पांडवों के अज्ञातवास में जब वे पांडवखोह (शाजापुर) में जीवन व्यतीत कर रहे थे तब कौरवों के प्रतिनिधि के रूप में कर्ण उनकी पड़ताल करते हुए करेड़ी आये थे
स्थापत्य की दृष्टि से वर्तमान में परमारकालीन द्वितलीय देवी मंदिर परिसर में सौंदर्य और परमानन्द की वृष्टि करती (बरसाती) भगवती कनकावती के दर्शनाभिलाषियों की भीड़ जुटी हुई थी। मोटर साइकिलों ,ट्रेक्टरों और बैलगाड़ियों में भरभरकर श्रद्धालु आये जा रहे थे ,डॉ शर्मा बताते चल रहे थे पांडवों के अज्ञातवास में जब वे पांडवखोह (शाजापुर) में जीवन व्यतीत कर रहे थे तब कौरवों के प्रतिनिधि के रूप में कर्ण उनकी पड़ताल करते हुए यहाँ आये थे। कर्ण को पांडवों की दृष्टि से ओझल रखने के लिए योगेश्वर श्री कृष्ण ने यशोदा पुत्री माँ कनकावती से आग्रह किया वे कर्ण के समक्ष व्यवधान उत्पन्न कर दें। जिससे वह दिग्भ्रमित होकर पांडवों के अस्तित्व को ही बिसरा दें। अष्टभुजा देवी के सम्बन्ध में पुराणों में भी कंस द्वारा जिस महामाया को श्री कृष्ण समझकर मारा था और वे अंतर्ध्यान हो गयीं थी उनका यहां प्राकट्य माना गया है ।शाजापुर के कंसवधोत्सव को ग्रामवासी इस घटनाक्रम से जोड़कर देखते हैं।सर्वपूज्या माँ कनकावती की लीला का ही प्रताप रहा कि समष्टिरूपी जगन्माता भगवती कनकावती के पावन धाम आकर कर्ण सर्वेश्वरी की अकाट्य साधना में आकंठ डूब गयाऔर पांडवों की क्षेत्र में विद्यमानता को विस्मृत कर पुनः लौट गया। कर्ण की अराध्या कनकावती कहलायीं और यह स्थान करेड़ी वाली माता के रूप में सर्वप्रकाशमान हो गया।विलक्षण अलौकिक स्वरूपिणी माँ कनकेश्वरी मंदिर परिसर में मराठाकालीन दीप स्तम्भ के पास में जलहरियों की समुचित व्यवस्था से निर्मित जल-छन्नक संयंत्र की निर्मिति थी। विद्वान् इसे जल निकासी और जलसंचयन की अद्वितीय व्यवस्था ठहराते हैं। कुछ कदम चलने पर आंजनेय नंदन माता अंजना के साथ विराजे थे। शाजापुर से 7 किमी दूर यह स्थान वस्तुतः भावोद्दीपक है।शर्मा जी के साथ हम मंदिर के निकटवर्ती स्थित जूना थानक भी गए यह वह स्थान है जो कभी वणिज्यिकि गतिविधियों के केंद्र था। प्राचीनकाल में रसद आपूर्ति करने वाले बंजारे के तांडों के यहाँ डेरा डालकर हाट लगाने, अर्जित धनराशि का कुछ अंश धर्मार्थ में लगाने और शेषधन मुखिया को सौंपने वाले सभी प्रसंग यहीं घटित हुए थे । परवर्तीकाल में यहाँ के गढ़े हुए धन से मंदिर की भव्य निर्मिति हुई। यहीं बीस पच्चीस घर नाथयोगियों के थे । हमने उनसे भी यहां होने वाली नाथपूजा के बारे में जानकारी ली ,बंधु जी, शर्मा जी, कुछेक गांववाले हमारे साथ हो लिए थे। हम गांव के खेत खलिहानों में विराजे विघ्नहर्ता की प्रतिमाएं देखते रहे। मुख्य मंदिर से 30 मीटर दूरी पर एक विशालकाय गणपति प्रतिमा स्थित थी यह एकमात्र विशालित गाणपत्य प्रतिमा नहीं थी नहर के किनारे बालूसिंह जी के खेत में विराजे गणेशजी, पंडा जी के घर के अहाते में प्रतिष्ठित गजानन का भव्य स्वरूप देख हर कोई भौंचक्का रह जाये , शर्मा जी बताने लगे जिधर खोदो या हल चलाओ उधर या तो लम्बोदर की विस्तीर्ण प्रतिमाएं मिलती हैं या फिर शाक्तमत से संबद्ध अनूप प्रतिमाओं की प्राप्ति होती है। डॉ. श्री भगवान शर्मा, आयुर्वेद में प्रवीण और करेड़ी संस्कृति संरक्षक तथा निष्ठावान सामजिक स्वयंसेवी हैं उन की मानें तो यहां विघ्नकर्ता श्री गणेश के आठों गाणपत्य अवतारों की प्रतिष्ठा है। मदासुर का वध करने वाला एकदन्तावतार, मोहासुर का संहारक महोदर नामक अवतार, सर्वार्थ सिद्धिप्रदायक लोकासुर का विनाशक गजानन अवतार, क्रोधासुर का अंत करने वाला लम्बोदर नामक अवतार कामासुर का उन्मूलन करने वाला विकट नाम से प्रसिद्द अवतारशेषनाग पर आरूढ़ विघ्नराज नामक अवतार ममतासुर का विनाशक है जिन्होंने कमल की गंध से आसुरी सेना को धराशायी कर दिया था और अभिमानसुर को नष्ट करने वालाअवतार सभी की यहां आठ दस फीट की प्रतिमाएं मिली हैं । ।मंदिर के पार्श्व में स्थित कमल सरोवर की जलराशि भी यहां पधारने वालों को आरोग्यवर्धक और असात पवित्रता का अनुभावी बनती रही थी ।हमने उसका भी अवलोकन किया।जिसके आसपास खंडित परमारकालीन प्रतिमाएं सहेजी गयीं थीं।यहीं यह भी पता चला कि वर्षों से चली आ रही परंपरा का अनुसरण करते हुए उज्जैन जिले के तराना गांव का सरपंच रंगपंचमी के बाद पड़ने वाले पहले मंगलवार को पूजा लेकर आज भी आता है।
सबकी आश्रयभूता माँ कनकावती, मंदिर के 16 अलंकृत स्तम्भों पर गरुड़, शिव, ललाट बिम्ब पर सप्तमातृकाएँ, गणेश, विष्णु, भैरव, का शिलोत्कीर्णन, शीतला माता, योगेश्वर कृष्ण का विराट स्वरूप
यह प्रथा वर्षों से अनवरत चल रही है ,शर्मा जी ने पारस्परिक वार्तालाप में एक किवंदन्ती का उल्लेख किया जिसमें मंदिर के नैकट्य में स्थित जूना स्थानक में प्रजाहितैषी कर्ण के स्वर्णदान की अभिलाषा में प्रतिदिन स्नानोपरांत मां की पूजा कर खौलते हुए तेल के कड़ाहे में कूदने का वर्णन था । विश्वजननी माँ कनकावती मरणधम कर्ण को अक्षय पात्र के अमृत जल के छींटों के छिड़काव से पुनर्जीवित कर दिया करती थीं। मरणोपरांत अमृतमयी बूदों से प्राणवान बनाने वाली जीवनदायिनी मां कनकावती अपने अक्षयपात्र से उसे सवा मन स्वर्णरज प्रदान करती थीं जिसे दानवीर कर्ण प्रजाजनों में वितरित कर दिया करता था।। नित्य चलने वाले इस प्रक्रम में शर्माजी के अनुसार कर्ण समीपवर्ती सूरज कुंड में स्नान अवगाहन कर कमल कुंड से कमल पुष्प एकत्रित कर देवी के स्तवन के पश्चात कड़ाहे में कूदता था। उज्जैन के राजा विक्रमादित्य को जब करेड़ी की सम्पन्नता का समाचार मिला और कर्णवती माता के सम्बन्ध में ज्ञात हुआ तो वह यहाँ आये थे ऐसा भी वर्णन दंतकथाओं में मिलता है । उज्जैन के पास स्थित करेड़ी की प्रजा के धनाढ्य हो जाने पर विक्रमादित्य को पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ था वे वेश बदलकर उत्सुकतावश करेड़ी आये और समग्र घटनाक्रम की जानकारी गुप्तरुप से एकत्रित की । बैताल की सहायता से उन्होंने कर्ण की साधना उत्सर्ग प्रक्रिया को चरितार्थ भी किया उन्होंने भी कर्ण की भांति खौलते तेल वाले कढ़ाहे में सूरजकुंड में स्नानोपरांत कमलार्चन किया । गाँववालों की कही सुनी पर कान धरें तो विक्रमादित्य को मरणोपरांत देवी ने अक्षयपात्र की अमृत बूंदों से पुनर्जीवित कर दिया ।भक्तवत्सला माँ कनकवती उनकी अकूत भक्ति से प्रसन्न हुईं और उन्हें अभयदान देकर वर की अभिलाषा जाननी चाही। वरदान स्वरूप विक्रमादित्य ने देवी से स्वर्णपात्र ही माँग लिया और कर्ण को वही स्वर्ण पात्र उपहारस्वरूप प्रदत्त कर दिया यह कहकर कि अब उसे स्वर्ण प्राप्ति के लिए नित्य तेल के कढ़ाहे में कूदने, देह को चीरकर उसमें मसाला भरने जैसे पीड़ादायक कार्य करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। कथा में कर्ण के स्वर्ण पात्र नहीं लेने का भी उल्लेखन मिलता है क्योंकि दानवीर कर्ण देना जानता था लेना नहीं ,महाभारत कालीन कर्ण के विक्रमादित्याकाल में होने की बात पर विद्वानों में मत मतान्तर है। हमारे यहाँ दानवीरों के शिरोमणि कर्ण ही माने गए हैं। इसलिए ऐसी भी संभावना है कि दान धर्म करने वाले स्थानीय राजा को परवर्ती काल में कर्ण संज्ञक मान लिया गया हो। लोकधारणा है कि विक्रमादित्य के कहने पर माँ ने इस प्रथा को तत्काल प्रभाव से स्थगित कर दिया था । विक्रमादित्य ने भी स्वर्णदान कर प्रजा को उपकृत किया था । सिद्धिदात्री जिन हरसिद्धि माता की कृपा से वे यशस्वी सम्राट बने थे। वे उनके शरणापन्न होने उज्जयिनी पुनः लौट गए थे । लोक में प्रचलित कथाओं में मां हरसिद्धि के चरणों में 134 बार मस्तक की बलि देकर कमल पूजा करने की चर्चा मिलती है 135 वीं बार मस्तक के कबंध पर वापस नहीं आने के कारण विक्रम के शासन का अंत हो गया और शालिवाहन शकारम्भ हो गया ,विक्रम और शक संवत के बिच 135 वर्ष का अंतर माना गया है, कतिपय विद्वान् करवीर महालक्ष्मी शक्ति पीठ (कोल्हापुर) के ‘करवीर’ शब्द की साम्यता ऐश्वर्य और धन धान्य प्रदात्री माँ ‘कर्णवीर’ से भी देखते हैं। कर्णावती अथवा कनकावती माता मंदिर और उज्जयिनी का हरसिद्धि मंदिर दोनों एकसाथ अद्वितीय शाक्त क्षेत्र के रूप में कीर्तित रहे होंगे यह भी संभावना है। शर्मा जी विक्रमादित्य के करेड़ी के तत्कालीन राजा की सुपुत्री से विवाह का वर्णन भी करना नहीं भूलते। कर्ण के इस गाँव में आगमन को लेकर विद्वानों में यद्यपि मतैक्य नहीं हैं। अनुमनना यही है कि कर्ण यहाँ आये हों पांडवों से कुशल क्षेम जानने के लिए देवी से वरदान प्राप्ति के उपरान्त यहीं प्रतिज्ञाबद्ध होकर स्वर्णदाग्नि करने के लिए अभिप्रेरित हुए हों। परवर्तीकाल में परमार नृपों ने इन मंदिरों की पुनःनिर्मिति कराई हो । परमार नरेश राजा भोज की माता सिंधुराज की धर्मपत्नी शशिप्रभा नाग राजा की कन्या थीं। मंदिर की बाह्य भीत्ति पर नाग कन्या की भग्नप्राय प्रतिमा (सिन्दूर आलेपित) की ओर इंगित कर शर्मा जी यही रहस्योद्घाटन करते हैं। वे नागधारी गरुडाकृति की ओर संकेत करते हुए इसे परमार नरेशों की राजकीय मुद्रा से जोड़कर देखे जाने पर भी बल देते हैं।
बहुत ही सुंदर विवरण और फोटोग्राफी?
दिशा तुम्हारी मेहनत से हमे भी काफी रोचक जनकारियां मिलती हैं।????
बढिया रिपोर्ट।कपिल जी का भाषण अद्भुत।वे हमारे
समय के लोक और शास्त्र के बड़े चिन्तकों मे से एक हैं।उनको सुनना हमारे लोक और शास्त्र की नई व्याख्या सुनना है।
बहुत ही अच्छा ,भाषा आपकी बहुत ही अच्छी और जानकारियाँ अद्भुत हैं बहुत सी बांते तो हमें भी नहीं ज्ञात थीं
सुप्रभात दीदी?आपकी कलम को नमन बहुत सुंदर ब्लॉग लिखा है। वर्णित सारे चित्र सजीव हो उठे हैं ।
शानदार कवरेज़ है,धन्यवाद आपका ?
Good collection.
अतिi उत्तम
Good work mam for three lok devi ??????????
बहुत सुंदर वर्णन किया आप ने इस के माध्य्म से आगे की ओर जानकारी मिलती रहे
यही अभिलाषा है
जय माँ बगुलामुखी
जय महाकाल??
आपका बहुत अच्छा लगा मैडम
मैं नलखेड़ा वाली माता जी से पहले ही बहुत अभीभूत हूँ आपके आलेख ने मुझे बहुत प्रभावित किया है
दीदी अति सुन्दर वर्णन
बहुत सुंदर दीदी आपकी कलम को नमन है जय माता दी
Good morning, I have completed the lecture of kapil Ji. Excellent. Pl. Cover as much as photographs from all over the madhya pradesh and also tourist destination of your area. You are working for future. Cunningham surveyed like this before hundred years back. Now you are on the same line. Congratulations. Malwa area having good research material. Needs only researchers. Wakankar also doing such survey by foot. H v trivedi of also cover limited field . Please go ahead in your social study which will cover all field. I am behind your research and you are free to contact me at every stage of academic field. Once again jai chhathi maiya. Thanks.
हमको तो आपका काम एक नंबर का लगा बहुत बढ़िया
दृश्य बहुत अच्छे हैं। उज्जैन, राजगढ़ और शाजापुर की पुरानी यादें ताजा हो गईं।
मेङम जी आप ने जो हमारी माँ महाकाली करेङी वाली के बारे मे जानकारी दी उसके लिए आप को साधुवाद बहूत बधाई हो पहली बार शोध करके लिखा गया है करेड़ी के बारे में बहुत ही बढ़िया
अच्छी प्रस्तुति है…… सम्पूर्ण वृत में इतिहास के साथ धार्मिक, आध्यात्मिक एवं लोक-मान्यताओ को उजागर करने में स्थानीय लोगों की मान्यताओ को पुस्तकीय तत्त्व से क्षेत्र की प्राचीनता और सामाजिक अवधारणा का सुन्दर चित्रण है।
क्षेत्र की तीन देवियों की लोकास्था-लोक विश्वास की त्रिकोण यात्रा का विशेष अध्याय प्रस्तुत किया है।
चरैवेति चरैवेति…….? मंगलकामनाएं
आपकी यात्रा डायरी गांव,नगर,नदी,खेत -खलिहान , प्रकृति न सिर्फ क्षेत्र के भौगोलिक परिदृश्य से रूबरू कराती है।बल्कि क्षेत्र की पुरातात्विक, ऐतिहासिक,धर्मिक,सामाजिक ,सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अवधारणाओं की समृद्धि से भी साक्षात्कार करवाती है। इसकी पुष्टि डायरी की सजीव दृष्यवली,अद्भुत मूर्तिशिल्प, वर्णित परंपराएं, लोकाचरण से भरापुरा सहचर देव लोक, डॉ कपिल तिवारी ,डॉ केदार नाथ शुक्ल जी, डॉ प्रतिभा दत्त चतुर्वेदी जी, डॉ ओ.पी. शर्मा, डॉ रमन सोलंकी जी, डॉ प्रशांत पौराणिक जी आदि विद्वानों के महत्वपूर्ण सारगर्भित साक्षात्कारों और श्री मनोहरलाल पंदाजी,श्री रामचन्द्र गायरी, पंडित श्री महेश नगर,श्री राजेश दीक्षित आदि की अभिभूत कर देने वाली महत्वपूर्ण जानकारियों से होती है।
मालवा की मिठास घोलती मालवी के रसासिक्त संजा के लोकगीत,भोपी कृष्णा बई की संगत में भोपा भोलाराम की सारंगी के तारों से निसर्ग मनमोहक ध्वनि पर थिरकती लोक धुन से आबद्ध देवनारायण की फड़ गायकी, क्षेत्र को विशेष पहचान देती है ।
इस महत्वपूर्ण,सारगर्भित यात्रा डायरी के लिए बहुत बहुत बधाई।
बहुत ही अच्छा कवरेज मैडम बधाइयां??
दिशा बहुत ही अच्छा व्लॉग। हर बार की तरह सहज सरल भाषा का प्रयोग । गांव में बहुत सारे देवी देवता की पूजा की प्रथा और नाम पढ़कर बहुत सारी जानकारियां मिली। तुम इसी तरह घूमती रहो और सारा यात्रा वृतांत इसी प्रकार लिखो हमें पढ़ते हुए बहुत अच्छा लगता है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे हम साक्षात उस गांव में ही घूम रहे हैं।
चरैवेति चरैवेति
मध्यप्रदेश में लोक संस्कृति पर जनकार्य करने हेतु प्रख्यात श्रीमती दिशा अविनाश शर्मा ने मालवा की करेड़ी माता, बगलामुखी, भैसवामाता सहित यहाँ के लोक के हृदय में बसे भैरव, शीतला, छींक, खोखुल, मोतीझरा, बैमाता, सहित लोकदेवता देवनारायण पर जो ब्लॉग बनाया है वह जमीनी तौर पर एक अमूल्य धरोहर है जो किसी भी एतद्विषयक शोध से कमतर नहीं है। उन्होंने स्थान विशेष पर जाकर वहाँ के पर्यावरण, ग्रामीण, परिवेश को गहरे से छुआ है। मध्यप्रदेश के लोक पर अभी तक जितना भी प्रकाशित हुआ है उसमें सोने में सुहागा वाली कहावत इस ब्लॉग में चरितार्थ होती है। प्रख्यात विद्वान कपिल तिवारी, केदारनाथ शुक्ल के वैदुष्यपूर्ण साक्षात्कार इस ब्लॉग को चार चाँद लगाते हैं। नलखेड़ा का वाममार्गी अवधारणा का देवीस्थल तथा लोक में शक्ति की अंगीकार वाली अवधारणा का क्रमिक विकास इस ब्लॉग का वैशिष्ट्य है। अनेक लोक विद्वानों, तांत्रिकों के मत ब्लॉग को पुष्टता प्रदान करते हैं। अनेक सुन्दर चित्रों से संयोजित इस ब्लॉग को पढ़कर सहज ही एक अनुपम ग्रन्थ की रचना की जा सकती है। यह दिशा जी की अथक मेहनत का फल है कि वे अकेली ही इस यात्रा में चरैवेति मंत्र को जीवंत कर रही हैं।
बहुत अच़्छा। आधार डॉ. कपिल तिवारी ने आगम से ही लिया है। लोक उससे भी परे है।
लोकास्था – लोकविश्वास मातृशक्ति धाम की त्रिकोण यात्रा
का आपने जो लालित्यपूर्ण शैली
में वर्णन किया है । वह अद्भुत है
ऐसा लगा जैसे ललित निबंध पड़
(सुन)रहें हों ।।
बहुत सुंदर यात्रा संस्मरण ।
विद्वान अतिथि महोदय ने कितना
सहज व्याख्यायित किया गूढ़
तत्वों को । वाह वाह ।।
???????
आपका नया ब्लाग पढ़ कर अति प्रसन्नता हुई और जिज्ञासा और बढती जा रही है साथ ही ये सवाल भी उठ रहाँ है कि कितना बडा केन्द्र किसी समय में रहा होगा ये स्थान वामपंथी तपस्या और तांत्रिक साधना का जिसके जीवंत प्रमाण आपके शोध में बहुत ही साफ देखा जा सकता है शायद इतना बड़ा केन्द्र पूरे अखण्ड भारत में नहीं होगा पर वो कैसे धीरे-धीरे समाप्त हो गया ये भी बहुत घना रहस्य है जो आपने चौंसठ योगीनी मंदिर के अवशेष, व भैरव के अवशेष आप ने खोजे है वो भी आज के समय में बहुत ही सराहनीय प्रयास है मुझे लगता है कि यदि सरकार इसे चाहे तो आज ये भारत का पुरी दुनिया के लिए एक बहुत ही बड़ा पर्यटन स्थल बन सकता है और देश व दुनिया के लिए ज्ञान विज्ञान को समझने मे भी सहायक होगा और भारत के गौरवशाली इतिहास को बताने मे भी सहायक होगा ।
बहुत ही सुंदर लेखनी है और आपके द्वारा हमें मां बगलामुखी मंदिर के दर्शन हुए इस बात के लिए बहुत आभारी है अगली लेखनी का इंतजार रहेगा ??
बहुत ही सुंदर लेखनी है बगुलामुखी जय महाकाल ?
हमने आपके पांचो ब्लाग पढ लिऐ है ।पढकर अच्छा लगा सबसे पहले दो बातो के लिऐ साधुवाद देना चाहुंगा ,पहला यह की आपने ज्यादातर शुद्व हिन्दी शब्दो को धाराप्रवाह प्रयोग किया है ।जो आपकी विदुता को दर्शाता है ।यह अच्छी बात है ।कि आप हिन्दी को अपने मुल स्वरूप में बहने देती है ।
दुसरा यह है कि आपने फोटोग्राफ़ी उत्तम कोटि की है ।जिस भी छवि चित्र को देखते मन को भा सा जाता है ।सारे ब्लागो को पढकर ही आपके लेखन को थोडा बहुत जाना जा सकता है ।सब कुछ ठीक ठाक है ।हमारी शूभकामनाऐ आपके लेखन को।
Disha mam ..आप मालवा की अन्जानी और छुपी हुई कला,संस्कृति ,और आस्था से सबको परिचित करवा रही हैं, हम मालवा वाले हृदय से आपका आभार एवं धन्यवाद प्रकट करते हैं ।????आपके ब्लोग पढ़ कर लगता हे हम आपके साथ घूम रहे हैं ?????????
अद्भुत संग्रहण
बहुत महत्वपूर्ण जानकारी है दिशा जी, कई दिनो बाद यौगनियों के बारे में सार्थक व उपयोगी सूचनाएं मिली.
दिशा जी, योगिनी शिल्प पर मैं एक पुस्तक लिख रही हुं इस बारे आपसे बात करूंगी ???
अच्छा वृत्तांत है।इसमें वर्णित अनेक देवी-देवता भील जनजाति समूह के लोगों की आस्था के केन्द्र भी हैं।डॉ. कपिल तिवारी जी ने बहुत गहराई से सृष्टि और देवलोक की अवधारणा को स्पष्ट किया है।
इसमें मैं केवल इतना जोड़ना चाहता हूँ कि शास्त्रों की रचना लोक मान्यताओं के अवलोकन और विवेचन के आधार पर हुई होगी,क्योंकि लोक मान्यताएँ मानव-सभ्यता के आरंभिक विकास के साथ ही धीरे-धीरे स्थापित होती चली गयी हैं।ये परंपरा के रूप में आगे बढ़ी हैं।शास्त्र इन्हीं मान्यताओं के परिष्कृत रूप हैं।यह भी कहा जा सकता है कि शास्त्र एक प्रकार से लोक मान्यताओं का कोडिफ़िकेशन हैं।यह काम चिंतक,अध्ययनशील और अन्वेषक ऋषियों ने किया है,जो बहुत बाद की स्थिति है।इसलिये यह सोचना एक बड़ी भूल होगी कि क्या वैदिक,शास्त्रीय, पौराणिक आदि देवी-देवता कम पड़ गये थे,जो लोक ने एक बड़े देवलोक की रचना कर ली? कपिल जी ने सही कहा है कि लोक आस्था के मूल केन्द्रबिंदु भी शिवशक्ति हैं।इसी से हम अनुमान लगा सकते हैं कि लोक-आस्था और मान्यताएँ शास्त्रीय ज्ञान-परंपरा की अनुगामिनी नहीं हैं।
आपका यह वृत्तांत और कपिलजी की बातचीत अत्यंत ज्ञानवर्द्धक है।आपकी जिज्ञासा,अन्वेषणशीलता और परिश्रम को प्रणाम!
शुभकामनाएँ!
बहुत सुन्दर आलेख
बहुत ही शानदार प्रस्तुति आपके साथ मां भेंसवा महारानी की व्याख्या रोमांचित करनेवाली यात्रा रही बहुत साधुवाद