पंजाब प्रान्त की लोकनाट्य नकल परंपरा चमोटा शैली, नक्कालों का शानदार प्रदर्शन
लोकमानस की कल्पनाशीलता पर आश्रित लोकसाहित्य का वैशिष्ट्य ही है कि वह स्वयंप्रसूतता और स्वयंस्फूर्तता होता है जिसमें लोक गीत बादलों की भांति झरते हैं और घांस की तरह उपजते हैं। हाल ही में भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय के प्रेक्षागृह में पंजाब की लोकनाट्य नक़ल परम्परा चमोटा शैली में लोक संस्कृति के मूल्यों से रंजित ‘हीर रांझा’के चमत्कारिक प्रदर्शन को देखने का अवसर मिला। पंजाब के मालवा अंचल की मलवई उपबोली में लोक कलम से लिखे गये लोकप्रेम की निश्छलता लिऐ ‘हीर रांझा’की विशुद्ध प्रेमकथा को ख़ुशी मोहम्मद,सलीम मोहम्मद,मंज़ूर अली, इखलाक मोहम्मद,शौक़त अली,इमरान,जगतार सिंह,भिन्दर सिंह और विभाजन का दंश झेल चुके ७४ वर्षीय गोरा (सुलेमान) के दल ने सहजता व सरसता के साथ प्रस्तुत किया। हमने दल के समन्वयक श्री हरदयाल सिंह थुही जी से चमोटा शैली के संदर्भ में जानकारी ली तो विदित हुआ कि संगरूर जिले के घनोर के रहवासी 82 वर्षीय फकीर मोहम्मद का परिवार गत पांच पीढ़ियों से इस लुप्तप्राय लोक कला के संरक्षण का कार्य कर रहा है।पूर्व में मिलेर कोटला के कई परिवार पेशकारी का काम किया करते थे परन्तु वर्तमान में एकमात्र फ़क़ीर मोहम्मद का परिवार ही प्रतिकूल परिस्थितियों के बाद भी चमोटा शैली को अपने मूल स्वरुप में प्रतिष्ठित करने में पूर्ण निष्ठा से संलग्न है। राजस्थान की मरूभूमि से विस्थापित मिरासी जाति से संबंधित ये लोग पीरों की दरगाहों और महंतों के डेरों के अतिरिक्त आंचलिक मेलों में चमोटा शैली में निबद्ध लोकप्रिय प्रेम कथाओं उदारहरणार्थ हीर राँझा, सोहणी महिवाल, कीमा मलकी, सस्सी पुन्नू, लैला मजनू, भरत रूप बसंतऔर शाहनी कौला, शीरी फरियाद और मिर्जा साहिबां वीर गाथाओं दुल्ला भट्टी ,राणा पृथ्वी सिंह और उपदेशपरक रचनाओं पूरण भगत व राजा हरिश्चन्द्र किरणमयी, दुलाभट्टी,आदि वे लम्बी नकलें हैंजिनका प्रदर्शन किया जाता है। हरदयाल थूही जी ने हमें बताया कि पंजाबी लोकनाट्य मूल रूप से नृत्य परंपरा से ही विकसा है । श्री रामनारायण अग्रवाल के स्वांग नाट्यों के सम्बन्ध में लिखी गई जानकारी का हवाला देकर वे बताते हैं कि ग्यारहवीं शताब्दी में पंजाब के मल्ल नामक जाट, रावत नमक राजपूत और रंगा नामक जुलाहे ने मिलकर एक मंडली बनाई थी। जो गाँव गाँव जाकर गाथाएं सुनाती थी। इन्हें स्वांग नाट्य परंपरा कहा गया। ये परम्पराएँ दो रूपों में अस्तित्व में आयीं। जब वे धार्मिक विषय पर आधारित हुईं तब वे रास धारी स्वांग कहलायीं और लौकिक स्वांग परंपरा को नौटंकी कहा गया। श्री थूही के अनुसार प्रोफेसर अजीत सिंह औलख ने भी लिखा है कि पंजाब और राजस्थान में पुराने धार्मिक रास नाट्य जैन मतावलम्बियों ने लिखे थे। जिनमें अम्बिका देवी रास, सप्त क्षेत्र रास, उपदेश रामायण रास, नवमी शती ईसवीं में लिखे गए ।नकलें पंजाबी लोकाचार का महत्वपूर्ण अंग रहीं। थूही जी स्पष्ट करते हैं नकल उस चीज को कहते हैं जो होकर मिट जाए।
श्री हरदयाल सिंह थुही से यह भी पता चला कि गोरा हों या जगतार और भिन्दर ये सभी पहले लोकविधाओं के मंच पर नृत्य से संबंद्ध रहे हैं और आज भी आवश्यकतानुसार गाँवों में आयोजित होने वाले बीन बाजा प्रदर्शन और रामलीलाओं में नृत्य करते हैं। विद्वानों का मत है कि मिरासी डूम, भाट जातियाँ राजा महाराजाओं के दरबारों में कला का प्रदर्शन करती थीं।कभी राजस्थान के रजवाड़ों और सामंतों के प्रशस्तिगान गाने वाले ये लोग अपनी लोक गायकी के कारण ही लोकचर्चित रहे हैं जिनसे पंजाब का लोकमानस तत्परता से तादात्म्य स्थापित कर लेता है।वैसे नकलों का इतिहास बहुत प्राचीन है ,12-13वीं सदी में पंजाबी भाषा के आगमन के साथ यह व्यंग्यात्मक शैली अन्य कलाओं के साथ राजपूत राजा महाराजाओं के दरबार में व्यापकता से आयोजित की जाती रही। इनके अखाड़े हुआ करते थे। मुल्लां कश्मीरी ने अपनी पुस्तक रंगे इश्क में और पंडित रत्ननाथ सरशार ने अपनी पुस्तक अफसाना ए आजादी में नकल परंपरा का उल्लेख किया है। सत्रहवीं सदी में दामोदर के किस्से में होर के विवाह के समय भाट भगतियों और नकलियों का वर्णन मिलता है।कोतल उते साज कराई, रख नीसान चलाए / भंड भगतिये और कंजरिआं, आण सुराग उठाये/ वजण ढोल अते सरनाई, जुर जे बाज उड़ाए / आँख दामोदर के कुछ डिंठो, तिस दिन धरती भार न चाये
मालवा के वारिस शाह के रूप में विख्यात हजूरा सिंह बुटाहरी ने भी बीसवीं सदी में अपने चिट्ठे हीर राँझा में नकलियों का उल्लेख किया है। विभाजन के बाद कोटला रियासत को छोड़कर यह कला पंजाब से पकिस्तान की ओर चली गयी. मालेर कोटला की चार पांच नकल मंडलियों ने इसे जीवित रखा। इनमें से दो या तीन नक़ल मंडलियां ही ऐसी हैं आज भी जो सक्रिय हैं।थूही जी ने नकल की शैली के संबंध में विस्तार से बताया 10 सदस्यों वाली इन मंडलियों में रिश्तेदारों का जमघट होता है। दुआबा में नकल मंडलियों को डेरा कहा जाता है । इन्हीं में से एक परिपक्व नकलिया मण्डली का मुखी अथवा मास्टर कहलाता है। गाँव के आधार पर मंडली का नामकरण होता है । जैसे घनौर वाले नकलिये, बड़ी वाले नकलिये, सींगड़ी और गरचों वाले नकलिये। नकल मंडली में साजिंद, गवैये, नचार और मसखरों के अलावा लोक कलाकार होते हैं । मंडली के पुरुष सदस्यों में आगू और पाछू होते हैं ।कविता में गुथी हुई कहानी पंज पटिया (स्थानीय भाषा) में होती है। बिगला प्रश्न का उत्तर व्यंग्यात्मक शब्दों में देता है। जब बिगला बेतुकी बात करता है तब आगू द्वारा चमोटे से पिटता है। हर बार पिटाई बाईं भुजा पर होती है। बिगला की भूमिका नकल में बहुत महत्वपूर्ण होती है। अपने हाव भाव, चाल ढाल, पहनावे से वह दर्शकों को हंसाता है। जब दर्शक खूब हँसते हैं तो इसे बिगले का टकारा कहते हैं। जो मात्र हंसी ठिठोली तक ही सीमित नहीं रहती, इसमें राजनैतिक और धार्मिक विसंगतियों पर भी प्रहार किया जाता है। महिलाओं के अखाड़ों में प्रवेश वर्जित होने के कारण नचारा स्त्री पात्र की भूमिका निभाता है। बल्कि मंडली में नए कलाकारों का प्रवेश नचारा के ही रूप में होता है। शब्दों को परखने, ढालने और टांकने की कला में निपुण विदूषक हंसी ठठ्ठे में व्यवस्था का मखौल उड़ाता है। श्री हरदयाल सिंह थूही जी बताते हैं कि कर्ज में डूबा किसान, शोषण, उत्पीड़न, दारिद्रय, अभाव और राजनैतिक हस्तक्षेप वाले जीवन के उजले-धूसर पक्ष को हास परिहास में समेटते विदूषक के शब्द तीर की तरह हृदय के भीतर धंसते जाते हैं। चमोटा शैली का यही विशेषता है। चमोटा अर्थात चमड़े की एक संरचना के कारण यह शैली चमोटा कहलाती है। कहीं-कहीं आगू को रंगा और पाछू को बिगला या बिगरैंया भी कहते हैं। सिर पर परना (पगड़ीनुमा) बांधे नौकर अथवा बिचौलिया होता है ।चमोटा से उत्तपन्न सटाक की तीव्र ध्वनि पर दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूंजता है। बेंत और लावणी शैली का आलम्बन लेकर की गई चुहलबाजी दर्शकों को हंसाती है। हीर-रांझा की प्रेमकथा के मध्य भी बेड़ी के ठेके को लेकर चौधरी और बिदूषक का प्रहसन आता है। जिसमें अंततः जीत निम्न वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे विदूषक की ही होती है। यद्यपि लोक कल्पना के पंखों पर बैठ कर विचरण करने वाला मसखरा यानि विदूषक कहीं-कहीं ढील बरतते हुए अमर्यादित हो जाता है पर यह लोकाभिव्यक्तियाँ हैं। लोक संस्कृति में पले-पुसे विदूषक से शास्त्रीयता की अपेक्षा भी तो नहीं की जा सकती। श्री हरदयाल सिंह थूही से यह भी ज्ञात हुआ कि व्यवस्थाओं पर चोट करता चमोटा वर्तमान में चमड़े के स्थान पर रबड़ का बनाया जा रहा है। पंजाब के मालवा के अतिरिक्त दोआबा और माझा क्षेत्रों में भी चमोटा शैली के अखाड़े विद्यमान हैं पर उनकी प्रस्तुतियों में लोकांग का अभाव परीलक्षित होता है। डीजे का उपयोग कर भीड़ एकत्रित करने वाले अखाड़ों से अलग फकीर मोहम्मद खां के परिवार ने अपने अकृत्रिम लोक गीतों से अपनी पृथक पहचान बनायी है।
पंजपटिया अर्थात् पंचकलाओं (गायन, वादन, नृत्य, संवाद और अभिनय) में निपुणता रखने वाले लोक कलाकार ही नक़ल चमोटा शैली के लोकनाट्यों में सम्मिलित होने की पात्रता रखते हैं। पुरूष द्वारा अभिनीत महिला पात्रों की भूमिकाओं के लिए नृत्य में पारंगत होना अनिवार्यता मानी जाती है। श्री हरदयाल सिंह थूही के अनुसार हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में तो यह विद्या विशेष लोकप्रिय है पर भारत में अपने विशुद्ध रूप में यह विलुप्त होने के कगार पर है इसी लिए पंजाब संगीत नाटक अकादमी इसके संरक्षण और संवर्धन में सक्रिय व सजग है। इसमें बेंत और लावणी शैली में उठाये जाने वाले मिसरों की मिठास रोंगटे खड़े कर देती है। टकसाली पंजाबी भाषा से अलग मलवई बोली में जनानी को तीमी और सी को ती उच्चरित किया जाता है। हमने पाया अपनी पहली प्रस्तुति में पाकिस्तान स्थित ननकाना साहिब न जा पाने की वेदना बेंत तथा लावणी छंद वाली लोकगायकी में उतार कर नकल मण्डली ने दर्शको के हृदय को संस्पर्श कर दिया।
रब्बा दिल पंजाब दा पाकिस्तान च रह गिया ए।
कदे ना पुरा होना एसा घाटा पै गया ए।
वरिया बदल साडे ते जालम दे भाणे दा।
नहीं भूलना दुख संगता नुं विछड़े ननकाणे दा।
जित्थे बाबे जनम लिया उह कैसी थां होणी।
पूछु गा हर बच्चा पीड़ी जदों अगांह होणी।
कहणा पैणा रसता ए बंद उस टिकाणे दा।
नहीं भूलना दुख संगता नुं विछड़े ननकाणे दा।
जिनां गरीबां दे घर बाबा चल के आउंदा सी।
पुड़े छड के साग अलुणा खाणा चाहूंदा सी।
उहना नुं वी हूकम होया वीजा लगवाने दा।
नहीं भूलना दुख संगता नुं विछड़े ननकाणे दा।
हीर – रांझा की प्रस्तुति में भी गोरखनाथ जी से रांझा हीर के अप्रतिम सौन्दर्य को उपमानों के साथ कलीछंद में ऐसे वर्णित करता है कि सामने बैठे दर्शक का चित्त करूणा व प्रेम से भर जाता है जब वह कहता है-
कली (हीर दी सिफत)
तेरे टिल्ले तों उ सूरत दींहदी ए हीर दी ,
औ लै देख गोरखा उढदी उए फूलकारी।
बूल्ल पपीसीआं उहदीयां गल्लां गल गल नाल दियां।
टोआ ठोढी दे विच ना पतली ना भारी।
दोनो नैण जट्टी दे भरे ने कौल शराब दे,
धौण सूराही मंगी मिरगां तोर उधारी।
गोरी धौण दूआले काली -गानी जट्टी दे ,
चंनण डोली नुं जिऊँ नागां कूंढली मारी।
उपमेय भी कैसे निकटस्थ लोकजीवन से उठाये हुए -पंजाब की फुलकारी हस्तकला से निर्मित ओढ़नी ओढ़े हीर में रांझा संतरे की क़िस्म का गलगल फल , फुंनगी और गोरी गर्दन पर काली गानी चंदन से लिपटे भुजंग की प्रतीती कर रहा है। पंजाब में नकलियों की नकल मंडली के रूप में चर्चित इस कला में हारमोनियम और ढोलक वाला संगत भी करता है और संवाद का क्रम यथावत भी रखता है। प्राय: सभी विधाओं में पारंगत कलाकार अपने-अपने संवाद की अदायगी के उपरांत साज बजाते दिखते हैं। हलके फुल्के मेकअप के साथ मंच पर आये कलाकारों में से एक कानों के साथ अपने हाथ को ऊपर निकालकर बैलनुमा आकृति बना लेता है और झुककर चलने लगता है। वही पात्र आगे परने को सिर पर ओढ़कर स्त्री पात्र बन जाता है।
इस लोककला के प्रदर्शन हेतु किसी मंच ,परदे और नेपथ्य की आवश्यकता नहीं होती, एक विशाल वृक्ष की पृष्ठभूमि में खुला आकाशीय वितान, विस्तारित मैदान, सीधी सादी बैठक व्यवस्था ही नाट्यशाला के लिए पर्याप्त होती है।विवाह मंगनी छठी पीर फ़कीर की याद में नकलची अखाड़ा लगाते हैं जो रात भर चलता है। जगर छपार जगराताओं की रौशनी पर नक़लचिये स्वयं पहुँच जाते हैं। मंच को पिड़ कहा जाता है। जब परंपरागत अखाड़ों में नक़लचिये बीच में दर्शकों से घिरे होते हैं तब उसे घग्घरी पिड कहते हैं। दीवार का सहारा लेने पर तीर कमानी पिड हो जाता है। और दर्शक जब ऊंचे स्थान पर होते हैं और नकलची निचले तो उसे टोबा पिड़ कहते हैं। यह पहाड़ी क्षेत्रों में होता है। जब दर्शक नीचे और नकलची ऊँचे स्थान पर होते हैं तब थड़ा पिड़ होता है। परंपरा के अनुसार मंगलाचरण से नक़ल की शुरुआत होती है। अखाड़े के अंत में रियासती ढंग से कोई लम्बी सुर वाली गीत कली गाई जाती है। इस लोक शैली के माध्यम से जन जागरण का कार्य भी किया जाता है, इन दिनों यह दल नशे की बुराईयों के प्रति अगाह भी करते चल रहें है। समता मूलक लोकधर्म और लोक दर्शन लिए यह कला गयात्मक, लयात्मक, पद्यात्मक और गद्यात्मक सभी दृष्टिकोणों से अद्भुत है। सांस्कृतिक एकता से प्रभावित इस लोककला के प्रदर्शन के बीच बीच में बेल (नकद ईनाम ) दी जाती है किसी संवाद अथवा किसी मसखरी पर रीझकर बेल देने वालों को मंच पर से ही आशीष दिया जाता है, यजमानों के सेहरा तक बाँधा जाता है। कभी इन मंडलियों को गाँव में अनाज दिया जाता था। अब यह मंडलियाँ बाकायदा पेशगी की धनराशि लेती हैं।पहले कभी नकल मंडलियों को शाही नक्काल का खिताब दिया जाता था । महाराजा पटियाला, महाराजा नाभा, महाराजा जींद (संगरूर), नवाब मानेर कोटला और महाराजा कपूरथला ने इस लोककला को आगे बढ़ाया।बहुधा चमोटा लोक शैली में प्रेम की गंभीरता और उदात्तता का स्थान नहीं होता मूल कथा के बीच-बीच में अवसर पाते ही लोक कलाकारों की मनः स्थिति संवादात्मक हो जाती है जिसमें गांव की समस्याओं, जमींदार और किसानों के संबधों के खट्टे-मीठे अनुभवों को निचोड़ होता है। मनोरंजन के उद्देश्य से होने वाले चमोटा प्रदर्शन में दो व्यक्तियों का पारस्परिक संवाद लोक को गुदगुदाता है। श्री हरदयाल सिंह थूही जी बताते है कि नक़लचिये अपनी भाषा में ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे नकलिये का काम है अमीर की उदासी को दूर करना और ख़ुशी को निकट लाना। इसकी कोई लिखित परंपरा नहीं मिलती। यह नकलियों के हृदय में ही रहती हैऔर वहीं से प्रसूत भी होती है । टीवी और मोबाइल की वर्तमान व्यापकता वाली व्यवस्था में लोकरंजन करने वालों को बेल का ही सहारा होता है। अपने आप में अनोखी इस कला को सहेजे जाने की आवश्यकता है। पंजाब संगीत नाटक अकादमी की इस दिशा में की जा रही पहल प्रशंसनीय है। मलेर कोटला और घनोर के इक्का दुक्का परिवारों तक सीमित इस कला को उसके पुराने स्वरूप में यथावत रखने वालों में फ़क़ीर मोहम्मद के परिवार का योगदान प्रशंसा के योग्य है।
बहुत बहुत साधुवाद आपको
मैड़म दिशा जी, हमारी मंडली की ओर से भोपाल में जो लोकनाट्य नकल चमोटा शैली में ‘हीर रांझा ‘ की पेशकारी की गई उसकी आपने जो समीक्षा की है वो काबले तारीफ है। किसी दूसरे प्रदेश की लोक कला के बारे में इतनी गंभीर समीक्षा हर किसी के वस की बात नहीं होती। छोटी से छोटी बात को भी आपने पकड़ा है। इसके लिए आपका हारदिक धन्यवाद।
हरदयाल सिंह थुही
बहुत रोचक जानकारी
जगजीत
अति उत्तम
सिंगारा सिंह