यात्रा की शुरुआत – देवास और सीहोर जिलों की सीमा (जिसे ग्रामीणजन सरहद्दी पुकारते हैं) में स्थित देवबल्ड़ा
लीजिये! आकाश के सुन्दर क्षितिज पर आ विराजे सविता भगवान और हम भोपाल इंदौर राजमार्ग क्रमांक 18 पर भोपाल से 125 कि.मी. दूर स्थित विंध्यांचल पर्वत माला के नाभिस्थान और नेवज नदी के उद्गम स्थल देवबल्ड़ा के परमारकालीन मंदिर संकुल के अन्वीक्षण और मंदिर क्रमांक एक की पूर्णता के साक्षी बनने की उद्देश्य सिद्धि यात्रा पर निकल गए थे। देवास और सीहोर जिलों की परिमा (जिसे ग्रामीणजन सरहद्दी पुकारते हैं) में स्थित जावर तहसील के देवबल्ड़ा गांव का पहुँच मार्ग मालवा को श्रीसंपन्न बनाने वाली सिंचाई की बारहमासी प्राणपद नदियों का दिग्दर्शन करा रहा था। सोंडा गांव के निकट अजनास नदी, पतनास और पार्वती नदियों का संगमन, निर्विन्ध्या (पौराणिक नामधेय) नेवज नदी का नैरन्तर्य, डोडी के निकट दूधि नदी से अभिसिंचित सजल धरा में मार्ग के दोनों ओर लहलहाते मालव शक्ति और तेजस प्रजातियों के गेहूं के दर्शी बने हम सबेरे -सबेरे फंदा, कोटरी, अमलाय, आष्टा, वेदाखेड़ी और सियाखेड़ी होते हुए मेहतवाड़ा पहुँच गए थे। राजमार्ग से उतरकर मेहतवाड़ा के महात्मा गाँधी मार्ग के यूकेलिप्टस के ऊँचे पूरे तने हुए वृक्षों की पंक्तियों के बीच से हमें एक संकरा मार्ग ग्राम भानाखेड़ी में ग्राम पंचायत सचिव रहे श्री जीवन सिंह ठाकुर के घर तक ले आया था।यहां से 10 किलोमीटर दूर स्थित देवबल्ड़ा जाने के क्रम में उन्हीं के साथ गाँव के कर्मप्रधान जीवन और सलोने ग्राम्य परिवेश की दृश्यावलियों को नैनों में बसाते हुए हम बढ़े जा रहे थे। वैसे तो देवबल्ड़ा पहुंचने का एक और रास्ता सोनकच्छ से दौलतपुर होकर भी जाता है पर हमने आष्टा वाला मार्ग चुना, सघन अरण्य क्षेत्र बीलपान से तीन किमी दूर पश्चिम दिशा में देवबल्ड़ा का कच्चा संकरा मार्ग खाखरा, टेमरू, साजड़, धावड़ा, मोहिनी, पीपल, बबूल, कदलिया, कड़ा, नीम, बिल्ली, (विल्ब पत्रों के वृक्ष को बिल्ली पुकारा जाता है ) बेकल, करौंदी के वृक्षों से आच्छादित था। हम जिस क्षेत्र में परिभ्रमण कर रहे थे वह पार्दीखेड़ा के 1030594 हेक्टेयर और चौबारा जागीर के 6880390 हेक्टेयर क्षेत्र में विस्तीर्ण जंगल का हिस्सा था।
भोपाल से सीहोर जिले के बीच विंध्य पर्वत गिरियों से घिरे देवबल्ड़ा की यात्रा
विंध्यांचल पर्वतमालाओं से घिरा समुद्र सतह से लगभग 2042 फीट ऊपर,परमारकालीन देवबल्ड़ा मंदिर संकुल,वृत्ययत प्रकार का पंचरथी शिवमंदिर तैयार
जीवन सिंह जी से वृक्षजुर्वेद को समझने के क्रम में सहसा हमारी दृष्टि कभी 12 बीघा क्षेत्र में विस्तारित रहे अखिल विश्व के प्रतीक वट वृक्ष की शाखाओं-प्रशाखाओं के दुर्निवार विस्तार वाली घनी काली छाया पर ठहर गयी थी।राह चलते पथिकों को अपनी छाँव में बैठने का नेह निमंत्रण देते इस वट वृक्ष को मार्ग अवरोधक बनने के कारण कुछ वर्ष पूर्व पांच बीघे तक छांट दिया गया था, यह जानकारी मिलते ही मन विषाद से भर गया। धरित्रि के वक्ष को भेदकर फैल गई इस वृक्षनाथ की पातालगामी जड़ें कितने विध्वसों की साक्षी रहीं होंगी मन यही सोचने लग गया था। काठ की तलवार भांजने से किसका भला हुआ है बताइये हमने अपने मन को समझाया अपनी राह पकड़ो और हम आगे बढ़ गए। पंचायत की पाठशाला, खाल, बाड़ा, भैंरु बाबा का ओटला आदि पार कर जूनी बीलपान तक आ गए थे। विंध्य पर्वत की तलहटी में रहने वाले परिवार किसी समय बीलपान गाँव में आकर बस गए थे, इसीलिए यह स्थान जूनी बीलपान कहलाने लगा। देवबल्ड़ा में बल्ड़ा का शाब्दिक अभिप्राय पहाड़ से है हमारे पथ प्रदर्शक जीवन सिंह हमें जानकारियां देते चल रहे थे। शेर, हिरण, नीलगाय (रोजड़ा), सांभर, चीतल, तेंदुआ के बसेरे वाले सघन वनांचल को पीछे छोड़ हम अब तक विंध्यांचल पर्वत मालाओं से आवेष्टित देवबल्ड़ा की ओर ऊपर की ओर अग्रसर होते जा रहे थे। तीन कि मी नीचे झीकड़ी गांव के जलाशय को निहारते हुए गिट्टी व मुरम वाले रास्ते पर डगमगाती हुई मोटर समुद्र सतह से लगभग 2042 फीट ऊपर की ओर स्थित परमारकालीन देवबल्ड़ा मंदिर संकुल के भग्नावशेषों की ओर शनैः शनैः बढ़े जा रही थी। प्रकृति की रमणीयता में रमते रमाते संकीर्ण पगडंडियों से गुजरने के क्रम में मोटर दोनों ओर के पेड़ों को संस्पर्श भी करती चल रही थी। कुछ देर शांत बैठने के उपरांत जीवन सिंह के स्वर पुनः कान में पड़े थे 1956-57 में देवबल्ड़ा में एक विशाल यज्ञ का आयोजन हुआ था। श्री बलरामदास जी द्वारा सम्पन्न कराये गए यज्ञ में आस-पास के गांवों के बहुतेरे धर्मानुरागी सम्मिलित हुए थे।
देवबड़ला मंदिर संकुल के शिव मंदिर क्रमांक 1 की पूर्णता, मूल शैली, मूल प्रक्रिया और मूल वास्तुखण्डों से पुनर्निर्मित मंदिर, पुनर्निर्मिति के बाद वृत्तयत प्रकार के पंचरथी मंदिर की संरचना
देवबल्ड़ा में 1710 फीट की ऊँचाई पर विद्यमान प्राचीन यज्ञागार से उस यज्ञायोजन की प्रमाणिकता भी सिद्ध होती रही है। यज्ञ स्थल से 213 फीट की ऊँचाई पर जलकुण्ड जिसे शिव कुंड भी कहते हैं, स्थित है वहीं शिव मंदिर की प्रतिष्ठापना भी है। हम जीवन सिंह जी की बातों को ध्यान से सुन ही नहीं रहे थे बल्कि मन मंथन भी करे जा रहे थे। मोटर एक स्थान पर जाकर रुक गयी थी इससे आगे आरोहण हमें पैंया-पैंया ही करना था। गगन की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते जिस प्रकार दिनकर श्रांत हो जाता है, धूल-धूसरित रास्ते में आरोही (चढ़ने वाले ) बने हमारी दशा भी ठीक वैसी ही हो चुकी थी। लेकिन आकाश की अकलंक नीलिमा में ध्यानमग्न देवभूमि और प्रकृति की मंजुल क्रोड में शैव शाक्त और वैष्णव उपासना सम्बन्धी प्रतिनिधि प्रतिमाओं को देखने की लालसा हमें गतिमान बना रही थी। मंदिर संकुल के मलबे के ध्वंसावशेषों के बीच पुनरुद्धार के उपरांत परमारों की प्रतिनिधि मंदिर स्थापत्य कला भूमिज में निर्मित वृत्ययत प्रकार का पंचरथी मंदिर हमारे सामुख्य था। जिसकी लघु रथिकाओं में देवी देवताओं का अद्भुत शिल्पांकन था। कुम्भ के ऊपर कलश, कपोतिका, कणिका, बन्धनमालिका और जंघा के भाग अलंकृत थे। शिखर भी लतामंजरियों से सुशोभित था। भूमिज शैली के पंचांग शिखर के समस्त अंगों से परिपूर्ण आमलक व कलश भव्यता लिए शोभायमान थे। गर्भगृह के बाह्य विन्यास में अधिष्ठान में जाड्यकुम्भ, मसुरक, अंतरपटि्टका और कणिकाभाग दृश्यमान थे। अंतरपटि्टका और कणिका के मध्य अलंकृत पट्टी थी। गर्भगृह के प्रवेश द्वार का सिरदल, द्वारशाखा, बहुअलंकृत थीं। 51 फीट ऊंचा यह शिव मंदिर 98 प्रतिशत मूल शैली में मूल वास्तु खंडों से निर्मित था। मंदिर क्रमांक 1 की सम्पन्नावस्था हमें इसलिए भी प्रभावित कर रही थी क्योंकि अपनी पूर्ववर्ती यात्राओं में हमने इसी शिव मंदिर के भग्न प्रस्तर खंडों को पुनर्निर्मिति स्थल के आसपास बिखरा हुआ पाया था। ग्यारहवीं शताब्दी के इस विशिष्ट शैव मंदिर की पुनर्निर्मिति का कार्य मध्य प्रदेश पुरातत्व विभाग ने मई 2016 में प्रारम्भ किया था। इसी समयावधि में हमने अपनी पिछली यात्राओं में पूर्वामुखी इस मंदिर को आकार लेते देखा था। यहां के शिलाखंडों पर होने वाले सतत प्रहारों और लोहे की टंकार को हमने नैकट्य से सुना था। भूमि समतलीकृत करने का सतत कार्य हो या हो मलबा परिमार्जन के कार्य में संलग्न श्रमिकों के संसाधनों की निरंतरता, संचयन और कार्य सम्पादन दल के सदस्यों का अथक परिश्रम हम सभी के प्रत्यक्षदर्शी रहे थे। वेदीबन्ध की डेढ़ मीटर ऊँची संरचना को 51 फुट ऊँचे मंदिर के स्वरूप में अंतिम रूप देने में जुटे रहे राजस्थान के भरतपुर से प्रशिक्षित पलस्तरकारी सामर्थ्यवान कामगारों की संजुत कला को भी हमने निरखा परखा था। अग्नि, गणेश, कार्तिकेय, विद्याधर, लक्ष्मी, शारदुल, नायिका युक्त द्वारजंभ स्तम्भ फलक पर विष्णु, नरवराह, मंडप के अलंकृत स्तम्भ, कलश इत्यादि परमारकालीन शिल्प सौष्ठव के अकाट्य प्रमाणों के रूप में तितर – बितर पड़े वास्तु खंडों को लांघकर ही हम मंदिर के के पास पहुंच पाए थे। खाई के किनारे तक विस्तारित मंदिर के इन्हीं वास्तुखण्डों का विभाग ने पुरातत्व विज्ञान की तकनीकों से सर्वप्रथम संचयन हमारे सम्मुख ही करवाया था। समतलीकरण के पश्चात् अलंकृत स्थापत्य खण्डों को वर्गीकृत और चिह्नांकित किये जाने का कार्य भी योजनाबद्ध शैली में हमारे समुहा ही किया गया था। डॉ. रमेश यादव की अगुआई में सुनियोजित शैली में किये गए पुनर्निर्मिति कार्य से मूल मंदिर के समीप एक माह के पश्चात् अथक प्रयासों द्वारा पहुंच पाना संभव हो सका था। मूल मंदिर का विशाल मलबा समीप के तल से 25 फीट ऊंचा था जिसकी मार्जना से सर्वप्रथम गर्भगृह और मुखमंडप के उत्तरी ओर के भाग प्रकाश में आये थे। तत्पश्चात पार्श्व भाग में वेदीबन्ध के जाड्यकुम्भ तक के भाग सामने आते गए थे। मुख्य रथ तथा पश्चिम के रथ बाद में दृष्टिगत हुए थे। यद्यपि यहां वहां जहां तक दृष्टि जा पा रही थी नितांत निविड़ निर्जन क्षेत्र में वहां तक मंदिरों की टूटफूट के दृश्य आज भी दिखाई दे रहे थे। प्रशांत क्षेत्र में पुरातत्व विभाग के प्रशस्य कार्य के निरीक्षण के उपरांत मन कह रहा था वर्षों का चुप्पापन तोड़कर अब यह क्षेत्र प्रबोधित हो गया है , ठीक वैसे ही जैसे पहले कभी 11 मंदिरों से एकसाथ निस्सृत होने वाले मंत्रों के दीर्घोच्चारण की असीम शक्ति से यह सुखदा क्षेत्र प्रकंपित हो जाया करता होगा, कल्पना मात्र से सिहरन होने लगी थी। मंदिर के भग्नावशेषों का प्राचुर्य इस बात की ओर इंगित कर रहा था कि परवर्ती काल में इन मंदिरों के पुनर्नियोजन की कोई क्रियान्वति नहीं हुई। मूर्तियाँ अवश्य यहाँ से अन्यत्र स्थानांतरित की जाती रहीं होंगी । हमारे ठीक सामने स्थित अर्वाचीन राम मंदिर परिसर में गांव वालों के संकीर्तन के स्वर छन छन कर हम तक पहुंच रहे थे। ग्राम चौबारा जागीर के फतेह सिंह और मानसिंह भाइयों का गीत आशुतोष भगवान शंकर के दर्शन की व्याकुलता लिए हुए था। ऐसा प्रतीत हो रहा था देवबल्ड़ावासी समवेत स्वरों में मानो भूतभावन भगवान शंकर से कह रहे हों मंदिर क्रमांक एक का उद्धार तो कर दिया अन्य मंदिरों के दिन कब बहुरेंगे।
Madamji, excellent matter.you have covered all important historic sites around deobadla.your matter is very useful to local administration who needs historical background regarding cultural and folk songs bhakti feet remind the continuity of the religion. Ramesh Yadav has done an excellent job and justice for the paramara site Devbadla. Dr. Tejsingh Sendhava was a devoted person who did his Ph.D. and still, he is keen on the historic and cultural development of this region. You deserve congratulations and appreciations to work and takin interviews even with the scholar’s but also who is associated with this region. The source of the river and its information is also useful.on the centenary of Dr v s Wakankar this remembers his visit to the region.nature and social study will help for future generations.thanks for giving the details of temple architecture and information of the unique sculptures of devbadla.good information for new archaeological researchers. Thanks.
अभिमत
लोककथा, इतिहास और पर्यटन पर केन्द्रित ‘ब्लाग’ ‘देवबल्ड़ा’ क्षेत्र का वर्णन ब्लाग रोड मैप लेखिका दिशा अविनाश शर्मा (भोपाल) की नवीनता का ऐसा प्रतिमान है जो मालवा के लोक साहित्य, पर्यटन को महत्वपूर्ण दिशा देता है।
यहां के मन्दिरों के स्थापत्य के पुराकला वालें भागों को उन्होंने गहनता से छुवा है। उन्हें पढ़कर मन्दिर विज्ञान को समझा जा सकता है। क्षेत्रीय धरोहरों की स्थापना, कला, गाथायें तथा वहां की हरितिमा प्रकृति को पढ़कर पर्यटक दौड़ पड़ता हैं। अनेक लोक गायकों की भजनावलियों के साथ पुराविदों के साक्षात्कार एवं देवबल्ड़ा के विहंगम दृश्य ब्लाग को मनोरम बनाते हैं। यह क्षेत्र परमारों का कलात्मक तीर्थ क्षेत्र रहा। डाॅ. वाकणकर ने इसको जग जाहिर किया तथा आज के दौर में दिशा शर्मा ने ब्लाग के माध्यम से हमारे समक्ष प्रकाशित किया। उन्होंने मालवा भूमि के जिन भी स्थलों के ब्लाग लिखे उनमें लोक के महत्व के साथ पर्यटन, पर्यावरण तथा पुराकला को जोड़ा है। वे सदैव आगे बढ़ती रहें- मालवा की अर्चना में निरत रहें – यहीं समय से कामना है।
भूली बिसरी लोककला, स्थापत्य, प्रशासक -परंपरा, पर्यावरण एवं पर्यटन संभावना की पथ प्रदर्शक चिंतनशील प्रस्तुति । मंगलकामनाएं!
?????बहुत ही अच्छा!
आप बहुत अच्छा लिखती हैं, पता ही नही था हमारे आसपास इतनी सुन्दर और historical जगह है. आप लोगो की मेहनत को नमन ??
बहुत बढ़िया लेखन
स्व डॉ काटजू पूर्व गृहमंत्री जी के द्वारा देवास जिले (गंधर्वपुरी)के पुरातत्व सम्बंधित योजनाओं में काफी रुचि ली गई थी,उन्ही के सपनो को आप साकार कर रही है।बहुत बहुत धन्यवाद, आभार।
आपका यह लेख पढ़कर मन आनंदित हुआ। आप अपने आप मे एक शब्दावली हैं।मौलिकता और आलौकिकता से प्रतिबिंबित लेख………..
बहुत सुंदर जानकारी । ये हमारे पास ही है और हमें पता ही नही, !!
दिशा, तुम्हारी लेखनी का तो जवाब ही नहीं । बस थोड़ा छोटा लिखा कर बहन, बहुत देर लगती है पढ़ने में ???
देव बल्डा के ऊपर आपके द्वारा परमार कालीन मन्दिरो के ऊपर जो लेख लिखा गया वह भारतीय संस्कृति को युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत जैसा कार्य किया जा रहा है वह सरहानी योग्य हैं.
आपका लेख देखा। बहुत सुँदर लिखा है। देवबल्डा नाम से ऐसा लगता है कहीं आसपास बौद्ध स्थल या स्तूप के अवशेष होना चाहिए।
आपकी अविरल यात्रा और अथक परिश्रम ही हमें ऐसे अनजान स्थलों की जानकारी हमें सुलभ रूप से प्रदान होती है ! धन्यवाद
दिशा मैडम का एक महत्वपूर्ण प्रयास है कि देवबल्ड़ा के ऊपर उनके द्वारा इस कार्यक्रम में बहुत ही अच्छी जानकारी और सटीक जानकारी दी गई है और हमारे विभाग द्वारा यहां जो कार्य किया जा रहा है उसका इससे अच्छा प्रचार-प्रसार और नहीं हो सकता है और मैं मैडम जी को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूं और उनका आभार प्रकट करता हूं कि देवरा के इस शिव मंदिर एवं देवलाल धाम को प्रचारित करने के लिए बहुत सुंदर ढंग से आपके द्वारा यह अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया है धन्यवाद
प्राचीनतम से चली आ रही परंपरागतो /किवंदंतियों पर शोधपूर्ण आलेखों को आप अपने तत्समय के चरितार्थ को मनीषियों के मंथन की बात निराली परंतु तथाकथित जनसामान्य मे उनका महत्त्व परोसकर सब जीवंत करने की कला आपके शोधो से परिपक्वता से झलकना नहींबहतो को विमर्श हेतु बाध्यकारी होती है कि अगला अंक क्या उजागर कर रहा हैं। साभार धन्यवाद जी।??
Nice field work????????
Dear bahan ji ,
thank you for the excellent research work like senior prof. of archaeology.. As on the report for the field work you have completed the geological, historical , anthropological, art architecture of the malwa region .regarding the interviews of the sri tej singh sandhav , he ig the original field worker and did his ph.d. on the area covered by you . he gave the detailed informations, as an archaeologist dr. ramesh yadava of the state archaeology, he deserves thanks for wonderful work for deobadla. he is the scholar who has taken keen interest to highlight the temples and sculptures in his leadership . i personally give him thanks for his devotion and scholarship, thanks to you for recording his views .limaye ji gave the information about this religious cultures anf folk literatures based .for recording the music and folk song which is now missing from the society for wich the persons who took kenn interest to sho the religious worship is wonderful. they must be given thanks .i must not give give any comments as no remaks needed being a press man you have taken task to highlight the treasures of this region of malwa of madhya pradesh…group of temple of deobdla was a center for the hindu , gods and goddesses. this was the seat during the paramara rulers . once again congretulations to you and those who gave you the time for recording the road dairy.thanks .
अत्यंत आनंददायक प्रस्तुति बहुत-बहुत प्रासंगिक बधाई ✌️
सादर प्रणाम
अति सुन्दर
आपकी देवबल्ड़ा डायरी में पुरातात्विक, सामाजिक, ऐतिहासिक अनछुए पहलुओं को छुआ गया है। आर्तियों और विद्वजनों के साक्षात्कारों ने आपकी यात्रा डायरी में चार चांद लगा दिए हैं।
हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं!
आपका का सिद्धिपुर आज के सिहोर जिले की देवबल्डा के श्रृंखलाबद्ध हजारों सालों के प्राचीन शैव मंदिर और और अनगिनत जैन मंदिरों जिसको मलेच्छो द्वारा कितने निर्ममता से ध्वस्त कर यहाँ के संस्कृति व गौरव को समाप्त करने का प्रयास किया गया पर वो आज फिर सरकार का प्रयास द्वारा पुनः स्थापित करना अपने आप में बहुत ही सराहनीय प्रयास है ।इसका जितना भी प्रशंसा की जाये कम है इन मंदिरों के भग्नावशेषों को देखने से कोई सहज ही अनुमान लगा सकता है कि किसी समय ये क्षेत्र भारत की सनातन संस्कृति के साथ साथ जैन पंथीयो का कितना बड़ा केन्द्र रहा होगा और यदि जैसा कि आपने बताया और वहां के फोटो मे दिख रहा है उन प्रस्तर भग्नावशेषों से दिखाई दे रहा है यदि पुनः उन मंदिरों को जीवित किया जा सके आने वाले समय में ये क्षेत्र फिर से सनातनीयो के लिए बहुत बड़ा केन्द्र हो सकता है और साथ ही साथ ये भारत के लिये एक महान् तीर्थ व विश्व के लिये पर्यटन केंद्र के रूप में विश्व पटल पर उभर सकता है आप का लेख व तस्वीरें इतनी जीवंत व मार्मिक है कि जब तक मैंने इसे पूरी तरह से पढ़ नही लिया तब तक प्रति क्रिया देने का मन नहीं हुआ ।भगवान् शिव की इच्छा हुयीं तो ये सारे मंदिर पुनः अपने गौरव को अवश्य प्राप्त होगा ।
देवबल्डा का नैसर्गिक सौंदर्य एवं मूर्तिशिल्प इतना समृद्ध है.. आपके अप्रतीम आलेख का अवलोकन कर अभिभूत हो गया.. अदभुतचित्रण और सशक्त अभिव्यक्ति के लिए बधाई।
पुनः प्रस्तुत आलेख देवबल्डा संकुल का नया स्वरूप प्रदान करता नजर आ रहा है
प्रसंग में निरंतरता के साथ-साथ विचारों में धैर्य तथा प्रस्तुति में प्राच्य स्थिति , पर्यावरण ,पर्यटन संरक्षण-संभावनाओं का लोकभाता प्रभाव सुस्पष्ट है
आत्मीय अभिवादन
बहुत सुन्दर । प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को नयनरम्य दृश्यों के साथ प्रस्तुत किया है । हम आभारी हैं, आपका पुनः पुनः अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ ।।
वसन्तकुमार भट्ट
अहमदाबाद ( गुजरात )
मंदिरों की संपूर्ण पृष्ठभूमि उभरकर आयी है।पुरतत्व अपने साथ इतिहास को भी लेकर चलता है।ज्ञानवर्द्धन साथ मंदिरों के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला वृत्तांत।बधाई!
इस स्थल की सर्वे रिपोर्ट मेरे द्वारा आयुक्त पुरातत्व कार्यालय भोपाल को प्रेषित की गई थी। विभाग द्वारा कराया गया कार्य सराहनीय है।🌹🙏🙏🌹
बहुत बढ़िया वर्णन, शुद्ध देसी हिंदी का प्रयोग, यात्रा वृत्तांत मजेदार….