे  हैं कि स्थविर सोणकुटिकण्ण ,काली एवं कात्यायनी नामक उपसिकाएँ यहाँ की निवासिनी थीं।

महास्थिविर की निवास स्थली रहे इस उपुनिथ महाविहार की बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका, समेकित पाषाण खण्डों की 2 से 16 मी व्यास वाली अभियोजित व्यवस्था (स्तूप)

मुख्य शैलाश्रय के दाईं ओर के दीर्घाकार अश्वनाल की आकृति वाले शैलाश्रय और बाईं ओर के लघुकार शैलाश्रय भिक्षु भिक्षुणियों के संघाराम थे। मुख्य शैलाश्रय की पहुँच का चौरस चिकना पत्थर शताब्दियों से लोगों की आवक जावक से घिस घिसकर चिकण (चिकना)हो चुका था। बायीं ओर का  शैलाश्रय चैत्य के रूप में प्रत्युक्त होता रहा होगा । शुंगकाल में इसका महत्व था।ऐसा अनुमान है कि हीनयानियों के समय इस विहार की स्थापना हो चुकी थी। पानगुड़ारिया की इस अमिताभ (बुद्ध का एक नाम) (अत्यंत तेजस्विनी) धरा का यशोगान चहुँओर होता रहा होगा, विश्वदाय स्मारक साँची के दक्षिण के नर्मदा बेतवा क्षेत्र को  विंध्य ,महाकौशल अंचलों से जोड़ने वाला यह क्षेत्र कभी प्राचीन उपवस्थ (बस्ती) से आवृत्त रहा होगा हमने मन ही मन सोचा और आगे बढ़ गए ।  मार्ग में समेकित पाषाण खण्डों की 2 से 16 मी व्यास वाली अभियोजित व्यवस्था (स्तूप) दिखाई दे रहा था । ऐसा प्रतीत हुआ यहाँ पूर्व में अनेक स्तूपों की विद्यमानता रही होगी लेकिन गुप्त धन की चाहना में परवर्ती काल में स्तूपों से छेड़छाड़ की जाती रही थी । विद्वानों का भी अभिमत है कि यहाँ के स्तूपों में भिक्षुओं के शारीरिक अवशेष मंजुषाओं में सहेजे गए होंगे।

पानगुड़ारिया के दीर्घाकार शैलाश्रय और लघुकार शैलाश्रय भिक्षु भिक्षुणियों के संघाराम, स्तूप और महास्तूप ,अशोक के शिलालेख 

बौद्ध संकेतों वाले भित्ति चित्रकृतियाँ जिनमें स्वस्तिक, त्रिरत्न, कलश, कुंडलित चक्र और सांकेतिक वक्र सम्मिलित ,आखेट, धार्मिक कृत्य और दैनिक क्रियाकलापों के दृश्य,  10 स्तूप पूर्ण सुरक्षित   

प्रकृति के क्षरण और विखंडन से निर्मित शैलाश्रय की एक चट्टान मूल पर्वत से आगे की ओर निकलकर छज्जेनुमा आकृति सिरज रही थी। वनाच्छादित निसर्ग की रमणीयता के मध्य संसार से विरक्त होकर एकांतिक साधना के लिए इससे अनुकूल स्थान क्या होगा। किसका मन भला यहाँ आकर निर्विकल्प न हो जाये। ऐसा लगता है बौद्ध धर्म के प्रारम्भण में यहाँ बौद्ध विहारों का आधिक्य था जो विखंडित होते गए । उइके जी ने शैलाश्रय की भीत और छत पर विचित्रित शैल चित्रों की ओर हमारा ध्यानाकर्षित कराया लाल-पीले-धूसर-श्वेत-रंगों के माध्यम से अभिरूचिनुसार बनायी गयी चित्रावलियों में आखेट, धार्मिक कृत्य और दैनिक क्रियाकलापों के दृश्य विद्यमान थे। सर्वाधिक महत्वपूर्ण बौद्ध संकेतों वाली वे चित्रकृतियाँ जिनमें स्वस्तिक, त्रिरत्न, कलश, कुंडलित चक्र और सांकेतिक वक्र सम्मिलित थे हमें लुभा रहे थे ।आदिप्रस्तर युग के शैलाश्रयों के प्रति लगाव रखने वाला मानव उच्च पुरा पाषाण काल, ताम्राश्म काल और ऐतिहासिक काल तक चित्रों का चितेरा बना रहा था। ये शैलचित्र उसी के परिचायक थे। पुतरियों, देवियों के धुंधलाते चित्रों के साथ वानर दल जिनमें तीन मादा  वानरों के उदर से चिपके शिशु वानरों को चित्रित किया गया था अनूप थे। पगड़ी धारी ग्राम रक्षक के साथ तीर कमान भाला बरछी लिए अंगरक्षकों का समूह तथा वृक्ष भी अद्भुत थे। अनुसंधानकर्ताओं को यहाँ पाषाण व मध्याश्म काल के प्रस्तर उपकरणों की भी प्राप्ति हुई थी तेजीलाल बताते चल रहे थे । जिनमें हस्तकुठार, वेधनियाँ, खुरचनियाँ बेधक शल्क इत्यादि थे । हम घूमते घामते उस प्रभावोत्पादक शैलाश्रय की ओर पहुँच चुके थे जिसके दृग क्षेपण के लिए हम यहाँ आये थे।तेजीलाल जी और हरीश जी शैलाश्रयों से उतारकर हमें स्तूपों के समीप ले आये थे। हमें यहाँ 10 स्तूप ही पूर्ण रूप में दिखाई दिए।  विगत दो हजार वर्षों में  इन स्तूपों को जलवायु परिवर्तन और अवशेष मंजूषाओं को ढूंढने वालों  ने अधिकांशतः क्षतिग्रस्त किया था ।सम्राट अशोक द्वारा शिलोत्कीर्ण कराये गए दोनों  शिलालेख शैलाश्रय की भीति पर उत्कीर्ण थे और पूर्णतः सुरक्षित भी थे।सम्राट अशोक के लिए देवनामप्रिय अथवा प्रियदर्शी राजा का विशेषण प्रयुक्त होने के कारण इसे सम्राट अशोक के अभिलेख के रूप में स्वीकारा गया जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।यह अभिलेख प्रमाणित करता है कि राज्यारोहण के उपरांत अशोक यहां आये थे।

दो पंक्तियों के प्रथम शिलालेख में उत्कीर्ण था –

पियदासिन  नामे राजकुमारस  संवस, मोणदेसे उपनिथ विहार-यताये   

मज्जिमदेश अथवा माणेम देश(विदिशा के दक्षिण का क्षेत्र मध्य देश कहलाता था) सम्राट अशोक की धर्म यात्रा के समय कुमार सांव (शंव) इस प्रदेश का अधिपति था। इस बौद्ध विहार का नाम उपुनिथ विहार था। यह संकेत भी इसी शिलालेख से प्रथमतः मिले। इसी शिलालेख में सम्राट अशोक ने स्थानीय नरेश (राज्यपाल) सांब को भिक्षुओं की भली भांति देख रेख के लिए निर्देशित किया  है।प्रथम शिलालेख के नीचे द्वितीय शिलालेख था जिसके अक्षर धुंधला गए थे। आठ पंक्तियों के शिलोत्कीर्ण अभिलेख में लिखा हुआ था कि

1 सावणं वियुप्पेन 200.50.6 देवाणं पिये आणपयति। अढतिया

2 नि वसानी याते सुभि उपासके। नो चु बा (ढं) (प)काते हुसं ति ब सं (वछ) रं सां

3 धिन्क से सघ य य) ते बाढ़ (चु) (सु) (मि) पकंत। इमं च कालं (जम्बु) (दिप) सि

4 देवा न (मनुसेहि मिसि) भूता हुसु (ते दानि मिसिभूता)। (परकस हि असफ)

5 ला नो च एं स महा प – (का) रणेणो (न)। खुद के पि पकम

(माने सकिये) विपुलं स्वगं आराधयितु (एताय)

6 अठाय अस सावने किता (ति) खुदका (च) उदारका च पक (मंतु) (अंता पि च) जानन्तु

7 किति एते पि पकमेयु ति  अयं हि अठे वढिसिति विपुल (पि च) (वदिसिति दियढ़मेव) व (ढि)

8 सिति चिर ठितिके च होसिति  यथ च पवत यथं च सिलाथ (भा) (सवत लेखापे) (त) वा (वि) यति

राज्यारोहण के दो वर्ष पांच माह छठवे दिन सम्राट अशोक पानगुड़ारिया के उपनिथ विहार पहुंचे थे

यह आदेश इसलिए लागू किया गया है कि छोटे (दीन) तथा बड़े (समृद्ध) धर्म के प्रति उन्मुख हों, इसे अशोक के लघु शिला प्रज्ञापनों का ही संस्करण माना गया है।इसमें यह  उत्कीर्ण है कि यह आदेश मेरे द्वारा लागू किया गया जब मैं धर्म यात्रा पर था। धर्म यात्रा पर गए 256 दिन राजधानी से पृथक रहे देवों के प्रिय राजा ने इस प्रकार आदेश दियाअब तक मुझे बौद्ध धर्म का उपासक हुए ढाई वर्ष हो गए। पूर्व में मैं धर्म के प्रति पूर्ण समर्पित नहीं था। लगभग एक वर्ष से बौद्ध धर्म से मेरे सम्बन्ध हो गए हैं। मैं धर्म के प्रति आत्मनिवेदित हूँ। इन पंक्तियों के पठन से विद्वान इस परिणाम पर पहुंचे कि देवनाम प्रिय राज्यारोहण के दो वर्ष पांच माह छठवे दिन यहाँ उपनिथ विहार पहुंचे थे।इस समय तक जम्बूदीप के रहवासियों का देवों के साथ जुड़ाव नहीं था। मेरी सक्रियता के कारण वे हिल-मिल रहे हैं। यह इसलिए संभव नहीं हुआ कि मैं समृद्धशाली (बड़ा) व्यक्ति हूँ। छोटे (दीन) व्यक्ति भी सक्रिय रहकर उच्च स्वर्ग पा सकते हैं।मेरे साम्राज्य से बाहर रहने वालों को भी यह ज्ञात हो जाना चाहिए जिससे वे भी धर्म के प्रति सक्रियता बरतें।जिससे यह कार्य उन्नयन करेगा। ड्योढ़ी वृद्धि होगी और स्थायी हो जायेगा। जहाँ भी शिलाएँ हैं और जहाँ भी शिलास्तंभ हैं  वहां उक्त कथन को उत्कीर्ण किया जाये। इन गुहाभिलेखों से यह सर्वविदित कि बौद्ध धर्म के उन्नयन काल से ही इस स्थान की धाक रही थी जहाँ आज हम अवलोकक बने घूम रहे थे।पुराविद यहां के आसपास २१ बौद्ध गुफाओं की विध्यमानता स्वीकारते हैं जो समय के प्रवाह में क्षरित होती रहीं।

कोरम्मकविहार की संरक्षिता द्वारा दान किये गए  छत्र यष्टि की पूसा, धर्मरक्षिता और अरहा नामक शिष्याओं ने स्थापना करवाई

उपुनिथ विहार के भग्नावशेष पहाड़ी के आस-पास दो किमी की परिधि में तितर बितर दिखाई दे रहे थे। उइके जी बताने लगे महास्तूप से एक पाषाण का यष्टियुक्त छत्रक अन्वेषणकर्ताओं को प्राप्त हुआ था। जिसकी भीतरी सतह पर रेखाओं का उत्कीर्णन था। घनाकार कमानी सुदृश छत्रक की  यष्टि नौ फुट लम्बी ष्टकोणीय थी । बहुत दिनों तक वह पांच फ़ीट व्यास वाले छत्रक के साथ महास्तूप पर लगा रहा। फिर उसे  निकालकर स्थानीय नेपाली मूल के संरक्षक के घर में रखवा दिया गया था ,बाद में उसे साँची भिजवा दिया गया। यष्टि पर द्वितीय शती ईसा पूर्व का शिलालेख अंकित था। इस शिलालेख के अध्ययन के पश्चात् ही विद्वानों ने यह स्वीकारा कि शुंगकाल में महास्तूप पर पाषाण का छत्रक लगाया गया जिसे कोरम्मक की भिक्षुणियों ने लगवाया था। ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण इस शिलालेख के सम्बन्ध में विद्वानों ने लिखा है –

संघररिवताय भिच्छुनिय दान कोरम्मकय, अतेवासिनिहि करपितम्

पुसय च धम्मररिवतय च अरहय च । एता अतेवासिनियो करापिक छतस

पानगुड़ारिया के महास्तूप के अण्ड भाग से विपरीत दिशा में निकले प्रक्षेपण स्तूप स्थापत्य की विशेषता दर्शाते  हुए,  देश में आयक मंचों वाले स्तूपों का उद्भव पानगुड़ारिया से

अभिप्राय यह है कि  कोरम्मकविहार की संरक्षिता द्वारा दान किये गए  छत्र यष्टि की पूसा, धर्मरक्षिता और अरहा नामक शिष्याओं ने स्थापना करवाई। विद्वानों ने कोरम्मक भिक्षुणी विहार की प्रमुख भिक्षुणी दानकर्ता संघमित्रा को सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा माना है कोरम्मक का भिक्षुणी बिहार श्रीलंका में स्थित था इसलिए यह अनुमान लगाया गया। ऐसी भी धारणा है संघमित्रा को दान के निष्पादन में अधिक समय लग गया था। अतः उसकी मृत्योपरांत कोरम्मक भिक्षुणी विहार की तीन भिक्षुणियों ने उसके संकल्प को पूरा किया। शुंग राजाओं के शासन काल में यह कार्य सम्पादित हुआ।ऐसा लगता है कि मौर्यकालीन इष्टिका निर्मित स्तूप का शुंग काल में प्रस्तरीकरण किया गया और तभी उसमें छत्र यष्टि स्थापित की गयी।अब तक हम स्तूपों का  समीपावलोकन करने लगे थे, कई स्तूप यहाँ दिखाई दे रहे थे  इन्हीं स्तूपों के बीच से निकलकर 76 मीटर व्यास का प्रदक्षिणा पथ वाला महास्तूप जो 0.75 मीटर ऊँची मेधि पर आस्थित था के हम सामने पहुंच गए थे। इसमें पूर्वी और पश्चिमी दिशाओं से प्रदक्षिणा पथ पर पहुँचने के लिए सोपानों की भी व्यवस्था थी।  स्तूप एक परिखा से घिरा हुआ था यही इसकी विलक्षणता थी । विद्वानों का मत है कि इस प्रकार का स्तूप भारत में एकमात्र है। मौर्य सम्राट अशोक के समय स्तूप निर्माण व्यापारिक महामार्गों और नगरों के समीप हुआ करता था। यह अर्ध गोलाकार स्तूप अनगढ़ पत्थरों की भराई से निर्मित था। कुछ स्तूपों  के मेधि और अण्ड को क्षतिग्रस्त किया गया था  जो पहाड़ी पर पृथक- पृथक ऊँचाई पर स्थित थे।  पानगुड़ारिया के महास्तूप के अण्ड भाग से विपरीत दिशा में निकले प्रक्षेपण या चबूतरेआयक मंच जैसे थे पुराविदों ने इसे स्तूप स्थापत्य की विशिष्टता बताया है। विद्वान् देश में आयक मंचों वाले स्तूपों का उद्भव पानगुड़ारिया के स्तूपों से ही हुआ मानते हैं। तेजीलाल जी के टोकने के बाद कि हमसे पहाड़ी के ऊपर का शैलाश्रय  तो छूट ही गया है हरीश जी और तेजीलाल जी के साथ हम तत्परता से दाहिनी ओर से ऊपर चढ़कर शिखरस्थ 76.20 मीटर गुणा  10.20 मीटर आकार वाले विशालित शैलाश्रय की ओर बढ़े।बावन पगाह के नाम से प्रकीर्तित इस शैलाश्रय में विभाजक भीति बनी हुई थी। पाषाण खण्डों के जमाव और प्रतिधारक दीवार के निर्माण के कारण शैलाश्रय का आंतरिक कक्ष बढ़ा हुआ दिख रहा था। ऐसा संभव है कि संभवतः यहाँ 100 के आस-पास भिक्षु भिक्षुणियों का निवास रहा होगा।यहां भी स्तूपाकार संरचना बिखरी हुई दिखाई दे रही थीं।यहां आवासित भिक्षु और भिक्षुणियाँ या तो शैलाश्रयों में रहती थीं या फिर पहाड़ियों पर बनी झोपड़ियों में रहा करती होंगी हमने मन ही मन अनुमान लगाया ।शताब्दियों तक  बौद्ध धर्म के प्रसारक बने रहे चैत्य विहारों के संबंध में सर अलेक्सेंडर कनिंघम ने लिखा है कि इनका  निर्माण ऐसे स्थानों पर किया जाता था जहाँ दूर दूर तक निसर्ग की रमणीयता दर्शनीय हो।यह स्थान शतप्रतिशत वैसा ही है प्रकृति पर्यटन की दृष्टि से सर्वाधिक उपयुक्त स्थान। सलकनपुर में अचानक हुयी असमय वर्षा के उपरांत धूप डूँगरियों से उतरकर , पत्तों पर, पेड़ों से होती हुयी विदाई लाइन को आतुर थी । हमें चलना होगा अनथके यात्री की भांति जो कभी गंतव्य से संतुष्ट नहीं होते अगले गंतव्य की ओर…..

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Comments

  1. Rajendra Kumar Malviya says:

    दीदी सादर चरणस्पर्श, दीदी आपने महाराजा विक्रमादित्य से जुड़ी प्राचीन चम्पावती नगरी और आधुनिक चकल्दी शहर को इतिहास के पन्नो से लाकर एक बार फिर पुनर्जीवित कर दिया। आपके इस प्रयास के लिए मेरे पास आपकी तारीफ के लिए शब्द नही है आदरणीय दीदी। मैं हमेशा आपके लेख की प्रतीक्षा करता हूँ।

  2. राजेन्द्र कौशिके says:

    बहुत सुंदर लेख

  3. वीरेंद्र सिंह says:

    महाराजा विक्र्मादित्य और उनसे जुड़ी अनेकों महत्वपूर्ण बातें, स्थान व कार्य जो हमे लगता है कि किसी इतिहास में उल्लेख किया गया मुझे नहीं लगता क्योकि आज के इतिहास में वो ही पढाया जाता है जो सिर्फ नयी पीढ़ी के इतिहासकारों जो ये मानते हैं कि वही जो चार विदेशी व देशी इतिहास कार बिना शोध के सीमित संसाधनों के द्वारा बता देते हैं आज मैंने राजा विक्रमादित्य के बारे में वो तथ्य देखे और सुने जो आधुनिक इतिहास जान कर अनजान था राजा विक्रमादित्य के बारे में उन पर साढ़े साती का प्रकोप का होना और जुडी अनेक मान्यतायें व स्थान के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी शोध के साथ आपने ने बतायी जिससे सबसे पहले तो यह स्थान जो पहले कभी राजा विक्रमादित्य ने जिसको बसाया था व जिसका नाम चंपावती था वह कैसे इतिहास के गर्त में भूला दिया गया और जिसको सिर्फ आज एक छोटा सा गांव चकल्दी कैसे रह गया जिसे आज कोई इतिहास में उसका वर्णन तक नहीं मिलता जबकि इसके चारों तरफ उनसे जुड़ी अनेकों सबूत भरे पड़े हुये हैं चकल्दी ( चम्पावती) जो कभी कितनी सुन्दर और सम्पन्न रहा होगा ये वहा पर बिखरे पड़े हुये प्राचीन भवनों और मन्दिरों के अवशेष व भग्नावशेषों से सहज रूप से अनुमान लगाया जा सकता है परन्तु आज के इतिहासकार व पुरातत्व वेत्ता अपने को कहने वाले लगता है सिर्फ कालेज या विश्व्विद्यालयो के प्राग्ड़ में बैठकर शोध कर लेते हैं यहाँ पर जिस तरह से हमारी प्राचीन व सांस्कृतिक धरोहर हिन्दू व जैन की बिखरी पड़ी है ये सहज ही इसका बखान करते हैं ।आपका यह लेख भारतीय सनातन संस्कृति व इतिहास को समझने में आने वाली पीढ़ियों के लिए मील का पत्थर साबित होगा तथा इसके अलावा जो समाज में लोक मान्यतायें व लोकोक्तीया भी अपने अन्दर इतिहास समेटे हुए है इसे नये इतिहासकारों को स्वीकार करना चाहिए ।जिसका आधुनिक अपने को मानने वाले अनदेखा करते हैं और सिर्फ इतिहास के किताबों में लिखी लाईनो को ही इतिहास मानते हैं ।

  4. ललित शर्मा, झालावाड़, राज. ('महाराणा कुम्भा इतिहास' अलंकरण) says:

    बहुत महत्वपूर्ण ब्लाग, लोक संस्कृति एवं इतिहास का सुंदर स्वरूप है, आभार दिशा जी ?

  5. डॉ एम सी शांडिल्य, भोपाल says:

    सम्मानीय दिशा जी,
    सही दिशा में सही कदम

    आपको आत्मीय शुभकामनाएँ!

  6. Nitya dubey says:

    बहुत ही सुन्दर लिखा है अपने यह इतिहास का सुंदर स्वरूप है

  7. Nitya dubey says:

    बहुत ही सुन्दर लेख है यह लेख अपने हम तक पहुँचाया इसके हम अपके आभारी है ओर जो यह लेख अपने किया है इससे मुझे नही की यह लेख किसी एतिहासिक पुस्तक मै मिलेगा । अपके अगले लेख का इन्तजार रहेगा।

  8. बंशीधर बंधु, शुजालपुर says:

    आपका चकल्दी वाला आलेख बहुत सुन्दर और प्रामाणिक है.

  9. jay dubey says:

    आपके हम बहुत ही आभारी हैं कि आपके द्वारा हमें यह इतिहास की जानकारी प्राप्त हो रही है इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आपकी अगली लेखनी का इंतजार रहेगा

  10. Ankita dubey says:

    सुधर्मी राजा विक्रमादित्य के इतिहास के बारे में हमें जानकारी के साथ हमें विक्रमादित्य से जुड़ी प्राचीन चम्पावती नगरी ,साढ़े साती का प्रकोप का होना और उनसे जुडी अनेक महत्वपूर्ण  बातों का पता चला आपके अगले ब्लॉक का इंतजार रहेगा

  11. kamal dubey says:

    बहुत ही सुन्दर लेख है इतिहास को एक बार फिर पुनर्जीवित कर दिया।..

  12. *डॉ. महेशचन्द्र* *शांडिल्य (डी-लिट्.)* *भोपाल* says:

    *सम्मानीय दिशा जी प्रणाम*

    *आपका हमारी भारतीय विरासत का सही महतीय व उपादेय संज्ञान, अपने उत्कृष्ट लेखन से हम सभी शोधार्थियों, अध्येताओं को अपनी प्राचीन विरासत से आपने जो परिचय दिया है, इसके लिए आपका आत्मीय आभार.*
    *मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप इसी प्रकार हमारी भारतीय जनजातीय, लोक और पुरातात्वीय इतिहास, कला, साहित्य और संस्कृति पर, गहन अध्ययन, चिन्तन, मनन के साथ, हमेशा अपने शोधपूर्ण आलेखों के माध्यम से जन-जन तक यह संज्ञान पहुँचाती रहेंगी.*

    *आपके प्रति पूर्ण सम्मान के साथ सादर.*

  13. डॉ बालकृष्ण लोखण्डे says:

    आपके शोध मे खोजे अवश्य प्रकाशमान है पहूच मार्ग चाहे लेखन मे प्रकाशित संदर्भ हो या साक्षात्कार के लिए अंचलों तक पहूंच की कठिनाइयों का पहलू अछूता, महसूस करता हूजो आपकी जीवटता को उजागर करता है।
    ये मालव के ऐतिहासिक विकास क्रम मे सम्राट अशोक के आगमन को दर्शाते हूऐ साक्ष्यों को रखते, पौराणिक मान्यताओं कथानकों की जिज्ञासाओं से और भी सुरूचिपूर्ण बना दिया है

    मालव के उत्तरी अंचल मे जीवनचक्र और उनके सांस्कृतिक, रहन.सहन, नदी घाटियों, आस्थाओं, प्रचलित किंवदंतियों, नामांकनो का सजीव प्रतिबिंब चिरकाल को आज के परिपेक्ष्य मे , साक्षात्कार करने का काम , जिसमें पग पग का भ्रमण ग्राम और ग्रामीणों तक ही नहीं, वनों से आच्छादित दुरगामी स्थानो को विस्तार पूर्वक रखने तक ही नहीं वरण उनकी गहराई तक परंपराओं को रखा है
    यह सभी ज्ञानवर्धक तथ्य शोधकर्ताओं / जनमानस को अपनी ओर खीचने तक नहीं और भी सिंचित करनेवाली प्रेरणा द्योतक है।
    ऐसे प्रस्तुति वाद कर्ता को मेरा नमन????

  14. हरीश माहेश्वरी says:

    बहुत बढ़िया लिखा है

  15. जगदीश भावसार शाजापुर says:

    प्रकृति में व्याप्त जनजीवन को अपनी सुबोध लेखनी से चित्र -दृश्य चित्र ,कथानक के माध्यम से समेट कर लोक जीवन के रंग बिरंगे, पहनावे के साथ हाटबाजार ,पूजा स्थल, नदी ,वनगमन का अच्छा प्रलेखन है

    निरन्तर लेखन के लिए शुभकामनाऐं???

  16. Dr O P Mishra Bhopal says:

    No doubt you are covering the field tour dairies as a senior indologist.thank you very much.

  17. Anonymous says:

    After visiting your blog , I enjoyed getting lost in the ancient glory of Champawati and Chakaldi regions , where King Vikramaditya’s greatness came to light .The holy shrine of Chaturdik Dana Baba depicts a theme that captures the unique aspects of scientific technology of step wells magnificently constructed to harvest the water . According to my prespective, the “Great Bath” of this Chaturdik Kirtit Dana Baba Spot was an ancient technological water tank with stairs built on all four sides to reach the bottom. What makes this destination unique is that it is one of the underwater hydro religious place available in our vibrant Madhya Pradesh. Your travel diary shared interesting insights and details that document your passion for exploring ancient glories. Congratulation mam for this curious blog , your blog with marvellous photos and videos have introduced us to some of the most unique and mysterious destinations of the country.

  18. डॉ धरमजीत कौर जयपुर says:

    हमेशा की तरह तथ्यों से परिपूर्ण ??

  19. के.के. चतुर्वेदी says:

    आपके लेखन में विषयवस्तु की विविधता, लिखने का ढंग और भाषा अभिव्यक्ति तथा नई जानकारी की ताजगी है। अपेक्षाकृत कम ज्ञात स्थानों के विषय में स्थानीय लोगों से चर्चा कर उस जानकारी का प्रचार-प्रसार करने का प्रयास महत्वपूर्ण और प्रशंसनीय है। डॉ ठाकुर का प्राचीन सिक्कों का संग्रह अद्भुत है। मैं स्वयं भी विविध संग्रह करता रहा हूं और देखकर अच्छा लगा। आपकी जिज्ञासा और खोजी प्रवृत्ति देखी जो पत्रकारिता के क्षेत्र में आपको सहायता करेगी। शुभ कामनाएं।

  20. डॉ एस के द्विवेदी ग्वालियर says:

    बहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक

  21. ललित शर्मा "महाराणा कुम्भा इतिहास अलंकरण" "पद्म श्री डॉ. वाकणकर सम्मान" says:

    लोकसंस्कृतिविद दिशा अविनाश शर्मा ने मालव सम्राट विक्रमादित्य की लोक में प्रसिद्द शनि दशा का जो चित्रण जीवंत रूप में किया वह काबिले तारीफ़ है। दिशा जी ने विक्रमादित्य का जो लोक मार्ग बताया उसी मार्ग को प्राचीन सम्राट अशोक ने भी अपनाया – यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। इसमें दिशा जी ने लोक कथाओं, साक्षात्कारों के माध्यम से इतिहास की प्राचीनता को जोड़ा है। यदि इस ब्लॉग को गंभीरता से शोधार्थी लें तो मालवा के इतिहास में नई खोज होगी। मैं हृदय से लेखिका को आत्मीय बधाई देता हूँ। ब्लॉग में उक्त मार्ग की सुंदरता, वृक्ष सम्पदा, प्राचीन स्थल, साक्षात्कार, आदिवासी संस्कृति में जीवित सम्राट की स्मृतियाँ ये सब बड़ी रोचकता और जीवंतता से आबद्ध की गई हैं। मालवा के विद्वानों और शोधार्थी वर्ग को इस ब्लॉग से दिशा व शोध का मार्ग मिल सकता है।

  22. Dr Ramesh yadav says:

    Madam, you have done very good research work including inscriptions & Architecture. Most important is the text of Ashokan inscription in contest of Baudh sect named Budhani town,having with religious background of Goddess of Salkanpur.All aspects of this area are beautifully covered by you in this article. So congratulations for this creative research.

  23. Dr Manuel Joseph says:

    Great works Dishaji. So painstaking and time consuming, but definitely need of the hour.

  24. प्रदीप त्रिपाठी, ओबैदुल्लागंज says:

    साक्षात्कार करने एवं स्थलों का चित्रण करने के लिए दूरस्थ अंचलों तक पहुंचना अपने-आप में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसे आपने बखूबी निभाया है। आपकी लेखनी को नमन । अत्यंत मनोहारी दृष्टांत……

  25. गहरे इतिहास-बोध और संस्कृति बोध के साथ लिखा गया यात्रा-वृत्तांत। ऐसा लेखन संबंधित क्षेत्र के भौगोलिक, ऐतिहासिक,सांस्कृतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि से अवगत हुए बिना नहीं किया जा सकता।आपकी अध्ययनशीलता इस वृत्तांत में अनुभव की जा सकती है।आपकी जिज्ञासु प्रवृत्ति को नमन!

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