स्त्री पात्रों को निभाने वाले पुरूष नूपीशाबिस कहलाते हैं जो कि स्त्रीयोचित अभिनयात्मक क्षमता के धनी होते हैं अपने अभिनेय को अपनी आंगिक वाचिक प्रेषणीयता के बल पर ऐसा अभिनीय बना देते हैं कि दर्शक उनकी आंगिक प्रेषणीयता से आसक्त सा हो जाता है, यही सुमंग लीला का वैशिष्ट्य भी है । पुरुषों द्वारा की जाने वाली सुमंग लीलाएं मणिपुर में अत्याधिक लोकप्रिय हैं। इनमें दुराव छिपाव का कोई स्थान नहीं होता। वस्तुतः सुमंग लीला तो दर्शक की ग्राहयता और दत्तचित्तता पर ही आश्रित होती है। इसमें चरित्र की कल्पना के लिए अवकाश भी नहीं मिलता। स्वतः प्रसूत संवादों के बीच अभिनय की प्रधानता, गीत नृत्य की समग्रता सुमंग लीला को प्रभावोत्पादक बनाती है। इसमें परिस्थितियों के अनुसार उपहासात्मक यर्थाथपरक व्यग्यं और व्यंजनापूर्ण हास्य विनोद से स्वांग को ग्राहय बनाया जाता है। दर्शकों से घिरी खुली रंगस्थली पर कला प्रवीणों को देखने वाले पहले आओ पहले पाओं को ध्यान में रखकर पहले से ही स्थान घेरकर बैठ जाते हैं और गांव में उत्सवी वातावरण सृजित हो जाता है। महिलापरक लोक प्रहसन के पात्र-दर्शक प्रायः महिलाएं ही होती हैं। स्त्री पुरूषों के संबंधों और आंगिक व्याख्या की अनुकृति करने वाले इन प्रहसनों में महिलाएं ही पुरूषों का पात्र अभिनीत करती हैं। अपनी साज-सज्जा भी वे पुरूषों की भांति करती है और तो और मांसल ‘देहयष्टि को उभारने का भी जतन करती हैं, पुरुष दर्शक भी इन सुमंग लीलाओं का आनंद उठाते हैं। घाटी और पहाड़ी के लोगों के बीच सामंजस्य बनाने वाली यह विद्या देहाती और शहराती बयारों को स्पंदन से स्फुरित भी करती चलती है , इतिहास पर दृष्टिपात करें तो सुमंग लीला की सर्वाधिक प्रसिद्धि उन्नानीसवीं सदी के उत्तरार्ध में राजा हरिश्चंद्र और सत्यवान सवित्री के विविध रसों के समावेश वाली थोक लीलााओं के प्रस्तुतिकरण से विदित होती है।
આપ બહુત સુંદર કાર્ય કર રહે હૈ.લોક સંસ્કૃતિ કે વિધ વિધ મોતી સમાન કલા કો દ્રશ્ય શ્રાવ્ય રુપ મે પિરસકર અનઠા કાર્ય કર રહે હો.
ધન્યવાદ
Madam Disha Sharma I’m very thankful to you for your article promoting our Manipuri folk theatre Shumang Leela.