देवास के श्री दयाराम सारोलिया के मालवी में कबीर भजन और निगुर्णोपासना
भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय के सभागृह में देवास से पधारे श्री दयाराम सारोलिया के मालवी बोली में कबीरदास के लोकपदों और निरगुनी भजनों के दर्शन-श्रवण से मन भाव-विभोर हो गया। वारी जाउं रे बलिहारी जाउं रे सद्गुरू वंदना से कार्यक्रम का आरंभ हुआ। सुन ले साधु भाई, मन मस्त हुआ फिर क्या बोलें, म्हारा रंग महल में अजब सहर में, मोतीड़ा चुगे हंसा और अंत में जरा धीरे गाड़ी हांको राम गाड़ीवाला की प्रस्तुति से यों लगा मानो जन्म से विद्रोही, प्रकृति से समाज सुधारक, प्रगतिशील, दार्शनिक, मौलिक कवि और लोकनायक कबीर दास जी की निगुर्णी वाणी की अजस्त्र अखण्डित धाराएं सभागार में प्रवाहमान हों गई हों,जो न जाने मालवा जनपद के अब तक अनगिनत लोक कण्ठों से निस्त्रत हो कर न जाने कितने गांवों के अनगिने लोगों को आप्लुत कर चुकी होंगी यही जानने का उत्कंठा से हमने दयाराम जी से सम्पर्क साधा। उन्होंने हमें बताया कि मालवा के देवास, इंदौर, उज्जैन और शाजापुर जिलों में कबीर साहब की प्रतिष्ठा आराध्य के रूप में की जाती है। पाड़ल्या, रणायल गाडरी काठ बड़ौदा और लूण्या खेड़ी इत्यादि गांवों में तो कबीर साहब के अनुगामियों की कमी नहीं है। देवास के अद्वितीय मूर्धन्य स्वर साधक श्री कुमार गंधर्व के कबीरगान से प्रभावान्वित श्री दयाराम कबीर भजन गायन की ओर आकृष्ट हुए थे। यद्यपि निगुर्णोपासना का पहला पाठ उन्होंने अपने घर में अपनी दादी सोदरा देवी से पढ़ा था चक्की पीसते समय घट्टी पर गाते हुए वे मालवी में मीरा के कृष्णभक्ति से परिपूर्ण लोक गीत गुनगुनाया करती थीं। ‘केत कबीर सुणो रे भाई सादू’ का ज्ञान उन्हें अपने मामा तम्बूरा वादक श्री तेजूलाल यादव जी से प्राप्त हुआ।
यह उन दिनों की बात है जब उनके सगे संबंधी पद्म श्री प्रहलाद टिपण्या कबीर गान से देश विदेश में ख्याति अर्जित कर रहे थे। अपनी गायकी से मध्यकालीन संत साहित्य के शिरोमणि कबीर को मालवा के जन-जन के अन्तःकरण में स्थापित कर चुके श्री बाबूलाल सारोलिया, श्री कैलाश जी सोनी, श्री हेमन्त चैहान और श्री स्वतंत्र कुमार ओझा जी ने भी दयाराम को कबीर गान के लिए प्ररित किया। उन्ही के पद चिन्हों पर चल कर श्री दयाराम ने 12 वर्ष की अवस्था में आकाशवाणी में अपना पहला कबीर भजन रिकार्ड कराया। उज्जैन स्थित खैरागढ़ संगीत महाविधालय से शास्त्रीय संगीत में प्रथमा और मध्यमा उत्तीर्ण करने के दौरान ही पंचायत सचिव के पद पर शासकीय सेवा में आ जाने के कारण उन्हें पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। पढ़ाई पूरी किये बिना ही वे गांव लौट आये कबीर की वाणी का चमत्कारिक प्रभाव तो उनके सिर चढ़कर बोल रहा था सो वे गांव-गांव घूमकर कबीर गान से लोक मानस में आत्मविश्वास आस्था और आशावाद की भावनाएं प्रतिष्ठापित करने में जुट गये। दयाराम जी ने ओशों को बांचा जिसमें वे कबीर को सीधे गोलकुंडा की खदान से निकले कोहिनूर अनगढ़ हीरे की संज्ञा देते हैं।
एक के प्रश्न के उत्तर में दयाराम बताते हैं कि कबीर ने राम को स्वीकारा है पर तुलसी के राम और कबीर के राम में अन्तर है। कबीर के राम तो आत्मा के राम है। कबीर दास जी की स्पष्टवादिता और मनुष्यता से प्रभावित श्री दयाराम की संवेदनशील गायकी इसीलिए हृदय को संस्पर्श करती चलती है। संत बुल्लेशाह, दादू दयाल, पलटू साहिब और संत सिंगाजी जैसे संत जो विसंगतियों की ओर उंगली उठाना जानते थे की तेजस्विता का प्रखरता से समर्थन करने वाले दयाराम गांवों में आयोजित होने वाले मेलों में संतो की वाणी को लोक, बेंत तथा लावणी छंद गायकी में ऐसे पिरोकर प्रस्तुत करते हैं कि लोक मानस कालजयी धर्मोपदेशक कबीर सहित निरगुनी साधकों की रचनाओं से स्वमेव जुड़ जाता है और रूखी-सूखी खाय के ठण्डा पाणी पी। देख परायी चूपड़ी मत ललचाओं जी कहने वाले कबीर के निष्पक्ष चिंतन के प्रबल समर्थक श्री दयाराम की कबीर वाणी देखने और सुनने वालों को लगभग साढ़े छः सौ साल पुराने कबीर युग में ले जाती है।
बहुत बहुत साधुवाद आपको
मैड़म दिशा जी, हमारी मंडली की ओर से भोपाल में जो लोकनाट्य नकल चमोटा शैली में ‘हीर रांझा ‘ की पेशकारी की गई उसकी आपने जो समीक्षा की है वो काबले तारीफ है। किसी दूसरे प्रदेश की लोक कला के बारे में इतनी गंभीर समीक्षा हर किसी के वस की बात नहीं होती। छोटी से छोटी बात को भी आपने पकड़ा है। इसके लिए आपका हारदिक धन्यवाद।
हरदयाल सिंह थुही
बहुत रोचक जानकारी
जगजीत
अति उत्तम
सिंगारा सिंह