ग्राम विहार : राजा विक्रमादित्य के पिता गन्धर्वसेन की गन्धर्वपुरी, तालोद का सूरजकुण्ड विक्रमादित्य का षष्ठी पूजन स्थल

जैन पट्टावलियों  में महावीर निर्वाण के 470 वर्ष होने पर विक्रमादित्य द्वारा अपने पिता के निर्वासन के प्रतिशोध स्वरूप शकों पर विजयोपरांत विक्रम संवत प्रारंभ करने का वर्णन, गर्दभी विद्या में भी संगीत का तीसरा ग स्वर गर्दभ माना गया है अनुमान है कि गंधर्वसेन अथवा गर्दभिल्ल ही उसका विशेषज्ञ था, अभी भी मन में कई शंकाएं थीं जिनके समाधान के लिए हमने उज्जैन के वरिष्ठ और सुविज्ञ इतिहासकार डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित जी से सम्पर्क साधा और उनसे  गंधर्वपुरी की ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालने का निवेदन किया, उन्होंने बताया कि विक्रमादित्य सम्बन्धी सर्वाधिक प्राचीन परिचय पहली सदी के गुणाढ्य की रचना वृहतकथा से प्राप्त होता है। इस कृति का मूल ग्रन्थ अप्राप्य है। यद्यपि डेढ़ हजार वर्षों से इसके अनेक संस्कृत रूपांकरण होते रहे हैं  जिनमें से 1000 हजार वर्ष पुराने तीन संस्कृत रूपांतरण उपलब्ध हैं। 1. बुधस्वामी का बृहत्कथाश्लोक संग्रह (नौवीं शती) 4539 श्लोक। 2. क्षेमेन्द्र की वृहत्कथामंजरी (1037 ई.) 7500 श्लोक। 3. सोमदेव का कथासरित्सागर (1063-1081 ई.) 22000 श्लोक। इन सभी में विक्रम कथा का उल्लेखन मिलता है। इनमें बेताल पंचविशन्ति अर्थात बेताल पच्चीसी भी सम्मिलित है। वृहत्कथा का विक्रमादित्य प्रसंग इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह एक शताब्दी बाद की रचना है जो विक्रमादित्य के युग की परिधि में आता है। कथासरित्सागर में विक्रम का उल्लेखन मिलता है। कथासरित्सागर, भविष्यपुराण और बेतालपंचविशन्तिका विक्रम की कीर्ति का गुणगान करते हैं। राजपुरोहित जी के अनुसार जयपुर के राजा सवाई जयसिंह के निर्देश पर सूरत कवि की हिंदी भाषांतर में पुराण, सिंहासन बत्तीसी और विक्रम सम्बन्धी अन्य प्रचलित कथाएँ मिलती हैं। इन सभी कथाओं में विक्रमादित्य की वीरता और प्रजावत्सल होने का वर्णन मिलता है साथ ही विक्रम के पिता के रूप में धारा नगर के राजा गंधर्वसेन और उनके चार पुत्र होने की भी पुष्टि होती  है, सुविद डाॅ. भगवतीलाल राजपुरोहित जी की विक्रमादित्य संबंधी पुस्तकें साक्षिणी हैं कि ईसवी की पहली शताब्दी के सातवाहन, आठवी शता. के अभिलेख, दसवीं शती के जैन साहित्य ने भी विक्रमादित्य और उनके पिता गंधर्वसेन की महत्ता को सत्यापित किया है। कथा सारित्सागर के अठारहवें लम्बक की पहली तरंग में विक्रमादित्य के  पिता महेन्द्रादित्य/गर्दभिल्ल और माता सौम्यदर्शना/मदनसेना, प्रतीहार/ भद्रायुध, मंत्री/ महामति आदि का उल्लेखन मिलता है। जैन पट्टावलियां में भी  महावीर निर्वाण के 470 वर्ष होने पर विक्रमादित्य द्वारा अपने पिता के प्रतिशोध स्वरूप शकों पर विजयोपरांत विक्रम संवत प्रारंभ करने का वर्णन मिलता है। सुप्रतिष्ठ इतिहासकार डॉ राजपुरोहित जी ने हमें यह भी बताया कि महेसरा सूरि नामक जैन साधु के अनुसार उज्जैन का राजा विक्रम गर्धभिल्ल का पुत्र था। जिसका एक नाम गंधर्वसेन, गर्धववेश और महिन्द्रादित्य था। जैन परंपरा में चौदवीं शताब्दी की मेरुतुंगाचार्य की प्रबंध चिंतामणि विक्रम चरित्र, विक्रमार्कचरित्र, विक्रमादित्याचरित्र, सिंहासन कथा, सिंहासनद्वांत्रिंत्कथा, सिंहासनद्वांत्रिशिका में विक्रम सम्बन्धी जो जानकारियां प्राप्य हुई हैं उनमें भी गंधर्वसेन को विक्रमादित्य के पिता के रूप में दर्शाया गया है। डॉ. राजपुरोहित उज्जैन में बेतालों के वर्चस्व होने और उसके विक्रम के समकालीन होने की बात पर भी सहमति जताते हैं और अपने तथ्य की पुष्टि के लिए जोड़ते हैं कि विक्रमादित्य के नौ रत्नों में जिस बेताल का उल्लेखन होता है वह अग्नि नामक बेताल था जो राजा के साथ महल की ड्योढ़ी में हाजिरी पर तैनात हुआ करते थे । श्री विशाला उज्जयिनी और आदि विक्रमादित्य नामक उत्कृष्ट पुस्तकों में गंधर्वसेन और विक्रम की गुत्थियों को सुलझाने वाले डॉ राजपुरोहित  भविष्य महापुराण के प्रतिसर्ग नामक चतुर्थखण्ड में कलयुगराजवर्णन नामक उपाख्यान के माध्यम से स्पष्ट करते हैं  कि 3710 कलि में प्रमर नामक राजा ने छः वर्ष राज्य किया। पिता के समान पद वाला उसका पुत्र देवापि उसके बाद देवदूत और फिर गंधर्व सेन 50 वर्ष  तक राजा के पद पर आसीन रहे। उसके पुत्र शंख ने तीस वर्ष राज किया विक्रम के राज्याभिषेक के बाद वे वनगमन पर गए। इन्द्र द्वारा भेजी गयी वीरमती नामक देवनारी से गन्धर्व सेन को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई । उस समय आकाश से पुष्प वर्षा हुई 12 दुन्दुभियां बजीं, सुखद वायु प्रवाहित हुई। कलियुग आने पर, तीन हजार वर्ष पूर्व  शकों के विनाश के निवाराणार्थ शिव जी की आज्ञा से उत्पन्न बालक विक्रमादित्य ने पांच वर्ष की अल्पायु में ही तपस्या प्रारम्भ कर दी थी फ़लस्वरुप  सदाशिव के शिवदृष्टि नामक गण ने ही विक्रमादित्य के रूप में अवतार लिया था। स्वयं पार्वती जी ने विक्रम के रक्षणार्थ बेताल को भेजा था। विक्रम संवत 2069 वर्ष पहले विदेशी शकों (मलेच्छों) पर विजय के उपलक्ष्य में विक्रमादित्य द्वारा प्रारंभ किया गया था। इसी तारतम्य में आपको बताते चलें कि उज्जैन के ही वरिष्ठ इतिहासकार स्वर्गीय डाॅ. जे एन दुबे जी ने  एक साक्षात्कार के दौरान हमें यह बताया था मालवा से प्राप्त सिक्कों व  सीलों की मीमांसा के उपरांत वे प्रामाणिक रूप से यह कह सकते हैं कि महेन्द्रादित्य / गंधर्वसेन / गर्दभिल्ल का पुत्र विक्रमादित्य दीर्धायु था। उनकी 135 वर्ष 7 मास 10 दिन 15 घण्टी 6 घंटे आयु थी। काल गणना में उनके शासन काल की अवधि 60 या 86 या 97 से 100 वर्षों तक भिन्न-भिन्न आंकी गयी है। गर्दभिल्ल के नाम पर ही गर्दभिल्ल वंश का नाम पड़ा था। गंधर्वी विद्या का ज्ञाता होने के कारण ही वह गर्दभिल्ल नाम से जाना गया। उसकी सभा में गायकों का प्राचुर्य था। गर्दभी विद्या में भी संगीत का तीसरा ग स्वर गर्दभ  माना गया है अनुमान है कि गंधर्वसेन अथवा गर्दभिल्ल ही उसका विशेषज्ञ था। कालिदास ने एक गंधर्व आयुध का उल्लेख किया है जिससे जीव हिंसा किये बिना ही विजय सुनिश्चित की जा सकती थी। न चारिहिंसा विजयश्च हस्ते (रघुवंश सर्ग पांच) गर्दभिल्ल द्वारा गर्दभी ध्वनि से अहिंसा द्वारा शत्रु को परास्त करने की परिपाटी के सूत्रपात की कथा भी मिलती है। कहा जाता है कि विक्रमादित्य ने भी काठ की तलवार से और भ्रुभंग (भौहों के इशारे से) शत्रु पर विजयी पायी थी। परमारवंशी गर्दभिल्ल की पत्नी का नाम वीरमती, सौम्यदर्शना व मदन रेखा मिलता है। अब हम क्या कोई भी ताल ठोंककर यह कह सकता है कि सिंहासन बत्तीसी में जिसे गर्दभ के वेष में गंधर्व बताया गया है और जिन की गंधावल की  राजकुमारी से विवाह की कहानी गांव में सुनाई जाती रही है वह गंधर्वपुरी के राजा गंधर्वसेन से ही संबंधित है ।

डाॅ. भगवतीलाल राजपुरोहित मालवा में स्त्री और गधे की युग्मित  प्रतिमाओं के उज्जैन और आस-पास के क्षेत्रों मे बहुतायत से  मिलने को गंधर्व रूपी गर्दभ के कृत्य  से जोड़कर देखते हैं और कहते हैं कि ऐसी कथाएँ कपोलकल्पित निराधार नहीं हो सकतीं। जैन परंपरा में सप्त गर्धभिल्ल का उल्लेख मिलता है सप्त गर्दभिल्ला भूयो भोक्ष्यन्तीमां वसुंधराम् / शतानि त्रीण्यशीतिंच शका हृयष्टादशैव तु  यह बताते हुए राजपुरोहित जी कालक कथा को श्वेताम्बर (चौथी पांचवी सदी) परंपरा में प्रचलित मानते हैं जो दिगंबर से परवर्तीकाल की है। वे महाक्षत्रप रजोबल जिसका बड़ा बेटा खरोष्ठ और छोटा षोडास था को उक्त घटनाक्रम के लिए उत्तरदायी ठहराते हैं। रजोबल का शिलालेख नरसिंहगढ़ से प्राप्त हुआ है जो स्पष्ट करता है कि मालवा में भी उसका वर्चस्व था। वस्तुतः गंधर्वसेन के सम्बन्ध में कालकाचार्य कथानक मिलता है जिसमें वर्णित है कि धारा वर्ष नगरी में वीर सिंह नामक एक शक्तिशाली राजा था। उसका पुत्र कालक और पुत्री सरस्वती थी। जैन संत से प्रभावित होकर उसने जैन धर्म स्वीकार कर लिया थाऔर  बहन के साथ प्रव्रजित हो गया था। एक समय राजा गर्दभिल्ल विहार कर रहे थे। उसी समय वे दोनों भाई बहन धारा नगरी से उज्जैन पहुंचकर भ्र्मण कर रहे  थे। राजा को सरस्वती भा गईं और वे उन्हें बलात अपने अंतःपुर में ले आये। कालक ने उन्हें बहुत समझाया पर वह असफल रहा। असफल होने पर कालक पश्चिम में सिंध पार कर शकों के पास पहुँच गया। यहाँ 96 शक राजाओं का अधिपति सात लाख घुड़सवार सैनिकों वाला शक राजा एक सामंत से संत्रस्त होकर उसके  सिर को लाने का आदेश दे चुका था, सिर न लाने की स्थिति में उसके कुटुम्बियों को जागीर के उपभोग से वंचित रखने का निर्देश भी दे चुका था। कालक ने उन्हीं असंतुष्टों को एकत्रित कर मालवा में गर्धभिल्ल पर आक्रमण किया था। सौराष्ट्र से आकर वे  96 भागों में बंट गए थे। वहां बसकर पांचाल और लाट को जीतने के उपरांत उन्होंने उज्जैन में गर्धभिल्ल की घेराबंदी की थी और उसे निष्कासित कर दिया था। एक परंपरा में गर्धभिल्ल के वन में सिंह द्वारा मारे जाने का वर्णन भी  मिलता है। विजेताओं ने  मालवा को विभाजित कर दिया था सरस्वती पुनः आर्यिका  बन गयीं थीं। युगपुराण से  शकों के प्रचंड आक्रमण और अत्याचारों का विवरण प्राप्त होता है। चार वर्ष पश्चात विक्रमादित्य ने अपने पिता का बदला लेते हुए शकोन्मूलन किया था। जैन कथानकों के रचनाकार ये मानते हैं कि स्वयं जैन धर्मांवलम्बी शकों के आतंक से पीड़ित थे, विक्रमादित्य के नेतृत्व में शकों का दमन का मार्ग प्रशस्त हुआ था। अतः उनके सहिष्णु स्वभाव की चर्चा जैन रचनाओं में बहुतायत से मिलती है। 13वीं से 15वीं शताब्दी के मध्य लिखे गए जैन ग्रंथों में विक्रम के न्यायप्रिय महायोद्धा और उदात्त चरित्र  सम्बन्धी प्रसंग उद्धृत मिलते हैं। तोता मैना की कहानी जो कि संस्कृत वाङ्ग्मय में विक्रमकथा शुकसप्तपति के रूप में मिलती है उस की सत्तर कहानियों में विक्रमादित्य की कीर्ति का बखान मिलता है। मेधावान डॉ राजपुरोहित बताते हैं कि जैन कथा संग्रह तो विक्रमादित्य की ख्याति  से पटा हुआ है। डॉ. भगवती लाल राजपुरोहित ने मध्यप्रदेश के पूर्व राज्यपाल कुंवर मेहमूद अली खां के परमारवंशी राजपूत शासक कल्याण सिंह के वंशज होने का उल्लेख भी अपनी पुस्तक में किया है, भाटों की पोथी को साक्ष्यांकित मानते हुए उन्होंने स्पष्ट किया है कि उन्हें कल्याण सिंह के पूर्वजों में  राजा भोज, उनके पूर्वज इंद्र राजा और उनके पुत्र गन्धर्फ़सहन लिखा हुआ मिला था, यह गन्धर्फ़सहन ही गन्धर्वसेन हैं। अब मन में  कोई उमड़- घुमड़ नहीं थी, लोकमन में विराजीं कथाएं मनगढ़ंत नहीं वरन सत्यता के निकट प्रतीत हो रही थीं मन ने भी पूणर्तः स्वीकार लिया था कि गंधर्वसेन राजा ही महाराजा विक्रम के पिता थे औसत भारतीय यही तो चाहता है कि अंत भला तो सब भला। हेमंती गुलाबी सर्दी में धूप सुहावनी हाथ पसारने लगी थी, धूप मार्ग के कच्चे पक्के मकानों के पश्चिम में बड़े दालानों  तक उतर आई थी अपनी न्याय बुद्धि से तोलमोल कर कुल मिलाकर 261 अभिलेखों के आधार पर भारतीय पुराविद विक्रमादित्य की विद्यमानता के तार्किक स्पष्टीकरण समय समय पर देते रहे हैं हमने वरिष्ठ पुराविद  डॉ. रमेश यादव से इस संबंध में प्रश्न किये, उन्होंने  प्रथम शक आक्रमण के समय जैन धर्म का मुख्य केंद्र सौराष्ट्र को बताते हुए उसके अवन्ति की ओर विस्तार करने का उल्लेख किया। उन्होंने कालकाचार कथानक को शकों के आक्रमण का प्रमुख कारण बताते हुए विक्रमादित्य द्वारा शकों को पराजित करने और संवत प्रचलित करने की तथ्यपरक व्याख्या भी की। 135 वर्षों तक मालव गढ़ के गणमुख्य रहे  विक्रमादित्य द्वारा शांतिपूर्वक उज्जयिनी पर शासन करने संबंधी पाश्चात्य विद्वानों की अन्वीक्षाओं का उल्लेख करते हुए डॉ यादव बताते हैं कि रेप्सन ने भी गर्धभिल्ल पर शकों का आक्रमण और विक्रमादित्य द्वारा शकों का उन्मूलन को  ऐतिहासिक घटना बताया है साथ ही वे  ए.के. फ्रेंक्लिन, इगर्टन, विन्सेट स्मिथ,और स्टेन कोनो द्वारा कालकाचार कथानक की  ऐतिहासिकता की संपुष्टि किये जाने की भी चर्चा करना नहीं भूलते। डाॅ. यादव स्वयं उज्जयिनी के शासक गर्दभिल्ल अथवा गंधर्वसेन तथा  विक्रमादित्य के बीच  पिता पुत्र संबंधों की साक्ष्यों के आधार पर पुष्टि नहीं करते।

Comments

  1. O P Mishra says:

    Wow! Well written and finely executed. You proved that Gardbhilla was Vikramaditya’s father. You are on the footsteps of Mrs devala Mitra DGA SI. Taking forward the interest in the field of art culture,and archaeology.
    Congratulations!

  2. दिनेश झाला says:

    काफी समय बाद आपकी गन्धर्वपुरी पर रचना पढने के बाद बहुत आनंद आ गया धन्यवाद आभार।
    -दिनेश झाला शाजापुर ।??????

  3. Shyam says:

    दीदी नमस्कार.केसर बाई के लोकगीत मे आनंद आ गया आपके द्वारा हमे कई सारी एतिहासिक जानकरी प्राप्त हुई आपका आभार.आपको बधाई.

  4. वीरेंद्र सिंह says:

    ऊँ नमः शिवाय आपका नया ब्लाग पढ़ कर अति प्रसन्नता हुई परन्तु उससे अधिक जिज्ञासा बढ़ गयी गन्धर्व पुरी के बारे में एक ऐसे प्रतापी राजा और वंश के बारे में जिन्होंने परमार वंश की नीव रखी जिनका साम्राज्य मध्य भारत से दक्षिण भारत तक फैला हुआ था जिनके वंशज एक महान सम्राट विक्रमादित्य हुए तो दूसरे राजा भर्तृहरि जिन्होने हिन्दू धर्म का मार्ग दर्शन किया, सबसे बड़ी बात जो आपके शोध से सामने आयी कि किस प्रकार पहले के इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास के साथ घोर अन्याय किया है आपने जिस तरह से पूरी प्रमाणिकता के साथ तथ्यों को सामने लाने का प्रयास किया है शायद इससे आने वाले समय में भारत का प्राचीन इतिहास पुनः एक बार ऐसे ही शोध के साथ देश दुनिया के सामने लाने की आवश्यकता है, आज की जो युवा पीढ़ी जिसको अपने गौरव शाली इतिहास को ना तो बताया गया और ना तो दिखाया गया ऐसे छात्रों के लिए आपका ये लेख किसी अमूल्य खजाने से कम नहीं हैं पर मेरा उन छात्रों से भी निवेदन है कि वे आपका लेख सिर्फ पढ़े नहीं बल्कि गंधर्वपुरी आकर स्वयं अवलोकन भी करे ।इतिहास में प्रामाणीकता सिर्फ किताबों के अन्दर नहीं बल्कि भारत के लोककथाओं में व लौकक्तियो में भी भरे पड़े हैं । जिसको ये पश्चिमी मानसिकता वाले इतिहासकारों ने बड़ी चालाकी से नकारने की कोशिश की । मेरे विचार से आपका ये लेख राजपूत वंश में परमार वंश को और अधिक गहराई से जानने में सहायक सिद्ध होगा ।गंधर्वपुरी को सरकार को विश्व धरोहर स्थल व पर्यटक स्थल घोषित करना चाहिए जिससे भारतीय अपने गौरव शाली इतिहास को जान सके व राज्य का भी आर्थिक विकास हो ।

  5. कमलेश बुन्देला says:

    अति सुन्दर जानकारी
    कमलेश बुन्देला

  6. दयाराम सिरोलिया says:

    बहुत ख़ूब दीदी
    दयाराम सिरोलिया देवास

    1. Rajendra Kumar Malviya says:

      दीदी आप बहुत अच्छा लिखती है, मैं आपका फैन हूँ और हमेशा आपके सारे लेख पढता हूँ। दीदी आपका बहुत अच्छा प्रयास है जो महाराजा विक्रमादित्य और उनसे जुड़े विभिन्न अनछुए पहलुओं को लोगो को बता रही है। दीदी गंधर्वपुरी और राजा गंधर्वसेन के बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा, मानो इतिहास से महाराजा विक्रमादित्य, गंधर्वसेन और उनकी गन्धर्वनगरी को फिर से जीवंत कर दिया हो आपने दीदी।

  7. जितेंद्र सिंह सेंधव, तालोद says:

    दिशा जी शर्मा आपके द्वारा सोनकच्छ तहसील के ग्राम तालोद में आकर सूरजकुंड और माता सृष्टि देवी पर जो लेख लिखा है वहां गौरवशाली है आप आगे और इसी प्रकार प्रयास कर इसे पुरातत्व विभाग तक ले जाने का प्रयास करें।

  8. O p Mishra says:

    Good morning,I have read all about gandharvapuri,temple,sculptures,mythology,interviews othe locals,historian,archaeologist,these are excellent matter for new generations.new young archaeologist must see the survey of the sites.mam you have given the complete chronologies of this makes region.this main site was the famous for jainism, Hindu but no remains of buddhist.there are satisfied memorials which prove the late historic remains.if you have some yogini sculptures in talod,it will be a great for researcher.please see once again this site.without prove we can say the rare discoveries.please see the report of Cunningham volume, he might have written some thing.saptamatrikas are also a part of 64yoginis.wait for new evidences.thanks for sending this matter to me.

  9. आर सी ठाकुर महिदपुर says:

    ???? बहुत ही स्तुत्य, अदभुत प्रस्तुति ।आपका अभिनन्दन।

  10. Rajesh Upadya Ujjain says:

    Thanks didi Bhaut accha laga

  11. राजेश चौधरी गन्धर्वपुरी says:

    बहुत सुन्दर ?????

  12. अजय मंडलोई ऊन खरगोन says:

    बहुत शानदार????

  13. Bhagatsingh says:

    नवम्बर 6, 2019
    काफी समय बाद आपकी गन्धर्वपुरी पर रचना पढने के बाद बहुत आनंद आ गया धन्यवाद आभार।
    Bhagatsingh kushwah khushwahnagar

  14. अहमद अली भोपाल says:

    अति सुंदर?

  15. Op mishra Bhopal says:

    No doubt,you have explained in detail about nature,local mythology, gandhavasen story, relation with ujjaini.good literary records.gandhrvapuri was the centre for parmara art and architecture.ghar ghar me sculptures are still available.thank to your devotions to the social culture ,art ,religious life of the common people,kancha playing girls sent us our child hood.so once again thank you very much.

  16. बंशीधर बंधु, शुजालपुर मंडी says:

    आदरणीया दीदी आपकी रोड डायरी में दृश्यावलियों के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक,धार्मिक और पुरातात्विक उल्लेख अद्भुत हैं। राजा विक्रमादित्य और उनके पिता राजा गंधर्व सेन के मालवी लोक धुन से आबद्ध गुरीले गीतों ने चार चांद लगा दिए हैं।
    गंधर्वपुरी पर आपका शोध पूर्ण कार्य बहुत महत्वपूर्ण है। शोधार्थियों के लिए अवसर प्रदान करने वाला है यदि चाहें तो।
    इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए आत्मीय बधाई एवं शुभकामनाएं

  17. Dr Radha Ballabh Tripathi says:

    In these blogs, Disha Sharma the celebration of life that somehow still continues in rural area. She explores the remotest villages in Madhya Pradesh and with an undaunting courage and jijnAsA continues her search for the roots which are otherwise lost. She creates real feast for lovers of art, history and indigenous traditions. What an undiscovered glory of ancient and mediaeval Archeology!

  18. ललित शर्मा, झालावाड़ - महाराणा कुम्भा इतिहास अलंकरण - वाकणकर रजत इतिहास अलंकरण - says:

    -देवास के लोक की समृद्धि का अद्भुत प्रयास-

    सम्राट विक्रमादित्य के पिता गंधर्वसेन की लोक गाथाओं से परिपूर्ण एवं देवों की प्रिय नगरी देवास को गंधर्वपुरी भी कहते हैं। इसी की भूमि से जुड़ी अद्भुत गाथाओं वाली संस्कृति को गहराई से अपने संस्मरणों में गुंथा है। प्रासेह पत्रकार दिशा अविनाश जी शर्मा ने क्षेत्रीय अनेकशः ग्रामों में जाकर उन्होंने परमारकालीन संस्कृति के शिल्प, मंदिरों के साथ वहाँ लोक में रची संस्कृति को बहुत सुन्दर ढंग से सचित्र उभारा है। धुंध, बादल और सूरज के मध्य संस्कृति का चित्रण बड़ा जीवंत है। ग्राम्य परिवेश, पहाड़, खेत की हरियाली के दृश्यों का जीवंत चित्रण मनोहारी है। वसूली पटवारी राकेश चौधरी की चर्चा के साथ ग्रामीण आवास, केसरबाई द्वारा गंधर्वसेन की गाथा, पं रमेश चंद्र शर्मा द्वारा गन्धर्व गाथा, ये सब इतनी रोचकता लिए हैं कि यहाँ संस्कृति बोलती है और इतिहास मौन रहता है।

    दिशा जी ने मालवा की पुराकला, शिल्प को जिस प्रकार लोक से जीवंत भाव द्वारा जोड़ा वह उनकी अपरिमेय गहनता, विद्वता को प्रकट करता है। मैं हृदय से उनका आभार व्यक्त करता हूँ और परिश्रम को प्रणाम करता हूँ। -देवास के लोक की समृद्धि का अद्भुत प्रयास-

    सम्राट विक्रमादित्य के पिता गंधर्वसेन की लोक गाथाओं से परिपूर्ण एवं देवों की प्रिय नगरी देवास को गंधर्वपुरी भी कहते हैं। इसी की भूमि से जुड़ी अद्भुत गाथाओं वाली संस्कृति को गहराई से अपने संस्मरणों में गुंथा है। प्रासेह पत्रकार दिशा अविनाश जी शर्मा ने क्षेत्रीय अनेकशः ग्रामों में जाकर उन्होंने परमारकालीन संस्कृति के शिल्प, मंदिरों के साथ वहाँ लोक में रची संस्कृति को बहुत सुन्दर ढंग से सचित्र उभारा है। धुंध, बादल और सूरज के मध्य संस्कृति का चित्रण बड़ा जीवंत है। ग्राम्य परिवेश, पहाड़, खेत की हरियाली के दृश्यों का जीवंत चित्रण मनोहारी है। वसूली पटवारी राकेश चौधरी की चर्चा के साथ ग्रामीण आवास, केसरबाई द्वारा गंधर्वसेन की गाथा, पं रमेश चंद्र शर्मा द्वारा गन्धर्व गाथा, ये सब इतनी रोचकता लिए हैं कि यहाँ संस्कृति बोलती है और इतिहास मौन रहता है।

    दिशा जी ने मालवा की पुराकला, शिल्प को जिस प्रकार लोक से जीवंत भाव द्वारा जोड़ा वह उनकी अपरिमेय गहनता, विद्वता को प्रकट करता है। मैं हृदय से उनका आभार व्यक्त करता हूँ और परिश्रम को प्रणाम करता हूँ।

  19. जगदीश भावसार शाजापुर says:

    गंधावल से गंधर्वपुरी के ऐतिहासिक परिदृश्य गांव की सकरी एवं सहृदय गलियों से एवं ग्रामीण मार्ग में इमारती लकड़ी के सागोन वृक्षो से परिचय तो कहीं चंदन की मधुर गंध से गंधावल नाम धन्य करती है ।गांव की पगडंडी में टेशु के मनभावन फूल से स्फूर्ति एवं इमली के बीज से बालिकाओं का खेल सृजन ,घरों के ओसारे-ओटलों से झांकते भग्नावशेष एवं संग्रहित मूर्तियां क्षेत्र की दशा दिशा को उजागर करती है।
    पौराणिक प्रसंग एवं राज वंशावली का सिलेवार वर्णन क्षेत्र की प्राचीनता ,स्थापत्य कला ,साहित्य एवं संगीत के वैभव पठनीय है। धूलकोट जैसे लौकिक कथानक की प्रासंगिकता पर स्वीकृति नहीं है ।देवस्थान आस्था मान मन्नत एवं विश्वास से सराबोर है ।भाषा के माधुर्यऔर सरल प्रस्तुतीकरण में क्षेत्र के विभिन्न आयामों का चित्रण बहुत ही प्रभावी एवं सारगर्भित ढंग से हुआ है विश्लेषण सराहनीय है

  20. लक्ष्मीनारायण पयोधि, भोपाल says:

    इस यात्रा-वृत्तांत में प्रयुक्त भाषा ने चमत्कृत और मोहित किया।इसकी भाषा और वर्णन शैली ने अनायास ही आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की याद दिला दी।आपकी भाषा इस वृत्तांत के आरंभ से ही काव्यात्मक बन पड़ी है।पढ़ते हुए प्रकृति के विविध बिम्ब अपने संपूर्ण सौंदर्य के साथ अवतरित होते जाते हैं।पुरात्व की तकनीकी भाषा तथ्यों को प्रामाणिक बनाती है।ऐतिहासिक,पौराणिक,सांस्कृतिक,श्रुतिमूलक और लोकमान्यताओं के संदर्भ तो हैं ही।कुल मिलाकर एक भव्य यात्रा-वृत्तांत।इसमें एक अच्छे उपन्यास की संभावना भी दिखायी देती है।यदि आपकी रुचि हो तो इसी को लेकर आगे काम कर सकती हैं।
    बहरहाल,एक प्रभावी यात्रा-वृत्तांत के लिये बहुत बधाई और शुभकामनाएँ!

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