गुजरात की भवाई लोकनाट्य शैली, राजस्थान की मांगणियार गायकी

समान उतारने और चढ़ाने वाले 20  सामर्थ्यवान व्यक्तियों के बिना मंचीय आयोजन नहीं हो पाता। जामनगर, राजकोट अमरेली और मोरबी के सूदूर गांवों में आज भी भवाई के देखने वालों का जमघट लगता है परन्तु शहरों और महानगरों की आपाधापी में कलारसिकों के अतिरिक्त दर्शक नहीं जुट पाते। अब तक 7 देशों ब्रिटेन अमेरिका, त्रनिदाद, वैस्टइंडीज आदि में अपनी प्रतिभा से दर्शकों के हृदय में स्थान बनाने में सुफल रहे ये लोककलाकार मुक्ताकाशी मंच पर किसी प्रकार इस लोकधर्मी कला को जीवन्त रखे हुए हैं। लोकजीवन की अभिव्यक्ति वाली इस विद्या में लोकभाषा में संवाद, नाटकीय तत्वों को समावेश वाले वेश , लोकगीत गरबी, लोकवाद्य, संस्कारी नट और गरबा लोकनृत्य का मर्यादित प्रदर्शन होता है। डेढ़ घण्टे की भवाई की नाट्यधर्मी और लोकधर्मी प्रवृत्तियों के अन्तर्सम्बन्धों ने हमें विशेष रूप से प्रभावित किया। अतीत से साक्षात्कार कराती भवाई हमारे भीतर तक उतर गई जिसके लिए पीढ़ी दर पीढ़ी रंगपरंपरा को आगे बढ़ाने वाले लोक कलाकार कांतिलाल सरगम, बलवंत भाई, कांजीभाई, चंदूलाल, मोहन, शांतिलाल, बाबूलाल, बृजलाल, श्यामजी भाई, शिवधनभाई, बाबूलाल, कृष्णाजी की प्रशंसनीय कलासाधना उत्तरदायी है।

ढोल पर विक्रम हरि भाई, शहनाई पर बलवंत भाई पैजा, धीरजलाल पाोरिया, मंजीरे पर मनोहर लाल ओरिया और आगा गोबरा का योगदान अविस्मरणीय रहा। प्रकाश व्यवस्था हरिलाल पैजा के सुपुर्द रही। हरिभाई, प्रकाश भाई, विक्रम भाई व्यास की जितनी प्रशंसा की जाये वह कम होगी सीमित संसधानों में वे इतने सारे कलाकारों को एक साथ लेकर लोकमंचों से सफलतापूर्वक सवा सौ सालों से निर्विध्न भवाई कला को लोकप्रिय बना रहें हैं निःसन्देह सराहनीय है। सांगीतिक भवाई लोक शैली में अपरिमित सम्भावनाएं छिपी हैं इसे और अधिक प्रतिष्ठित मंच प्रदान करने से इस कला को अधिकाधिक दर्शक मिल सकेंगें।

Comments

  1. राम जूनागढ़ says:

    આપને ભવાઈ ખકે બારે મે પુખ્તા જાનકારી પ્રાપ્ત કરકે સુંદર શબ્દાર્થ કે સાથ લિખી હૈ.
    બહુત બઢીયા .
    યુવા પેઢી કો એક નયી દિશા મે, સહી દિશા મે ,સાસ્કૃતિક વારસા કા જ્ઞાન દેને કે લિયે આપકો
    ધન્યવાદ. ?

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