तुलसाबाई की समाधि और गंगावाड़ी का जंगल
अब तक हम पैदल चलते-चलते तुलसाबाई की काले प्रस्तर से निर्मित समाधि तक आ गए थे। 20 दिसंबर 1817 को होल्कर सेना के अधिकारियों ने छल द्वारा अपनी रानी को मौत के घाट उतार दिया था। समाधि का निर्माण ठाकुर साहब के अनुसार बाद में मराठा सैनिकों ने किया। तीस वर्षीया तुलसाबाई की मृत्यु के बाद उनके अल्पवयस्क पुत्र मल्हारराव द्वितीय के साथ उसकी 20 वर्षीया बहन भीमाबाई बुले ने युद्ध की कमान संभाली थी परन्तु जनरल हिलसप की प्रशिक्षित सुनियोजित ब्रिटिश सेना के समक्ष अपनी पराजय सुनिश्चित जानकर वे युद्ध मैदान से बच निकले थे और उनकी हीरे जड़ित तलवार मेजर होर्स ने जनरल मालकाम को सौंप दी। इस प्रकार महिदपुर ने विगत दो शताब्दियों में तीन निर्णायक युद्धों की विभषिकाएं झेलीं। रामफल की प्रचुरता वाले वृक्षों को पीछे छोड़कर हम मोटर से धुर्जटेश्वर महादेव मंदिर मार्ग पर आगे बढ़ते हुए थोड़ी ही देर में अंग्रेज़ों की छावनी क्षेत्र में विचरण करने लगे थे,मार्ग में गंगावाड़ीक्षेत्र में ईमली के विशालकाय वृक्षों की कतारें थीं। उत्सुकतावश जब हमने डॉक्साब से स्थान विशेष के बारे में जानना चाहा तो ज्ञात हुआ कि 1857 की क्रांति विफल हो जाने पर महिदपुर के रणबाकुरों को जिन्होनें अप्रत्यक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप से क्रांतिकारियों की सहायता की थी को यहाँ हाथों से बांधकर लटकाया गया था।
मार्ग में अंग्रेज छावनी की बुर्जें, गंगवाड़ी का जंगल, तुलसाबाई की समाधि और रामफल
आठ दिन तक भूखे प्यासे लटके रहने पर मृत्यु को वरण करने वालों की लाशें महीनों तक यहाँ टंगी रहीं थीं । अंग्रेज़ों द्वारा दी गयी प्रघोर यातनाओं के साक्षी रहे इमलियों के वृक्षों को देखकर मन नैराश्य से भर गया।वह अतिदुःसह स्थिति थी ,ठाकुर साहब के अनुसार लम्बे समय तक कोई यहां आने जाने का साहस नहीं कर पाता था । परिणाम यह हुआ कि यहां बबूलों का बहुत बड़ा जंगल विकसित हो गया। वृक्षों की व्यापकता के कारण 200 फिट दूर तक देख पाना भी सम्भव नहीं हो पाता था, बाद में वृक्ष कटते गए और 1922 से गंगवाड़ी के जंगलों में मालवा का चर्चित गंगवाड़ी मवेशी मेला आयोजित होने लगा। 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज़ों को छावनी खाली करनी पड़ी, बंगले छोड़ने पड़े, 3000 सिपाही भाग गए। लेकिन जब वे पुनः एकीकृत होकर हैदराबाद की सेनाओं के साथ लौटे तो महिदपुर की जनता के ऊपर टूट पड़े। गंगावाड़ी का जंगल उसी यातना की पराकाष्ठा का मूक साक्षी रहा था। हम उसी के सामने मूक दर्शक बने स्तब्धित खड़े थे, बाद में 1817 में आंग्ल मराठा युद्ध में होलकरों की पराजय के उपरांत महिदपुर में स्थापित छावनी के 1860 में आगर स्थान्तरित हो जाने, 1882 में छावनी क्षेत्र के पूर्णतः रिक्त हो जाने से शहर का स्वरूप ही बदल गया।
अति सुंदर, मनोहारी वर्णन। आपकी लेखनी में सचमुच एक जादू है दीदी।
अश्वनी शोध संस्थान के मूल्यवान पुरातात्विक महत्व के सिक्कों को लेकर ऐतिहासिक वैशिष्ट्य को बख़ूबी समेटा है।
आपकी दृष्टि संपन्नता को नमन।
महिदपुर की पुरातत्व धरोहर और सौंर्दर्य का अद्भुत वर्णन आपने अपनी लेखनी से बख़ूबी किया है ! धन्यवाद
बहुत बहुत बधाई बहुत अच्छी भेँट वार्ता बनाई हैं। धन्यवाद। ठाकुर जी हमारे पुराने मित्र हैं।
Very nice. Thanks
Excellent projection of a person who deserves.mahidpur was ancient site from early period.i visited that place in 1980with Dr v s wakankar,later for my Tagore national fellowship.dr thakur have good collection af antiquities,coins from different dynasties.i must thank to Disha Mishra who have taken this task to permits cultural heritage of Madhya pradesh.intreviews of Dr Thakur and dr.j n dube gives complete information about the collections,historical background of that area, Ujjain historic city.she covered more information than what a person needs for his knowledge.being a scholar she is covering all most of the unknown area of m p .so .thanks to Dr Thakur and Disha from whom I collected such academic informations.
दिशा क्या ख़ूब लिखती हो भाई
Bhut hi sundar ramneek varnan
महिदपुर (मालवा) के मुद्रा संग्राहक डॉ. श्री आर.सी. ठाकुर जी का एक सामुख्य साक्षात्कार रोड मैप Expert श्रीमती दिशा जी शर्मा ने प्रस्तुत कर बड़े महत्व का कार्य सम्पादित किया है।
साक्षात्कार में ठाकुर जी की जीवन साधना, सेवा तथा उनके विराट संग्रह के दर्शन हुए। मुझे लगता है डॉ. वाकणकर की उदात्त परंपरा में उन्होंने बहुत बड़ा काम किया। आहत, मौर्य से लेकर परमार वंश के अकूत सिक्कों का संग्रह और विवरण देना, यह अद्भुत बात है। मेरा विनम्र आग्रह है श्री ठाकुर जी प्रमाणिक तौर पर विक्रमादित्य की प्रचलित स्वयं की मुद्रा का प्रदर्शन करें तो विक्रमादित्य का इतिहास महत्व पुष्ट होगा तथा उन्हें पृथक से इस विशाल मुद्रा संग्रह पर ग्रन्थ प्रकाशित करने चाहिए। मालवा के शिलालेखों, मुद्राओं, मूर्तियों पर पृथक से कोई एकाग्र ग्रंथ देखने में नहीं आया। श्रीमती दिशा जी से अपेक्षा है ऐसे साक्षात्कार से वे हमें सदैव लाभान्वित कर माँ भारती के वरद पुत्रों के दर्शन करवाती रहेंगी।
जी नमन 👌👌👌🙏🙏🙏🙏
कहि विधि बने सुमधुर पकवाना।
जे कौशल सब ही नहीं जाना।।
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बहुत सुंदर कलात्मक ब्लाग है👌 आपकी मेहनत परिलक्षित होती है🙏
Sunder lekh
👏👏👌 वाह बहुत ही बढ़िया ।शानदार प्रस्तुति ,बहुत बहुत आभार 🙏
Bahut hi achha aur intresting blog likha hai
Congrats!
👍👍👏👏
Congratulations👆🏻👌🏻🙏🏻🌹🌹
Very nice blog, congrats👌🏻💐👏🏻
बहुत ही सुन्दर व ज्ञान वर्धक प्रस्तुति 🙏