मालवा की लोक नाट्य शैली माच, जबलपुर का देवीजस गान, जूनागढ़ का गरबा

मालवा जबलपुर जूनागढ़

ओपेरा संगीत की भांति गीतिनाट्य प्रधान माच के आरंभ में मंच पर एक कुर्सी पर गुरु का चित्र रखा गया। सभी माचकार ने जयकारों के साथ ही खेल का आरंभण गणपति वंदना, सरस्वती, हनुमान जी और भैरव वंदना के साथ किया। हमने देखा गणपति जी की गजल गा कर प्रणवीर तेजा जी माच ख्याल की शुरूआत के बाद ठेका इकहरी में भिश्ती पानी छीटने वाली मशक लिए दिल दरिया मन मसक मनोहर निरमल जल भरकर लाया कहकर मंच पर प्रविष्ट हुआ। इसके बाद फर्रासन की बिछात ज्ञान की गादी और गलीचा तकिया गोल मटोल की रंगत ठेका दौड़ी में सामने आई। क्रमवार रंगत चलत, चार कड़ी, आजी प्यासा परदेसी ने अरे पणिहारिन की छोटी रंगत, ससुराल जाने वाले प्रहसन में रांझा का प्रयोग होता गया। हमने सत्यनारायण जी से रंगत के संबंध में प्रश्न किये तो उन्होंने बताया कि माच गीत रंगतों पर गाये जाते हैं। संवाद चबोले कहलाते हैं। जिनका प्रयोग कम ही होता है। कड़ावा (कड़ी) लगाकर नाचने वाले माचकार ही रंगत भी गाते हैं। मंच पर बैठी माचमण्डली पलटेदार गायकी (ध्रूपद गायकी के अग्रेता कुमार गंधर्व की शैली) में उस टेक को झेलकर उसे दोहराती है। माच में रंगत चलत की, खड़ी रंगत, रंगत मारवाड़ी, रंगत इकेरी, दुगुन, ठेका दुगुन, ठेका दौड़, रंगत राजा, आसावरी, सिंदूर, छोटा, हलूर छोटी-बड़ी, झेला, इकेरी झटका, हलूर मामेरा, तीनकड़ी, चारकड़ी, सिंदूर बड़ा, झुरना, कालिंगड़ा, माड़ रजवाड़ी दादरा, मालवी को पलटा इत्यादि गायी जाती है।

गांवों में खम्ब स्थापना के बाद ही माच का आयोजन होता है। श्री सत्यानाराण बारोड़ ने लोक नाट्य माच के संदर्भ में हमें बताया कि माच संस्कृत के मंच शब्द का परिवर्तत स्वरूप है अठारहवीं सदी के अन्तिम और उन्नीसवी सदी के प्रारंभिक चरण में यह लोक नाट्य विद्या लोकानुरंजन का विशेष साधन हुआ करती थी। उज्जैन में पूर्व में 350 माच मण्डलियां हुआ करती थीं और वर्तमान में मात्र 5 मण्डलियां माच लोक परंपरा के संवर्धन में येन-केन प्रकारेण लगी हुई हैं। उज्जैन के भागसीपुरा मोहल्ले के माच गुरू गोपाल जी, जयसिंह पुरा मोहल्ले के गुरू बालमुकुन्द जी, दौलतगंज मोहल्ले के उस्ताद कालूराम जी, बेगमपुरा के रामकिशन गुरू, बिलोटीपुरा के गुरू राधाकिशन जी और मालीपुरे के गुरू सिद्धेश्वर सेन जी ने माच के रोचक खेल लिखे और खिलाये।
बहुप्रियता के लिए माच की पारंपरिक शैली में नूतनता लोने वाले लोकनाट्यकार श्री सिद्धेश्वर सेन जो श्री राधाकिशन गुरू की परम्परा के माचकार थे के अनुगामी हैं श्री सत्यनारायण बारोड़। उनके द्वारा रचित 16 खेल पुरातन परिपाटी के हैं जबकि 9 खेलों में नयी मानयताएं सम्मिलित की गयी हैं। सत्यनारायणजी के अनुसार संवादों में पैनापन स्वाभाविकाता, भाषा की सरलता, पद्यों की न्यूनता के कारण उनके गुरू श्री सेन के माच जन-जन में चर्चित हुए। उन्होंने ‘माच’ से अश्लीलता को निकाला और उसे इस तरह मर्यादाओं में ढाला कि उनके माच राज्य और राष्ट्र्स्तरीय संगीत नाटक अकादमी और मध्यप्रदेश शिखर सम्मानों के अधिकारी हो गये। धरती को दान, पनिहारी, रण को टीको, उगतो सूरज, मेहनत को मोती और भगवान की देन माच में श्री सेन ने समसामायिक समस्याओं को उठाया। श्री सेन द्वारा रचित माच की पारंपरिकता को श्री सत्यानाराण बारोड़ आगे ले जा रहे हैं।

Comments

  1. राम जूनागढ़ says:

    આલંકારિક ભાષા કે સાથ પ્રસ્તુતિ
    નૃત્ય સંબંધી પુખ્તા જાનકારી
    વિડીયો ભી ડાઉનલોડ કરકે તાદ્રશ્ય ચિત્રણ કિયા ગયા.
    આપની લેખની વિષય કો પ્રસ્તુત કરને મે પાવરફૂલ હૈ.
    બહનજી , મૈ પ્રશંસા નહિ કર રહા હૂ, બ્લકિ રીયાલીટી બતા રહા હૂ.
    પારંપરિક નૃત્ય સંબંધી માહિતી સબ કો સત્ય કે સાથ ઉપલબ્ધ હો રહી હૈ.
    ધન્યવાદ ?

  2. संजय महाजन says:

    अति सुन्दर
    संजय महाजन

  3. kamal dubey says:

    आपकी लेखनी बहुत ही सुन्दर है

  4. उदयसेवक धावनी says:

    Vah.. Excellent… Apni information aur lekhni bahot hi kabiledad he apne Garba.. Dandiya aur tippani ke bare me bahut hi aches likes he dhanyavad

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