ग्राम विहार : उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य की बहन सुन्दरा का गांव सुन्दरसी परमारकालीन वैभविक प्रमाणों से परिपूर्ण

काली सिंध नदी अपनी धार पलटने के कारण उगनुधारा के रूप में गाँववासियों की अपार श्रद्धा का केंद्र

कमल जी के घर के निकट ही काली सिंध नदी का चौड़ा पाट था , जिसमें पीढ़ियों से सुंदरसी वासियों के सुख दुःख, पानी-पानी होते रहे थे, भारतीय परम्पराओं में समाई गहरी आस्था, अखंडित विश्वास की प्रतिनिधि काली सिंध नदी अपनी धार पलटने के कारण उगनुधारा के रूप में गाँववासियों की अपार श्रद्धा का केंद्र बनकर वर्षों से स्तवित होती रही थी। नदी के घट्या नामक स्थान पर बाल उतराई का कार्यक्रम भी पीढ़ियों से सम्पन्न होता रहा था।यही नहीं अमावस्या और पूनम के दिन आस-पास के गाँव से श्रद्धालुों का जनसैलाब उमड़ना भी आम बात थी।पुरखों की अस्थियों का विसर्जन और तर्पण काली सिंध में करने वाली सुंदरसी की धर्मपरायण जनता काली सिंध को उज्जैन की  पश्चिमा प्रवाही सरिता क्षिप्रा से साम्यता और नदी के मध्य स्थित शिवालय को उज्जैन के क्षिप्रेश्वर महादेव के समरूप पूजती है। यहां के कलियादह सरोवर को भी काली सिंध नदी के समकक्ष मानकर पुण्य की प्रत्याशा में लोगबाग आते हैं । श्रद्धान्वितों के लिए कालीसिंध मात्र नदी नहीं है, अपितु मालवी संस्कृति और मूल्यों की संवाहिका है। उससे भी आगे बढ़कर सौभाग्यमोक्षिणी काली सिंध सुन्दरसी की आशाओं और विश्वास का प्रतीक है। कमल सिंह जी से विदित हुआ कि राजपूत पर्देदारी प्रथा के कारण सुंदरसी के घाटों पर बरसों से महिलाओं के स्नान आचमन और अवगाहन के लिए  पृथक व्यवस्था रही है। भाद्रपद मास के दूसरे सोमवार को यहाँ की महिलाएँ मंगल गीत गाते हुए कालीसिंध मैया से अपने अहिवात सुरक्षित रखने की आश्वस्ति लेकर उन्हें  चुनरी समर्पित करने आती हैं और  पुरुष द्वादश ज्योतिर्लिंगों में परिगणित महाकाल मंदिर की सावन माह में निकलने वाली महानियन्ता की भव्य सवारी को नगर भ्र्मण कराते हैं,बहुत दिनों तक काली सिंध नदी के किनारे नाथ योगियों की निर्विकार पूजापाठ के पुण्यस्थान भी रहे हैं , कमल जी से हमने पोथियों के संबंध में प्रकाश डालने का अनुरोध किया तो पता चला कि इस क्षेत्र विशेष की लगभग 1200  साल पहले की लिखित जानकारियां स्थानीय भाटों के पास सुरक्षित हैं। राजस्थान की जोधपुर, नागौर, बीकानेर रियासतों की पितृपुराण व वंशावलियां सहेजने वाले कमल सिंह जी का परिवार पीढ़ियों से सुन्दरसी जागीर के आसपास के गांवों में राठौरों की पारिवारिक जानकारियां एकत्रित करते रहा है । ये लोग अपनी पोथियों में वर्णित पारिवारिक जानकारियों को बहुधा साझा नहीं करते पर हमारी चिरौरियों के समक्ष वे थोड़े ना नुकुर के पश्चात तैयार हो गए।

कमल जी ने हमें बताया कि कभी साढ़े सात हजार बीघा भूमि में विस्तीर्ण सुंदरसी की परिमा में खड़ी, सेमली, बेरछा, निपानिया धाकड़ आदि गांव आते थे।सुंदरसी के अनुशीलन  में अकोदिया रोड पर रानी बड़ोद तक विस्तारित रानी के प्रासाद और राणा बड़ोद गांव में पुरानी गढ़ियों के अवशेषों के सम्यक दर्शन का हमें भी सुयोग से सुअवसर मिला था इसलिए हम उनकी हाँ में हाँ मिला रहे थे।उनके अनुसार खड़ी गांव के डोंडिया राजपूत और सोनगरा चौहान राजपूतों का राठौड़ राजपूतों के साथ रोटी बेटी का सबंध रहा है, इसीलिए सुंदरसी के आसपास राजपूतों का बाहुल्य रहा। ज्यों ज्यों पोथियाँ खुलती गयीं कमल सिंह जी हमें बताते गए कि कन्नौज के राजा जयचंद के वंशज राव सियाजी ने 1212 संवत् में लाखाबाटी क्षेत्र पर अपना आधिपत्य जमाया था। उन्हीं के वंशज राव सोनक जी ने ईढरगढ़ अपने अधीन किया था। सोनकजी के वंशज हापा जी सुंदरगढ़ आये थे। जहां राठौर राजपूत हापाजी सर्वप्रथम आकर बसे थे वही स्थान हापाखेड़ा कहलाया। उनके वीरगति को प्राप्त होने के उपरांत उनकी पत्नी वहीं सती हुई थीं।।रावों की पोथियों से पता चला कि किसी समय सुंदरसी में जैनियों और रंगेरा जाति के लोगों का बसेरा था।सुन्दरसी के तीर्थ पुरोहित गंगागुरु पं. अन्नू तिवारी जी जो सौरों गंगा सूकर क्षेत्र के रहवासी हैं से दूरभाष से संपर्क साधकर हमने इस क्षेत्र के वंशावलियों के बही-खाते खंगाले तो वीर क्षत्राणियों की ऐसी प्रेरणास्पद कथाएँ सामने आती गयीं जिनमें पति के देहावसान के पश्चात् अस्थि विसर्जन हेतु प्रस्थान करने वालीं विक्षुभ क्षत्राणियों के सुंदरसी से निकलकर निर्जन-दुर्गम वन क्षेत्र से होते हुए दूरस्थ तीर्थ सोंरों पहुँचने का सविस्तार वर्णन था. सौरों का पहुँच मार्ग विधर्मी शत्रु पक्ष के परिक्षेत्र से गुजरता था, शक्ति की अन्यतम उपासिकाएँ निरंकुश आतताइयों से बचते-बचाते कैसे कासगंज, उत्तरप्रदेश के सौरों सूकर क्षेत्र (आदि गंगा का वह प्रक्षेत्र जहाँ सूर्य, भगीरथ, हरिश्चंद्र ने तपस्या की थी) पहुंचती होंगी मन यही अवगुंथन में लगा था । धन्य है वे क्षत्राणियाँ और धन्य हैं उनका क्षत्रियत्व, हमने मन ही मन उनको नमन किया और  देवेंद्र जी और कमल जी के साथ महाकाल मंदिर की ओर प्रस्थान किया ,अभी  सास बहू  की तलाई, रेशमी टीला, सुनेरी व  महाराजा दरवाजा, हापा खेड़ा, लाल बाजार, अनाम  बावड़ी, गढ़ मुड़ला और थोप का चबूतरा देखने शेष थे।

यहाँ के लोग गर्व से स्वीकारते मिले कि 1857 की क्रांति के समय तात्या टोपे हमारी  सुन्दरसी में शरणागत हुए

मार्ग में यह भी जानकारी मिली कि  1857 की क्रांति के समय तात्या टोपे  सुन्दरसी में शरणागत हुए थे। देवेंद्र जी बताने लगे सुंदरसी अकबर के समय में  सारंगपुर सरकार के महल का सदर मुकाम था। कुछ समय तक जोधपुर नरेश जसवंत सिंह जी के आधिपत्य में भी रहा, उनसे पेशवाओं के अधीन हुआ। तदन्तर फौजी खर्चानुसार सिंधिया, होल्कर और पवारों ने इसे बाँट लिया। जसवंत सिंह जी का प्रतिनिधि 16वीं सदी के पूर्वार्द्ध में रतलाम का प्रथम राठौर राजा रतनसिंह था जिसकी छतरी आज भी धरमत में है। रतनसिंह जी के वंशजों का पश्चिमी मालवा पर एकाधिकार होता रहा । जिसका परिणाम यह हुआ कि रजवाड़ी, मालवी आम बोलचाल की भाषा बन  गयी। सच तो यह है कि सुन्दरसी के राठौर राजपूतों ने मारवाड़ी मालवी को अपनाया इसीलिए यहां के लोगों की वाणी में  मालवा की मिठास और राजस्थानी भाषा की सुवास दोनों की ही समन्वति  मिलती है।

दो एकड़ में विस्तारित महाकाल मंदिर परिसर में अनगिन परमारकालीन स्थापत्य के भग्नावशेष एकत्रित

माता चौक से थोड़ी ही दूर पर रावला बावड़ी के ध्वंसावशेष, महाकाल मंदिर द्वार, सती स्तम्भ 

अब हम देवेंद्र जी के साथ चलते-चलते कालीसिंध नदी के कूल पर बने महाकाल मंदिर तक पहुँच गये थे। स्थानीय जनता द्वारा माता चौक के रूप में पुकारे जाने वाले इस पावन स्थली से थोड़ी ही दूर पर रावला बावड़ी के ध्वंसावशेष और सती स्तम्भों वाला ओटला दिखाई दिया। बातों बातों में रहस्योद्घाटन हुआ कि पुराने अस्पताल के निकट नदी पर जाने वाले लोग पूर्व में सुनेरी दरवाजे से होकर ही निकला करते थे। महाराजा दरवाजा महाकाल मंदिर मार्ग में रावले में रहने वाले राठौड़ों की आवक जावक का साक्षी रहा था  वर्तमान में इसके भग्नावशेष नीम के पेड़ वाले चबूतरे के आसपास दिखाई दे रहे थे। ईश्वर के दिव्य विग्रहों से संपन्न नित्य तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित सुंदरगढ़ की आस्तिक जनता कभी अमृतमयी कृष्णा सिंधु नदी में स्नानोपरांत देवदर्शन करने यहां आया करती थी। महाकाल दर्शन के पश्चात् नागनाथ दर्शन का भी विधान था  जिसके प्रमाण हमने मार्ग में स्थित पंचमुखी नागेश्वर मंदिरके रूप में देखे थे। हमें बताया गया कि त्रिलोकी का रक्षण करने वाले महाकाल की सुन्दरसी में प्रतिस्थापना से परितुष्ट सुखवंती बहिन सुन्दराबाई के सच्चे हृदय से हरि स्मरण करने से सुंदरगढ़ अथवा सुन्दरसी वैभव की पराकाष्ठा को संस्पर्श करने लगा था ।टीन शेड वाली नई व्यवस्था के सामने से गुजरते समय जलेबी मेले का भी उल्लेख हुआ ,मीठी सी सिहरन हुयी ,देवेंद्र जी बताते जा रहे थे महाकाल मंदिर के एन सामने लम्बे समय तक जनवरी की ठिठुरन में गरमागरम रसभरी जलेबियों की बहुतेरी दुकानें लगती थीं, चौदह दिनों तक चलने वाले जलेबी मेले में अड़ोस पड़ोस के गांवों से जलेबी के आस्वादकों का रेला लगता था, परिसर में प्रविष्टि के साथ ही शहतूत, अनार, बेलपत्र, नीम आदि के वृक्षों को गिनाकर देवेन्द्र जी बताने लगे यहां कभी महाकालवन जैसा घना वनक्षेत्र हुआ करता था। भेड़ा के पेड़ पर लगे डोडे गांव वाले चाव से खाया करते थे वृद्ध वट वृक्षों की तो भरमार थी। दो एकड़ में विस्तारित महाकाल मंदिर परिसर में अनगिन परमारकालीन स्थापत्य के भग्नावशेषों को एकत्रित कर सुरक्षित रख दिया गया था। परिसर में प्रवेश के साथ ही हम इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके थे कि पीढ़ी दर पीढ़ी विचरती लोक श्रुतियों को आधार मानकर जो मंदिर निर्मितियाँ पूर्व में हुयी होंगी ,परवर्ती शासकों ने भी उसी परम्परा का आलंबन लेकर निर्माण किये होंगे।जो दृष्टव्य था वह परमार नृपों द्वारा निर्मित कल्याण के प्रदाता देवाधिदेव महादेव के भव्यतम आलयों के संकुल के रूप में हमारे सामने था। भूमिज शैली में निबद्ध सप्तरथी तल विन्यास वाली अप्रतिम संरचना पूर्वाभिमुखी  मंदिर जो अर्धमण्डप, महामण्डप, अन्तराल तथा गर्भगृह में विभक्त था को सामने पाकर हम अभिभूत थे। मंदिर के द्वितीय तल पर ओंकार  मान्धाता के अनुरूप ओंकारेश्वर  मंदिर की निर्मिति थी ।

भूमिज शैली में निबद्ध सप्तरर्थी तल विन्यास वाली अप्रतिम संरचना पूर्वाभिमुखी महाकाल मंदिर का गर्भगृह

यहां कभी विद्यमान रहे अन्य मंदिरों के शिखर, जंघा, शुकनासा, रथिका, वरण्डिका, और स्कन्ध के अलंकृत शिल्प खण्ड परिसर में सर्वत्र दिख रहे थे। महाकाल मंदिर के शंखयुक्त उदुम्बर, अर्धचन्द्र, मंडारक इत्यादि परमारकालीन स्थापत्य को परिभाषित कर रहे थे। ललितासन में विराजे उमामहेश्वर, लक्ष्मीनारायण युगल, अलंकृत खण्डित नंदी प्रतिमाएं भी मंदिर प्रांगण में यहां वहां दृष्टिगत हो रही थीं। परमार शिल्पियों की अनूठी शिल्पण क्षमता के परिचायक महाकाल  मंदिर के भीतर भी अलंकरण युक्त घट पल्लव, दिभंग मुद्रा में द्वारपाल, प्रवेशद्वार की उत्तरांग पट्टिका के मध्य में अष्टभुजी शिव ताण्डव प्रतिमा, सप्तद्वारशाखा, कमलदलाकृतियों से अलंकृत द्वार शाखाओं पर शिवद्वारपालों और त्रिभंग मुद्रा में परिचारिकाओं का शिल्पाकंन, समभंग मुद्रा में सूर्य की स्थानक प्रतिमा, चतुर्भुजी वीणाधर शिव का  त्रिभंग मुद्रा में अंकन, कुबेर की त्रिभंगी मुद्रा में प्रतिमा, शिवलिंग के पार्श्व  में समभंगी मुद्रा में मां पार्वती, मुख्यद्वार पर कीर्तिमुख, मध्य में मंदारक, ब्राह्मणी, वैष्ण्वी और सरस्वती प्रतिमाओं का शिल्पांकन और गजासुर संहार गणेश और योग प्रतिमाओं के माध्यम से शिल्प की दृष्टि से समृद्ध परमार कालीन शिल्पण को देखकर हम भौंचक्का थे।मूलद्वार की चौखट के मध्य मंदारक और कीर्तिमुख का शिल्पांकन चंद्रशिला और पुष्पवल्लरियों से सुशोभित था।अशरणों को शरण देने वाले सबके मूल कारण और पालक आशुतोश शिव को नमन करके लगभग सात फीट गहराई लिये गर्भगृह के चढ़ाव से ऊपर आने पर छः स्तम्भों में से दो स्तम्भों पर उत्कीर्ण शिलाक्षरों को पढ़ने के क्रम में सिंदूर का आलेपन बाधक बनता रहा। इतना भर समझ पाये कि ग्यारहवीं सदी में राजा उदियादित्य के शासनकाल में इस मंदिर की परिणिति हुई  थी। शिलालेख को समझने के लिए इतिहास से संबंद्ध उत्तरप्रदेश के सौरों क्षेत्र के इतिहासकार डॉ. उमेश पाठक जी का सहयोग लिया। उन्हीं से ज्ञात हुआ कि वला हितां जु प्रणाम तिनितां लिपि पठन के दृष्टिकोण से परमरकालीन शिलालेख ही है। शिलालेख में जु वर्ण उन्हें  हैहेय वंशी राजा जाजल्ल देव के काल कलचुरि सं  866 ई. अर्थात  1114 काल का प्रतीत हुआ। यहां एक अन्य शिलालेख वि. संवत् 1224 का भी पढ़ने में आया। इतिहासकार श्री ललित शर्मा इस दूसरे शिलालेख को हरिश्चन्द्र परमार से जोड़कर देखते हैं। जो मालवा में परमारकालीन क्षेत्र के महाकुमार रूप में शासनकर्ता था। यह परमारों का पराभव काल था और परमारों की युवराज शासन श्रृंखला का प्रारब्ध काल था। हरिश्चन्द्र परमार के अधीन भोपाल, होशंगाबाद और पिपलिया नगर का भूखण्ड रहा है इसलिए यह अनुमानना हमारे लिए भी सुविधाजनक हो गया था कि हो न हो 13 पंक्तियों का यह अस्पष्ट अभिलेख हरिश्चन्द्र परमार का ही हो सकता है।पद्मश्री डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर ने संवत 1224 (सन 1167 ई ),कालप इस , श्रोत दा ,क्रीतो मना ,श्री वरन्तु ,ते च विले चहा ,एवं श्री स ,श्री लापे से ,श्री मंदाव ,श्री रारी ,वला हिजा ,जु प्रणमति,नित्यं शब्दों को मंदिर के शिल्पियों के नाम के रूप में अभिहित किया था। महाकाल मंदिर के पीछे मनकामेश्वर मंदिर और सूरजकुण्ड की व्यवस्था थी। सूरज कुण्ड ही वह जलक्षेत्र है जिसके पुनीत जल से ही श्री महाकालेश्वर का नित्य जलाभिषेक किया जाता है, यह जानकारी देवेंद्र जी से प्राप्त हुई। मंदिर के गर्भगृह में एक संकरा गहरा मार्ग था। ऐसी मान्यता है कि यह मार्ग किसी समय उज्जैन तक जाता था पर इस तथ्य  की प्रमाणिकता को सिद्ध करने वाले सूत्र हमारी पहुंच  से दूर ही रहे।  बिखरी हुई पुरा सम्पदाओं में 12वीं सदी की शंखपुरुष की प्रतिमा, नटराज शिव की शेषनाग लिए हुए प्रतिमा  बावड़ी की सीढ़ियों पर विष्णु की 10वीं शताब्दी की चतुर्भुजी प्रतिमा के  शिल्पांकन ने हमें विशेष रूप से आकर्षित किया । मंदिर प्रांगण में रखी हुईं शिव पार्वती युगल ललितासन में और लक्ष्मीनारायण युगल गरुड़ के शीश पर विराजमान प्रतिमाएं शिल्प शास्त्र की दृष्टि से अद्वितीय थीं ,उमामहेश्वर की दो अन्य प्रतिमाएं व चतुर्भुजी वीणाधर शिव त्रिभंग मुद्रा में अनुपमेय थीं ,अहाते में  शीष व कर भग्न त्रिभंगी मुद्रा में अप्सराएँ, वैष्णव देवी की चतुर्भुजी प्रतिमाएँ व्यवस्थित रखी हुयी थीं ।अलंकृत नंदी की भग्न प्रतिमाएँ और महाकालेश्वर मंदिर की अंडाकार छत का भग्नावशेष  हनुमान मंदिर के चौंतरे के निकट रखा हुआ था ।परिसर में श्री हरसिद्धि देवी का अर्वाचीन मंदिर भी अवस्थित था । कभी परमारकालीन शिल्प सौष्ठव से परिपूर्ण रहे इस मंदिर के क्षतिग्रस्त देवी विग्रह को नर्मदा में विसर्जित कर नयी प्रतिमा की प्रतिष्ठा की जा चुकी थी । धूप नरम -नरम डग भरकर अब तक महाकाल मंदिर परिसर में  पसर गयी थी मानो सूपड़े से छिटककर कनक के दाने यहाँ-वहाँ बिखर गए हों। शिवार्पित होने का हुलास चहुँ ओर परिलक्षित हो रहा था।देवेंद्र जी हमें बताने लगे कि हमारे पूर्वज बताते  रहे हैं कि इस मंदिर का  संरचनात्म्क वैशिष्ट्य ऐसा रहा है कि भुवन भास्कर की किरणें पहले पहल सीधे गर्भगृह में विराजे त्रैलोक्याधिपति और पार्वती जी के चरण पखारें ।सरल शब्दों में कहें तो धूप फूल-दोना लेकर अनंत विभूतियों और संसार में  स्थित समस्त आत्माओं के स्वामी श्री महाकालेश्वर की स्तुति किया करती थी। हम परिसर में खड़े हुए यह विचारने लगे थे, धन्य है बहन सुन्दरा जिसे भाई विक्रमादित्य का अपार स्नेह प्राप्त हुआ जिनका स्वयं का तेज और ओज सूर्य के समान हुआ करता था।

Comments

  1. बंशीधर बन्धु, ज़ेठरा जोड़ says:

    बहुत ही रोचक, तथ्य परख और महत्वपूर्ण। बधाई!

  2. Varsha Nalme, Ajmer says:

    Thanks maam…aadha pd liya ..bahut sunder matter n pics ?????

  3. ललित शर्मा, झालावाड़, राज. ('महाराणा कुम्भा इतिहास' अलंकरण) says:

    -पुरोवाक-

    भोपाल की सांस्कृतिक अस्मिता और लोक संस्कृति से अभिप्रेरित पत्रकार दिशा अविनाश शर्मा द्वारा एक लम्बे अरसे से मध्य प्रदेश की कई ऐसी लोकसंस्कृति धारोहरों पर ऐसा अनछुआ कार्य किया जा रहा है जिसके माध्यम से अनेक तथ्य व सांस्कृतिक पक्ष प्रकाश में आ रहे हैं।

    हाल ही में उन्होनें शाजापुर जिले के परमारकालीन सुन्दरसी ग्राम में स्थित महाकाल मंदिर तथा अन्य मंदिरों की लोक संस्कृति का चित्रण जिस प्रकार अपने परिश्रम से खींचा वह आश्चर्यचकित कर देने वाला है। उन्होंने सुन्दरसी की कथा, इतिहास के साथ विक्रमादित्य की अनुजा सुन्दरबाई के वृतान्त के साथ उस क्षेत्र के ग्रामीणों, बुद्धिजीवियों, कवियों के साक्षात्कार लेकर इस महत्ता को प्रमाणित किया है। दिशा शर्मा ने इसी के साथ चित्रों के माध्यम से पुरातत्व की दुर्लभ मूर्तियों, मंदिर, स्थापत्य के साथ स्थानीय ग्रामीण, पथ, सघन वन तथा ग्रामीण आवास का ऐसा जीवन्त चित्रण किया है मानो यहाँ की संस्कृति हमसे संवाद करने को तत्पर हो। उनके इस कार्य को महसूस कर यहाँ कहा जाना सटीक होगा कि- भारत की सच्ची लोक संस्कृति के दर्शन हमें सुन्दरसी जैसे ग्रामों में ही दिखायी देते हैं। सद् प्रयास हेतु हृदय से अभिवादन।

  4. Rajendra Kumar Malviya says:

    दीदी बहुत ही सुंदर औ मनोहरी वर्णन है, आपकी लेखनी का जवाब नही है, सीधे मन मस्तिष्क पर प्रभाव डालती है।। इतिहास के गर्व से निकाल कर फिर एक बार एक ऐतिहासिक सत्य से सभी अनभिज्ञ लोगो को अवगत कराने के लिए धन्यवाद।।

  5. रामाराव जाधव सुन्दरसी says:

    धन्यवाद मैडम जी हम सभी गाँव वाले आभारी हैं आप के।

  6. Indra Dikshit, Pune says:

    To much scope in Archaeology. Best wishes to U. Nice research papers.

  7. O P Mishra, Bhopal says:

    I have read the complete text and videos ,photographs related to sundarsi ancient site in Malwa region.raman Solanki and Prashant Puranikji are the scholar’s in that region.puranshahgal also give informative.your report on this topic needs no comment.excellent matter .regarding this arealocal folk songs are also be quite impressive.photographs are to be in the photo archives.now no serious scholars moving for such academic researches.thank you very much for your field work and taking interviews of the very senior citizens.you are adding new chapters in archaeology, social areas,art,architectures and religious fields.once again thank you very much for taking interest.

  8. देवेंद्र प्रजापति, सुन्दरसी says:

    जय श्री महाकाल

    आपके द्वारा भूत भावन महाकाल की नगरी सुन्दरसी (सुंदरगढ़) के अवन्ति के राजा विक्रमादित्य की बहन सुंदराबाई जिनका विवाह सुंदरगढ़ के राजा भगवत सिंह से हुआ था एवं उज्जैन में जितने भी मंदिर थे उतने मंदिर ग्राम सुन्दरसी (सुंदरगढ़) में बनाए गए, विक्रमादित्य की बहन सुंदराबाई रोज सुबह महाकाल मंदिर एवं अन्य मंदिरों में दर्शन करने जाती थीं, यह सभी जानकारी आपके द्वारा बड़ी ही सुन्दर सटीक सरल भाषा के प्रयोग के साथ वर्णित की गई है। इससे हमारी नई पीढ़ी को ज्ञान प्राप्त होगा एवं इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त होगी।

    इससे मैं आपको सहृदय प्रणाम करता हूँ।

    “जय श्री महाकाल”

  9. राम प्रसाद ' सहज ' शुजालपुर says:

    रोचक, श्रेष्ठ व संग्रहणीय ।
    ‘साहसिक कदम ‘
    ‘हार्दिक बधाई’
    ?✍️?

  10. Umesh Pathak says:

    ब्रह्माण्डीय यात्रा में हमें कब कहाँ जाना होगा यह निर्णय तो उसके निर्माता और नियन्ता के हाथ में ही होता है। पर यात्रा के अनुभव को उस मार्ग के विश्राम स्थलों के सहयात्रियों के साथ साझा किया जाता है। ज्ञानवृद्ध सहयात्री अपने अनुभवों से अग्र गमक जनों के लिए पथ प्रदर्शक होते हैं। आदरणीय बहन श्रीमती दिशा अविनाश शर्मा भोपाल भी एक ऐसी सहयात्री हैं जो अपनी मार्ग दैन्दिनी (रोड डायरी) सृज कर वर्ण, ध्वनि, व चित्र पिपासुओं को सुरम्य सुखद उद्यान उपलब्ध करती हैं। उनका सुन्दरसा (सुन्दरसी) यान्त्रिक ग्रन्थ (ब्लाग) वन्दनीय व नमनीय है। विक्रमादित्य के काल से अब तक के अनगिनत सृजनधर्माओं के कर-चिन्हों व ध्वनियों के संग्रहीत और संयोजित कर रामायण रघुवंश, रामचरितमानस या कामायनी जैसा सृजन दिशा बहन आपने दिया है। इसमें इतिहास, साहित्य, संगीत और कला (नैसर्गिक दृश्य) सब कुछ समाहित हैं, इसलिए यह एक महाकाव्य है। तथा भारत भूमि के महाप्रतापी नृप विक्रमादित्य को श्रद्धावनत पुष्प गुच्छ हैं। मेरे जैसे अनुजों औद इतिहास, साहित्य, संगीत व कला अनुशीलकों को आपका लेखनीय वरद हस्त सदैव शारदीय व वासन्तिक रहे इन्हीं कामना व भगवान धरणीधर व माता गंगाजी से प्रार्थना के साथ।

    आपका अनुज,
    उमेश पाठक
    वासन्तीय नवरात्रि प्रतिपदा, वि0सं0 2077
    मौ0 चैदहपौर महीधर्राचन खडगगिरिमठ
    पो0 सोरों सूकरक्षेत्र
    जनपद- कासगंज उ0प्र0

  11. बालकृष्ण लोखण्डे, भोपाल says:

    रचियेता द्वारा तथ्यों परक अनुशोधों की तह परत दर परत स्थलों की अनुश्रुतियों/किंवदंतियों पर ही नहीं प्रमाणों को अपनी श्रृशुधा शांत करने के संकल्प में यथासंभव भ्रमणशील को नमन्ति स्वीकार हो।

  12. दिनेश झाला, शाजापुर says:

    ???? आपके द्वारा सम्पादित कार्य अत्यंत सराहनीय हैं। साधुवाद ।

  13. नारायण व्यास says:

    देखा और सुना। बहुत अच्छा शोध हैं एक सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता है। सौलंकी जी ने जिस स्तूप के विषय मे उल्लेख किया है, कभी भविष्य मे मैं कभी देखने जाऊँगा। धन्यवाद

  14. Pirtam Singh Rathod says:

    बहुत-बहुत धन्यवाद एवं आभार

  15. Vinayak Sakalley says:

    Mam , your travel blog is amazing , it motivates the historians and travel bloggers literally influenced to visit such historical landmarks. It is the privilege of late King Vikramaditya who got a laureate author like you. After reading your blog the readers have a great eye for your alluring travel destinations photography. The video content of the historians like Rajpurohit sir of Ujjain is amazing amid your blog, You are a talanted writer who creates a great content. Very inspiring blog mam??

  16. विशाल, मनावर says:

    चित्रात्मक और सरल??

  17. विशाल वर्मा says:

    अपने गौरवपूर्ण इतिहास के सत्य परिचित कराता आपका लेख। धन्यवाद

  18. रूपेश विश्वकर्मा, अमलार says:

    दीदी प्रणाम,
    सुन्दरसी के बारे में 7 भाग पढ़कर मन प्रसन्न हो गया।
    पुनः हार्दिक साधुवाद।

  19. अशोक पाण्डे, सिंगरोली says:

    Bahut achha rachnatmak Kary hai. Aap ki kalpna shakti anupam hai.

  20. बंशीधर ' बंधु ' शुजालपुर says:

    आदरणीय दीदी
    आपके इस मनोरम यात्रा वृत्तांत को दोबारा पढ़ने का अवसर मिला। इस बार भी एक नई दृष्टि और नए चिंतन का सूत्रपात हुआ। बार – बार जिज्ञासा होती है। बहुत कुछ अनजाना,अनछुई पुरातत्विक,ऐतिहासिक,सांस्कृतिक,धार्मिक और प्राकृतिक संपदा का रहस्य छुपा है इसमें।
    पुन:बधाई एवं शुभकामनाएं।

  21. डॉ एम सी शांडिल्य says:

    सम्मानीय प्रणाम
    अति सुन्दर पर्यटन, लेखन और सृजन

    आत्मीय शुभकामनाएँ!

  22. डॉ डमरूधरपति says:

    संस्कृति रक्षा , देश सुरक्षा

  23. डॉ डमरूधरपति says:

    श्रेष्ठ कार्य ???

  24. Ajay Khare says:

    Congratulations madam ! Beautifully written .
    the article makes it very clear that history and mythology are so intricately interwoven in India that it is difficult to sift history from mythology. It is interesting to know that people still cherish their traditions.

  25. डॉ के के त्रिवेदी, झाबुआ says:

    सुन्दरसी का नैसर्गिक सौंदर्य..प्राप्त पुरातात्विक मूर्ति-शिल्प.. और उसका गौरवमय इतिहास आपकी लेखनी से जीवंत हो उठा है।..यह अविस्मरणीय आलेख न केवल उस क्षेत्र के बाशिंदों को उपहार है,यह वर्तमान पीढ़ी को शोध के लिए प्रेरित करता रहेगा।..भूले-बिसरे ऐतिहासिक गौरव को आपने बड़ी ही सूक्ष्मता से अवलोकन-अध्ययन कर अहर्निश कठोर परिश्रम और अनुभव के साथ लिपिबद्ध किया है ।आप ऐसे ही अतीत की धरोहरों को उजागर कर लोक संस्कृति से आम आदमी को भारतीय अस्मिता से परिचित कराती रहे.. बधाई !

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