कश्मीर के अनंतनाग की भांड पथर चौराहा नाटक शैली

कश्मीर

राजा पथर में राजनैतिक व्यंग्यबाण चलते हैं। अंग्रेज पथर में ब्रितानी शासकों के बर्ताब का लेखा जोखा होता है, आरिम पथेर में सब्ज़ी विक्रेता का दुख दर्द सामने आता है तो वोंटवाले पथेर में ऊँट वालों के क़िस्से कहानियाँ, हंसी-ठट्टे के साथ प्रस्तुत की जाती हैं। स्वच्छंद, स्वतंत्र, मुखर और निर्भीक शैली में कथा सुनाने वाली यह परंपरा कश्मीर के अनंतनाग, बडगाम, कुपवाड़ा, पहलगाम, शोपियां और बांदीपुरा में खूब फली-फूली। बाद में घाटी के अनंतनाग जिले के इक्का दुक्का गावों तक ही सिमट कर रह गई इम्तियाज़ के अनुसार भूहिर पथर में कश्मीरी पंडितों की जीवन शैली का चित्रण हुआ तो गोसांई पथर में कश्मीरी ब्राहम्णों की तीर्थ यात्राओं की सुनी-अनसुनी गाथाएं सम्मिलित की जाती रहीं। इम्तियाज बताते हैं कि वह भी एक दौर था जब इन लोक कलाकारों की प्रस्तुतियों पर प्रसन्न होकर घाटी के रहवासी शॉलें, कम्बल, खेतों की उपजें ईनाम में दे दिया करते थे। पर वर्तमान समय में इसे हेय दृष्टि से देखने वालों की कमी नहीं है।

शादियों, तीज त्यौहारों और राजनैतिक दलों के आयोजनों में अपनी कला से मनोरंजन करने वाले ‘बगथ’ परिवार को अपने लोगों (कश्मीरियों) की उपेक्षा का भी शिकार होना पड़ा, मोबाइल संस्कृति ने पथर के देखने वालों की संख्या घटा दी पढ़ने लिखने वाले युवाओं ने टीवी से नाता जोड़ लिया। वादी में चरम पंथियों की घुसपैठ भी इस कला के विस्तार में बाधक बनी। इम्तियाज बताते हैं कि पढ़े लिखे होने के उपरांत भी उन्होंने अपने पूर्वजों की बहुरंगी भाण्ड पथर कला को संरक्षित और सवंर्धित करने के उद्देश्य से इसको संवारने का बीड़ा उठाया है। अधिक दर्शक जुटाने की चाह में पुरानी कथाओं के अतिरिक्त नयी कथाओं का भी समावेश किया है। बेटी बचाओं बेटी पढ़ाओ स्वच्छ भारत और जनधन योजनाओं वाले जन जागृति जैसे नये विषयों को भी अपनी लोक प्रस्तुति का अंग बनाने वाले युवा इम्तियाज बताते हैं कि हमारे यहां पुलहोड (पटसन की चप्पलें), शॉल और फेरन पहने कलाकार कार्यक्रम में हिस्सा लेते हैं।

उन्हें सर्वधिक प्रसन्नता इस बात की है कि देश के अन्य प्रांतों में कश्मीर की भाण्ड पथर कला को बहुत सराहना मिल रही है। दक्षिण और पूर्वोत्तर राज्यों में भाषाई गतिरोध के बावजूद भी उन्हें और उनके दल को भरपूर सम्मान मिला है। यों तो इस लोक नाट्य शैली में लोक नृत्यों की प्रधानता रहती है कश्मीर के रउफ और सूफी नृत्य के समागम वाले धमाली, बाच्चा नगमा नृत्य के प्रदर्शन से भीड़ जुटाई जाती है पर भोपाल में ‘शिकारगाह पथर’ के मंचन में वन्य जीवों की विद्यमानता के कारण कश्मीर के लोकनृत्यों का प्रदर्शन उतनी मात्रा में नहीं दिखा जितनी की दर्शकों को आस थी। ट्रेवल एण्ड टूरिज़्म विषय के डिग्री धारी इम्तियाज बताते हैं कि इस प्रदर्शनकारी लोककला में सुरनई (शहनाई का प्रतिरूप) वाद्य आद्यांत बजता है जिसमे एक उस्ताद अगुआ होता है दूसरे उसका अनुसरण करने वाले होते हैं। इस दौरान कश्मीरी ढोल और नगाड़ा संगत में रहते है कश्मीरी धुनों पर फारसी प्रभाव लिए मुकाम बजाते संगतिये दर्शकों में थिरकन पैदा करते हैं। फसल कटने पर किये जाने वाले उल्लास और उमंग के नृत्य रउफ में पारंगत इम्तियाज़ प्रदर्शनकारी कलाओं के अतिरिक्त कश्मीरी लोक नृत्यों को भी ले कर देश के कोने कोने में जाते हैं।

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